हिन्दी कविता की विधा कुण्डलियाँ में अब लेखन कार्य लगभग बंद हो चुका है। लेकिन आज हम जुलाई महीने की प्रतियोगिता से देवेन्द्र कुमार मिश्र द्वारा रचित सावन पर कुछ कुण्डलियाँ लेकर आये हैं। इनकी यह कविता सातवें स्थान पर काबिज़ थी।
इनका जन्म 22 मई 1968 को (म0प्र0) के जिला छतरपुर में गरीब ब्राहमण कृषक परिवार में हुआ। शिक्षा बी0ए0 तक ग्रहण की, तत्पश्चात 1988 (20 बर्ष की उम्र) से शासकीय सेवा कर रहे हैं। इनके पिता प्रतिष्ठित समाज सेवी हैं जिन्हें वियोगी हरि जी जैसे महान् व्यक्तित्व के साथ रहने का अवसर मिला, जो इनके दूर के रिश्तेदार थे और दिल्ली में रहते थे। ये भी अपने पिता के साथ अक्सर उनके यहाँ आया-जाया करते थे। श्री हरि ने साहित्य और समाजिक दोनो क्षेत्रों में जो कार्य किये गये उनकी अनुभूतियों तथा उपलब्धियों की छाप इनके अन्त:मन में समाहित है, जिनसे
वशीभूत होकर इनके मन में भी हिन्दी साहित्य सेवा की सृजन शक्ति जाग्रत हुई ।
पुरस्कृत कविता- कुण्डलियाँ (सावन))
सावन आयो-बर्षा लायो, इन्र्द धनुष की रचना ।
सजनी चली मायके अपने, साजन देखें सपना ।।
साजन देखें सपना, मिलन की बाँधे आस ।
वैरी पपीहा पिहु-पिहु बोले, विरह बढाये प्यास ।।
डाली-डाली-डले हैं झूले, मौसम हुआ सुहावन ।
सखी-शेली करें हठकेली, झूम के आया सावन ।।
हरियाली की ओढ़ चुनरिया, वर्ष।रानी आई ।
पैरों में झरनों की झर-झर, पायलिया झनकाई ।।
पायलिया झनकाई, रंग-बिरंगे पुष्प खिले बालो में हो गजरा ।
नदियाँ-नाले कुआँ तल ईयाँ , चारों ओर नीर का कजरा ।।
मयूर नृत्य कर रहस रचाये , चाल चले मतवाली ।
उगी हैं फसलें भाँति-भाँति की, गहना पहने हरियाली ।।
दामिनि दमिके-मेघा गरजें, रिम-झिम बरसे नीर ।
गये पिया परदेस भीगें तन-मन, बढती जाये पीर ।।
बढती जाये पीर, तन में आग लगाये ।
कुहू-कुहू कोयल की बोली, मन में हूक उठाये ।।
विरह की मारी दर-दर डोले, इन्तिजार में कामिनि ।
आजाओ मिल जायें ऐसे, जैसे मेघा-दामिनि ।।
सावन के शुभ सोमवार, महाकाल की पूजा ।
चले काँबडिया अमरनाथ को, ऐसा नहीं है दूजा ।।
ऐसा नहीं है दूजा, भाई-बहिन का प्यार ।
रक्ष।बंधन ऐसा बंधन, राखी का त्योहार ।।
हाथों मेंहदी रचाई, रहे सुहाग पावन ।
तरह-तरह मिष्ठान बने हैं, यही है भैया सावन ।।
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ५, ३॰५, ५, ७, ८
औसत अंक- ५॰७
स्थान- नौवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ६, ५॰७(पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ५॰९
स्थान- सातवाँ
पुरस्कार- मसि-कागद की ओर से कुछ पुस्तकें। संतोष गौड़ राष्ट्रप्रेमी अपना काव्य-संग्रह 'दिखा देंगे जमाने को' भेंट करेंगे।
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
दामिनि दमिके-मेघा गरजें, रिम-झिम बरसे नीर ।
गये पिया परदेस भीगें तन-मन, बढती जाये पीर ।।
बढती जाये पीर, तन में आग लगाये ।
कुहू-कुहू कोयल की बोली, मन में हूक उठाये ।।
विरह की मारी दर-दर डोले, इन्तिजार में कामिनि ।
आजाओ मिल जायें ऐसे, जैसे मेघा-दामिनि ।।
बहुत सुन्दर लिखा है। पढ़कर आनन्द आगया। बधाई स्वीकारें।
sunder hai bahut achchha likha hai
saader
rachana
सावन के शुभ सोमवार, महाकाल की पूजा ।
चले काँबडिया अमरनाथ को, ऐसा नहीं है दूजा ।।
ऐसा नहीं है दूजा, भाई-बहिन का प्यार ।
रक्ष।बंधन ऐसा बंधन, राखी का त्योहार ।।
हाथों मेंहदी रचाई, रहे सुहाग पावन ।
तरह-तरह मिष्ठान बने हैं, यही है भैया सावन ।।
अत्यन्त खुबसूरत पंक्तियाँ.बधाई स्वीकार करें.
आलोक सिंह "साहिल"
मज़ा आ गया देवेन्द्र जी, न जाने कितने समय बाद यह विधा पढी हो. धन्यवाद!
bahut acche devender ji badhaayee
shyam skha shyam
पहली बार जाना कि हिन्दी में कोई कुण्डलियाँ विधा भी होती है... बहुत अच्छा लिखा है देवेंद्र जी..
अगर हिन्दयुग्म इसी तरह की विधाऒं के बारे में भी बताना शुरू करे तो कुछ लोग हैं मेरे जैसे जिन्हें इन सब के बारे में पता नहीं है..उन्हें भी ये सब पता चल सकेगा... जैसा गज़ल को लेकर किया गया था... यदि कोई अनुभवी कवि या समीक्षक का साथ मिल जाये तो सोने पे सुहागा...
धन्यवाद...
हां मै तपन जी से सहमत हूँ हिंद युग्म को हिन्दी कविता की हर विधाओ को समय समय पर पाद्को को बताना चाहिए जिससे उससे अनभिज्ञ लोग उसके बारे में जान सके
देवेद्र जी आपकी सुंदर रचना के लिए आपको बधाई
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