सहिष्णुता की वह धार बनो
पाषाण हृदय पिघला दे ।
पावन गंगा बन धार बहो
मन निर्मल उज्ज्वल कर दे ।
कर्मभूमि की वह आग बनो
चट्टानों को वाष्प बना दे ।
धरती सा तुम धैर्य धरो
शोणित दीनों को प्रश्रय दे ।
ऊर्जित अपार सूर्य सा दमको
जग में जगमग ज्योति जला दे ।
पावक बन ज्वाला सा दहको
कर दमन दाह कंचन निखरा दे ।
अति तीक्ष्ण धार तलवार बनो
भूपों को भयकंपित रख दे ।
पीर फकीरों की दुआ बनों
हर दरिद्र का दर्द मिटा दे ।
शौर्य पौरुष सा दिखला दो
दमन दबी कराह मिटा दे ।
अंबर में खीचित तड़ित बनो
जला जुल्मी को राख कर दे ।
सिंहों सी गूंज दहाड़ बनो
अन्याय धरा पर होने न दे ।
बन रुधिर शिरा मृत्युंजय बहो
अन्याय धरा पर होने न दे ।
अपमान गरल प्रतिकार करो
आर्त्तनाद कहीं होने न दे ।
बन प्रलय स्वर हुंकार भरो
शासक को शासन सिखला दे ।
पद दलितों की आवाज बनो
मूकों का चिर मौन मिटा दे ।
कर असि धर विषधर नाश करो
सत्य न्याय सर्वत्र समा दे ।
सृष्टि सृजन का साध्य बनो
विहगों को आकाश दिला दे ।
बन शीतल मलय बहार बहो
हर जीवन को सुरभित कर दे ।
कवि कुलवंत सिंह
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
सृष्टि सृजन का साध्य बनो
विहगों को आकाश दिला दे ।
बन शीतल मलय बहार बहो
हर जीवन को सुरभित कर दे ।
बहुत ही सुंदर रचना
सादर
रचना
ऊर्जित अपार सूर्य सा दमको
जग में जगमग ज्योति जला दे ।
पावक बन ज्वाला सा दहको
कर दमन दाह कंचन निखरा दे ।
एक अच्छी कविता है कुलवन्त जी !
कुलवंत जी,
प्रवचनात्मक कविताओं का दौर जा रहा है। लोग यथार्थ पढ़ना अधिक पसंद करते हैं। लेखनी को अप-टू-डेट करें।
Aap sabhi ka haardik dhanyavaad..
worst poem!!!!!!!
NO USE
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