धीरे-धीरे
घर नहीं कहता अलविदा
धरती भी नहीं
धीरे-धीरे ही लुप्त होता है सब कुछ
झड़ते रहते हैं पत्ते
सफ़ेद होते रहते हैं बाल
बदलती रहती है अपना रंग खाल
धीरे-धीरे
सबसे छोटी उंगली
महसूस होती है चोट लगने पर ही
माटी के सकोरे और कुल्हड़
होते रहते हैं आलों से गायब
चौखटों में चौड़ी होती रहती हैं दरारें
ऐसे ही जाते हैं महानगर धंसते
इंच दर इंच सागर में
हम नहीं टोहते अपना अक्स
डूबते शहरों में
प्राचीन किले बंद कर देते हैं
खींचना अपनी ओर
नहीं रह जाती दिलचस्पी
दादाजी के एल्बम से झांकते
अम्मा के छुटपन में
रूठते ही चले जाते हैं रंग
बदलता रहता है जीने का ढंग
गिरगिट होता रहता है मन
और हम कह देते हैं ख़ुद को अलविदा
धीरे-धीरे
घर नहीं कहता अलविदा
धरती भी नहीं.
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
सच्ची कविता विजय जी।
kavita kar gai asar dhire dhire
ati sunder
saader
rachana
धीरे-धीरे
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एक दर्शन जो सफलतापूर्वक जीवन की सच्चाई को परिभाषित करती है।
-देवेन्द्र पाण्डेय।
घर नहीं कहता अलविदा
धरती भी नहीं.
बहुत अच्छा लिखा है विजय जी.. सच लिखा है..
aapse kya kahu kuch kah nahi pa raha hooooooooooo....
......venus kesari
आपकी कविता भी सीधे दिल तक पहुँचती है....
धीरे-धीरे....
निखिल
विजय जी आप हिंद युग्म में नई बहार बन कर आए हैं, जितना जितना आपको पढ़ रहा हूँ उतना ही आपकी कलम का दीवाना बनता जा रहा हूँ, एक और उत्कृष्ट कविता,
विजय जी,
लाजवाब
आलोक सिंह "साहिल"
विजयशंकर जी
शायद ऐसा ही है यह जीवन. बढिया कविता!
आपकी इस कविता ने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की धीरे धीरे कविता की याद दिला दी जी हो आया उसे फिर से पढने का, बहुत बहुत धन्यवाद! आज मुद्दतों बाद उसे भी पढूँगा!
बहुत सुन्दर लिखा है। पढ़कर आनन्द आगया। बधाई स्वीकारें।
बहुत अच्छी रचना | सहज शब्द मन स्पर्श कर गए |
लाजवाब विजय जी सीधे दिल में उतर गई ये कविता आपकी
घर नहीं कहता अलविदा
धरती भी नहीं
आपकी अन्तिम की इन दो लाइनों ने गहरा असर छोड़ा
इस कविता को सराहने के लिए मैं आप सभी सुधीजनों को धन्यवाद देता हूँ. आपके शब्द मेरे लिए सम्बल हैं.
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