-----------------------------------
दोराहे पे अलग हुए, कब तक पर हम जुदा चलेंगे
इसी धरती के रस्ते, कहीं न कहीं ज़रूर मिलेंगे
ये दरवाज़े बहुत सालों से बंद है तुम इनपर
दस्तक और न दो अब ये टूट कर ही खुलेंगे
बीज दुआओं के उसके दर पर छोड़ आई हूँ
मेरे जाने के कुछ दिन बाद ये फूल खिलेंगे
दोनों यूँ घर में रहते हैं जैसे उला* और सानी*
मिस्रों-से* संग चलेंगे पर ग़ज़ल में नहीं मिलेंगे
अभी बच्चों के कमरे में ज़िन्दगी समेट आई हूँ
देखना कुछ देर में ये खिलौने फिर बिखरेंगे
मेरा दर्द देखकर लोग क्यों कफ़न खरीद लाये
उसके सितम बाकी हैं अभी ये और तडपाएंगे
रूह-फजां शाइरी अंजामे-बेइत्ख्तियारी है वरना
हुजूमे-अल्फाज़ तो हर चौराहे पर मिलेंगे**
~ RC
-----------------------------
जानकारी के लिए - ये रचना बेहर में नहीं है इसलिए ग़ज़ल नहीं कहला सकती
अगर इस रचना को ग़ज़ल बना देते हैं, तो इसमे रदीफ़ न होने की वजह से ये "refrainless ग़ज़ल" कहलाएगी
* उला, सानी, मिस्रा - जैसा कीहम जानते हैं, शे'र की हर लाइन को मिस्रा कहते हैं,
पहली लाइन मिस्रा-उला कहलाती है और दूसरी मिस्रा-सानी
रूह-फजां =प्राण-वर्धक,
अंजामे-बेइत्ख्तियारी=मजबूरियों का अंजाम,
हुजूमे-अल्फाज़=शब्दों के झुंड
-----------------------------
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
16 कविताप्रेमियों का कहना है :
रूपम जी,
रचना के नीचे की जानकारी क्यूँ दी.....उसके बगैर ही रचना में डूबने देते तो क्या बुरा था....
खैर..
"रूह-फजां शाइरी अंजामे-बेइत्ख्तियारी है वरना
हुजूमे-अल्फाज़ तो हर चौराहे पर मिलेंगे**"
बहुत बेहतरीन...
achchi rachna.. sundar bhav...
वैसे बहर के बारे मे तो मुझे भी ज्यादा जानकारी नही है, पर काफिये की बात की जाए तो वो 5 और 6 शे'र मे बिगडा है।
ये बिना रदीफ की गजल है जैसा कि आपने बताया भी है।
पूरी गज़ल पसंद आयी अंतिम शे'र कुछ ज्यादा पसंद आया ।
सुमित भारद्वाज
अंतिम शेर बहुत पसंद आया। आपकी बातों में दम है। रचना गज़ल है या नहीं बता नही सकता। लेकिन अगर आपको बहर के बारे में सीखना हो(जैसा कि मैं भी सीख रहा हूँ) , तो कृप्या यहाँ जाएँ।
http://subeerin.blogspot.com/
बधाईयाँ।
अभी बच्चों के कमरे में ज़िन्दगी समेट आई हूँ
देखना कुछ देर में ये खिलौने फिर बिखरेंगे
रूह-फजां शाइरी अंजामे-बेइत्ख्तियारी है वरना
हुजूमे-अल्फाज़ तो हर चौराहे पर मिलेंगे**
-उप्रोक्त शे'र अत्यधिक पसन्द आये..
उला हो सानी हो रदीफ हो या मिसरा..
शे'र शहर में आ जाता है कभी तो भूला बिसरा..
बहुत अच्छे भाव युक्त लेखन..
शुभकामनायें
मेरा दर्द देखकर लोग क्यों कफ़न खरीद लाये
उसके सितम बाकी हैं अभी ये और तडपाएंगे
ye shaayri ke niymaon ka jhanjhat
to hume maloom nahi ,jo dil ko choo jaay wo achcha hai ,chaahey jo bhi ho
रूह-फजां शाइरी अंजामे-बेइत्ख्तियारी है वरना
हुजूमे-अल्फाज़ तो हर चौराहे पर मिलेंगे**"
yebhi samajh me aa hi gaya ,naayab hai ,kya kamaal ka likhti ho ,neelam tumhe jhuk kar salaam karti hai
मेरा दर्द देखकर लोग क्यों कफ़न खरीद लाये
उसके सितम बाकी हैं अभी ये और तडपाएंगे
बहुत ही वजनी रचना है ..तकनीकी रूप से चाहे गजल न हो जैसा की आप ने कहा है पर इसकी रूह में तो गजल ही गजल है .अच्छी रचना
पूरी रचना ही बहुत सुंदर है विशेष कर ये
बीज दुआओं के उसके दर पर छोड़ आई हूँ
मेरे जाने के कुछ दिन बाद ये फूल खिलेंगे
अभी बच्चों के कमरे में ज़िन्दगी समेट आई हूँ
देखना कुछ देर में ये खिलौने फिर बिखरेंगे
saader
rachana
गज़ल की तकनीक में न ही पड़ूँ तो अच्छा... :-)
ये दरवाज़े बहुत सालों से बंद है तुम इनपर
दस्तक और न दो अब ये टूट कर ही खुलेंगे
अभी बच्चों के कमरे में ज़िन्दगी समेट आई हूँ
देखना कुछ देर में ये खिलौने फिर बिखरेंगे
मेरा दर्द देखकर लोग क्यों कफ़न खरीद लाये
उसके सितम बाकी हैं अभी ये और तडपाएंगे
मज़ा आ गया रूपम जी...
दोराहे पे अलग हुए, कब तक पर हम जुदा चलेंगे
इसी धरती के रस्ते, कहीं न कहीं ज़रूर मिलेंगे
ये दरवाज़े बहुत सालों से बंद है तुम इनपर
दस्तक और न दो अब ये टूट कर ही खुलेंगे
बहुत खूब.....आपकी रचना में डूब जाने को मन करता है.
सम्पादक की कैंची ?तिप्न्नी हटा दी ,यही तो कहा था की यह तो ग़ज़ल नहीं है जैसा लेखक ने माना है ,मगर लेखक का मिजाज गज़लियत का है ,याने अच्छी ग़ज़ल लिख सकतें हैं बस छंद सीख लें
Sabka bahut bahut shukriya.
-RC
rupam ji,
akhir ka sher to gajab likha hai.
ALOK SINGH "SAHIL'
अंदाज़-ए-बयाँ थोड़ा और निखारें।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)