हिन्दी बुजुर्ग भाषा है
तिरस्कृत है..
घर की बुढ़िया की तरह!
कुछ गिने चुने लोग,
मिलकर करते चंदा
तब जी पाती है हिन्दी
इनकी पेंशन के सहारे!
हर हिन्दी दिवस पर चेक-अप होता है
बीमार बुढ़िया का
पिलाए जाते हैं,
कुछ शक्तिवर्धक टॉनिक
क़ि जी जाए बुढ़िया कुछ और दिन!
गुजराती,कन्नड़,तेलुगू,मलयालम
सब बहुएँ हैं इसकी!
बेटे दुतकार रहे हैं
कोई बुढ़िया की तरफ़दारी करे
तो माँगनी पड़ती है माफी..
मराठी बड़ी बहू है शायद!
इस बहू के घर में,
धक्के खा रही है बेचारी!
अब जल्दी ही..
भेज दी जाएगी वृद्धाश्रम
हो सकता है,
वहाँ भी दाखिला ना मिले!
तब कड़कड़ाती सर्दी में..
फटे कंबल के सहारे,
किसी स्टेशन के प्रतीक्षालय में
रात काटती दिखेगी
और किसी सुबह..
ठंड से अकड़ी हुई मिलेगी हमें
उसकी लाश!
शव को गुमनाम बताकर,
भेज देगी पुलिस
किसी मशहूर मेडिकल कॉलेज में!
उसके मृत शरीर को..
चीर डालेंगे नये विद्यार्थी,
शोध करेंगे उस पर,
जानेंगे उसकी उत्पत्ति,विकास का क्रम
और तब..
पता चल पाएगा हमें
उसके लुप्त होने का कारण!
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
मुझे आपकी कविता बहुत अच्छी लगी। जब तक हिन्दी प्रेमियों के हृदय में यह आक्रोश है, हिन्दी जिन्दा है। प्रयास करें कि यह आग कभी ठंडी न होने पाये।
महोदय ,जय श्रीकृष्ण =मेरे लेख ""ज्यों की त्यों धर दीनी ""की आलोचना ,क्रटीसाइज्, उसके तथ्यों की काट करके तर्क सहित अपनी बिद्वाता पूर्ण राय ,तर्क सहित प्रदान करने की कृपा करें
बहुत अच्छी तरह से अपने हिन्दी भाषा की वेदना को अपनी कविता में लिखा है.
मुझे आपकी कविता बहुत पसंद आई.सच में अगर हमने प्रयास नही किया तो हिन्दी का वाही हश्र होगा जैसा की अपने लिखा है....
".हिन्दी बुजुर्ग भाषा है
तिरस्कृत है..
घर की बुढ़िया की तरह!"
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"उसके मृत शरीर को..
चीर डालेंगे नये विद्यार्थी,
शोध करेंगे उस पर,
जानेंगे उसकी उत्पत्ति,विकास का क्रम
और तब..
पता चल पाएगा हमें
उसके लुप्त होने का कारण!"
यथार्थ किहा है..
हिन्दी बुढ़िया हो गयी, कहते कविवर मित्र।
फटेहाल बदहाल सा, खीच दिया है चित्र ॥
खींच दिया है चित्र, नहीं जो हमें सुहाता।
गरिमामय नागरी, हमारी है कुल माता॥
सुन सत्यार्थमित्र मतकर छवि चिन्दी-चिन्दी।
गंगा सी पूजित, अमृतमय अपनी हिन्दी॥
विपुल जी, ये कविता पहले की कविताओं जैसी नहीं लगी.. दिल को छू ही नहीं पाई।
अन्तिम कुछ पंक्तिया सच्चाई लिये हुए पर थोड़ा भयभीत करती हैं पर यदि वास्तविकता यही रही तो?
कविता सुंदर कल्पना शक्ति का परिचय देती है
हिन्दयुग्म का अपना इक सुंदर,सरहानिय प्रयास के लिए
आभार
vipul ji,aag aur aakrosh to kaafi rahi kavita mein achha bhi laga.par........
gunjayish rah gayi aapse shikayat ki,aapse aur adhik jordaar ki ummid thi.
ALOK SINGH "SAHIL"
हिन्दी बुजुर्ग भाषा है
तिरस्कृत है..
घर की बुढ़िया की तरह!
कुछ गिने चुने लोग,
मिलकर करते चंदा
तब जी पाती है हिन्दी
इनकी पेंशन के सहारे!
हर हिन्दी दिवस पर चेक-अप होता है
विपुल जी,
कहा तो आपने सही ही है किन्तु सत्य कड़वा होता है न? इसलिए दिल को दुखा गया.
लाजवाव आपने हिन्दी और हिन्दी की चिंता करने वालो का सही चित्रण किया है
मेरे ब्लॉग पर आप सभी को आमंत्रण है ह्त्त्प://मनोरिया.ब्लागस्पाट.कॉम
एक सही चित्रण कराने का सफल प्रयत्न है | लेकिन हिन्दी कभी मरने वाली नही | इसका नुतनीकरण करना हिंद युग्म की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है |
शुभ आशा के साथ -
अवनीश तिवारी
आपने तो विषय बदल लिया और अच्छा लिखा। हिन्दी की हालत पर व्यंग्य सरीखी है आपकी कविता।
देर आए दुरुस्त आए....कहाँ थे भाई...
बहुत दिनों में लौटे हो विपुल....अच्छा विषय उठाया है और बेहतर लिख सकते थे
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