फ़राज़ अब कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं
मगर करार से दिन कट रहे हों यूँ भी नहीं
लेखक - प्रेमचंद सहजवाला
अक्सर मैं अन्य किसी कार्यक्रम में जाना रद्द कर दूँ तो कर दूँ, पर विश्व पुस्तक-मेले में न जाऊँ, भला यह कैसे हो सकता है? एक अजीब सी तृप्ति मिलती है मुझे. पर क्या मैं पुस्तक मेले के प्रारम्भ के कुछ घंटे बाद या कुछ दिन बाद जाता हूँ? नहीं. मैं तो उदघाटन होने से पहले ही प्रगति मैदान के मुख्य द्वार पर पहुँच जाता हूँ और बेसब्री से इंतज़ार करता हूँ, उस खुले सभागार में दर्शकों के बैठने के लिए बनी सीढ़ियों पर बैठा हुआ, कि उदघाटन शुरू हो और मैं देश और विश्व के प्रमुख साहित्यकारों-विचारकों के विचार सुनूँ. मन में यह भी अदम्य उत्कंठा कि इस बार कौन कौन साहित्यकार मंच पर होंगे, किस किस देश से आए होंगे . फिर मैं वह पुस्तक-मेला कैसे भूल सकता हूँ, जिस में मैं उत्तेजित सा हो कर सीढ़ियों से टपाटप उतरता हुआ मंच पर चढ़ जाता हूँ, यह फ़िक्र किए बिना, कि कोई सुरक्षाकर्मी पीछे से आ कर मेरी गर्दन दबोचेगा. कुछ शख्सियतें ऐसी होती हैं जिन से गले मिलने की कोई भी कीमत चुकाई जा सकती है. मैं कोई क्रिकेट मैच नहीं देख रहा था और न ही किसी ने दोहरा-तिहरा शतक मारा था कि क्रीज़ की तरफ़ अंधाधुंध बढ़ता जाऊँ. जब मैं मंच की सीढ़ियां चढ़ रहा था, तब उसी दिन एक पुस्तक में पढ़ी हुई एक बात मन में ठहरी थी और मुझे हँसी भी आ रही थी. उस पुस्तक में लिखा था कि बहुत साल पहले पेशावर में कहीं कपड़ों की एक सेल लगी थी. एक पिता अपने बड़े बेटे के लिए सेल से एक इंग्लिश सूटिंग लाये और छोटे के लिए कहीं से एक सस्ता काश्मीरा खरीद लाये. बस, थोडी ही देर बाद पिता को वह सस्ता काश्मीरा वापस मिला और उस में नत्थी एक कागज़ पर एक शेर लिखा था-
जबकि सबके वास्ते लाये हैं कपड़े सेल से,
लाये हैं मेरे लिए कैदी का कम्बल जेल से
यह उस दसवीं में पढ़ने वाले छात्र की जिंदगी का पहला शेर था जो देखते-देखते शायरी और उर्दू कविता में विश्व फलक पर छा गया. वही विश्व प्रसिद्व शायर इस समय मंच पर उपस्थित है, यह सोच कर मन में एक खुशी भरी धुकधुकी भी हो रही थी और यह कि इतना बड़ा शायर जनता के बीच उत्साह से दौड़ कर आए एक शख्स को तवज्जो देगा कि नहीं. पर वह बहुत उम्दा व्यक्ति निकला. इतने अपनेपन से मिला कि जैसे विभाजन से पहले से ही मुझे जानता हो. मैं विभाजन के समय दो वर्ष का था. विभाजन के उस अंध-काल में सब की तरह हमारा परिवार भी खतरे में पड़ गया था. पर वहां से जान बचा कर हिंदुस्तान आयें तो कैसे. मुझे मेरे पिता ने बताया था कि हम लोग भारत आने वाली उस रेल गाडी में आए जिस में पैर रखने की जगह नहीं थी. और दो साल का लड़का मैं, फटी-फटी आँखों से चारों तरफ़ फैले कोलाहल से भयभीत था. पर जानते हैं, मुझे एक मुसलमान इंजन ड्राईवर ने सुरक्षा से पकड़ रखा था, वह भी जानवरों वाले डब्बे में. मुसलमान ड्राईवर ने मेरे पिता से कहा था कि पहले उस की जान जायेगी फिर हम में से किसी का बाल बांका होगा. रात को ड्यूटी बजा कर वह सुबह हम सब को लेने आया. विभाजन के पहले की वे दर्दनाक बातें हर उस आदमी के दिल में चस्पां होंगी, जो अपनी जान बचा कर भारत आने के बावजूद अपनी जन्म भूमि को नहीं भूल पाया. ऐसे में उत्तेजित करने के लिए इतना ही काफ़ी है कि पाकिस्तान से आया हुआ कोई शायर मंच पर है...शायर ख़ुद भौगोलिक सीमायें नहीं देखता. मैं उत्तेजना वश उस शायर से गले मिला तो उस ने किसी भी प्रकार की आपत्ति न की बल्कि शायद उसे भी यह सोच कर खुशी हुई होगी कि कोई हिन्दुस्तानी भूगोल की सीमाओं को और विभाजन की विभीषिका को ठोकर मार कर इतनी तबियत से मेरे साथ गले मिल रहा है. मैंने अलग होते ही कहा- फ़राज़ साहेब, मैंने आप की शायरी पढ़ी है. मुझे आप का एक शेर हर वक्त याद रहता है -
फ़राज़ अब कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं
मगर करार से दिन कट रहे हों यूँ भी नहीं
आप वह शेर मुझे अपने हाथों से लिख कर दे दें! मन में फिर धुकधुकी हुई कि कहीं डांट न दे. सोचा डांट देगा तो भी अच्छा, क्यों कि बड़े शायरों की डांट खाने का भी अपना एक आनंद है. फ़राज़ ने मुझ से बहुत प्यार से पूछा - आप का नाम?
'मैं एक कथाकार हूँ. प्रेमचंद सहजवाला'
तब तक मंच पर एक खूबसूरत सी उद्घोषिका की आवाज़ गूँज रही थी, और वह कार्यक्रम शुरू करते सब का स्वागत कर रही थी. फ़राज़ ने फौरन अपनी कलम निकाली और मेरी diary में वही शेर लिख दिया.मन यही कहता है कि बार बार कहूं, जैसे यह मेरी जन्म-भूमि सिंध पर ही लागू होता है -
...अब कोई सौदा कोई जुनूँ भी नहीं,
मगर करार से दिन कट रहे हों यूँ भी नहीं.
वापस अपनी जगह पर लौटा तो आँखें सजल थी. पाकिस्तान से इतना बड़ा शायर आया है, उसने मुझे तबियत से गले लगने दिया, और एक शेर अपने हाथों से लिख कर मुझे दे दिया. मैं उन लोगों के नाम सोच रहा था, जिन्हें जा कर खुशी से बताऊंगा, कि मैं किस से गले मिला था आज...
पर आज आँखें फ़िर सजल हो गयी हैं. शैलेश भारतवासी पर गुस्सा आ रहा है. वह फ़ोन पर क्या मुझे कोई अच्छी ख़बर नहीं दे सकता था? क्या वह यह नहीं कह सकता था कि अहमद फ़राज़ अब बिल्कुल तंदुरुस्त हो कर हस्पताल से आ गए हैं, और यह कि वे हिन्द-युग्म की एक गोष्ठी में आ रहे हैं? पर शेलेश की अपनी आवाज़ भी कांपती सी है. जो उससे पहले ऐसा कभी नहीं होता था. ये शैलेश जी क्या कह रहे हैं? क्या मैं ठीक से सुन रहा हूँ? पर शैलेश तो कह रहे हैं - अहमद फ़राज़ का निधन हो गया है! शैलेश, मुझे सचमुच, तुम पर बहुत गुस्सा है.
एक महीना पहले पढ़ा था कि अहमद फ़राज़ चिकागो के एक हस्पताल में हैं. बीमार हैं, हालांकि बहुत वृद्ध नहीं हैं, केवल 77 वर्ष के हैं. जिस समय फ़ोन आया उस समय मैं इन्टरनेट पर कुछ काम कर रहा था. फ़ौरन एक दो वेबसाइट खोली. सचमुच, इस्लामाबाद के शिफा अंतर्राष्ट्रीय हस्पताल में उन का निधन हो गया है. वे एक महीना चिकागो हस्पताल में थे. गुर्दों की समस्या के कराण dialysis पर रहे...
...फ़राज़ की शायरी अक्सर पढ़ने बैठ जाता हूँ. उनकी तुलना फैज़ अहमद फैज़ और फिराक गोरखपुरी से होती है. फिराक का एक शेर मुझे बहुत पसंद है -
एक दुनिया है मेरी नज़रों में,
पर वो दुनिया अभी नहीं मिलती.
फ़राज़ को भी यह मशीनी दुनिया पसंद नहीं. वे लिखते हैं -
रफ्ता रफ्ता यही ज़िन्दाँ में बदल जाते हैं,
अब किसी शहर की बुनियाद न डाली जाए.
(ज़िन्दाँ = जेल)
सचमुच, शायर किसी एक देश का होता ही नहीं. पिछले वर्ष भी तो फ़राज़ भारत आए थे. नई दिल्ली में उनका संवेदनशील हृदय उस समय सब के सामने प्रकट हुआ जब उन्होंने कहा कि पाकिस्तानी लोगों के हृदय को यह बात अक्सर छू जाती है कि पाकिस्तानी बच्चों का इलाज हिंदुस्तान में होता है. उन्होंने स्पष्ट कहा 'हिंदुस्तान और पाकिस्तान एक दूसरे के अधिकाधिक निकट आ सकते हैं. यदि भारत पाकिस्तान की मदद चिकित्सा में करे तो पाकिस्तान अच्छे से अच्छे खेल कूद के सामान भारत को मुहैय्या करा सकता है'. काश दोनों देश एक दूसरे के ज़ख्मों को मुहब्बत से धो सकते. पर इतने, समुद्र जितने विशाल हृदय वाले शायर अक्सर तानाशाहों की निगाहों में आ जाते हैं. फ़राज़ को भी देश निकाला तक सहना पड़ा, जनरल जिया-उल-हक जैसे तानाशाहों के हाथों. पर क्या तानाशाही उनके हृदय पर राज कर सकी? नहीं. शायर सारी मानव जाति के होते हैं और दिल में एक प्यार की शम्मा जला कर जीते हैं. वे लिखते हैं -
हर तमाशाई फकत साहिल से मंज़र देखता,
कौन दरिया को उलटता कौन गौहर देखता
(साहिल = किनारा, गौहर = मोती)
फ़राज़ दरिया में गोते लगा कर प्यार का गौहर मुट्ठी में ला कर बाहर आना जानते थे. वे प्यार देते थे, तो प्यार के प्यासे भी थे. इसीलिए कहते हैं -
आँख में आंसू जड़े थे पर सदा तुझ को न दी,
इस तवक्को पर कि शायद तू पलट कर देखता.
(तवक्को = उम्मीद)
फ़राज़ ने हर किस्म की जिंदगी देखी. इसीलिए कहते हैं -
कैसे रस्तों से चले और किस जगह पहुंचे फ़राज़,
या हुजूमे - दोस्ताँ था साथ, या कोई न था.
(होजूमे- दोस्ताँ = मित्र-मंडली)
1931 में नौशेहरा में पैदा हुए अहमद फ़राज़ अक्सर पेशावर में ही रहे. मातृभाषा पश्तूनी थी, पर बन गए उर्दू और फारसी के विद्वान. बचपन में उन के पिता ने उन्हें डांट कर किसी विशेष छात्रा का सन्दर्भ दे कर कहा कि उस के साथ बैठ कर गणित सीखा करो. वे उस लड़की के साथ नियमित बैठने तो लगे, पर गणित की जगह वे उससे करने लगे शायरी की अन्ताक्षरी! रोज़गार के लिए कई काम किए, कराची रेडियो, पेशावर रेडियो. उर्दू व फारसी में स्नातकोत्तर परीक्षा पास कर के पेशावर विश्वविद्यालय में प्राध्यापक. पाकिस्तान नेशनल सेंटर इस्लामाबाद के निदेशक. जिया ने देश निकाला दिया तो लन्दन चले गए,..पर फ़राज़ का कौन सा शेर उद्धृत करूँ कौन सा नहीं, कुछ सूझता नहीं. सब शेर तो उनकी छवि को ला कर सामने खड़ी करते हैं. एक शायर जो दुनिया के भीतर है, पर दुनिया की असंख्य बातें उसे सहन नहीं हैं, इसीलिए अपने आप में ही खो कर कहता है -
दुखों के ढेर लगे हैं कि लोग बैठे हैं,
इसी दयार का मैं हूँ भी और हूँ भी नहीं.
(दयार = जगह).
पर अब वो चले गए हैं तो अचानक फैज़ अहमद फैज़ की एक नज़्म याद आती है -
फूल मुरझा गए हैं सारे/थमते नहीं हैं आँख के आंसू/ शमएँ बेनूर हो गई हैं/ आईने चूर हो गए हैं/ पायलें सब बज के सो गई हैं/ और इन बादलों के पीछे/ दूर इस रात का दुलारा/ दर्द का सितारा/ टिमटिमा रहा है/ झनझना रहा है/ मुस्करा रहा है.
मुझे लगता है, सचमुच, किसी भी शायरी प्रेमी के हृदय में वो दर्द का सितारा फ़राज़, अनंत काल तक मुस्कराता रहेगा . क्या शायर वास्तव में कहीं जाते हैं? उनका शरीर जाता है, उनकी आवाज़, उनका दर्द, उनका प्यार?
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24 कविताप्रेमियों का कहना है :
श्रृद्धांजलि इस महान शायर को.
श्रद्धांजलि फ़राज साहब को।
एक दुनिया है मेरी नज़रों में,
पर वो दुनिया अभी नहीं मिलती.
के शायर को श्रद्धांजलि।
प्रेमचंद जी,
आपने इतनी जल्दी इतनी अच्छी प्रस्तुति दी, बहुत-बहुत शुक्रिया। कष्ट से ही सही आप पाठकों को पुरानी पीढ़ी को दुबारा देखने का आइना तो दे रहे हैं।
प्रेमचंद जी, शुक्रिया आपको कि इस महान शायर को हिन्दयुग्म तक लेकर आए....
जमशेदपुर में था जब फ़राज़ का एक शेर किसी ने sms किया था...
"तुम तख़ल्लुस को भी इखलास समझते हो फ़राज़,
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलानेवाला....."
पिछले दिनों हिन्दयुग्म में भी कई अपनों ने मतभेद किए, मनभेद किए तो भी फ़राज़ का यह शेर मथता रहा...
तब से आज तक फ़राज़ के कितने ही शेर कितनों को sms कर चुका हूँ....फ़राज़ मेरे मोबाइल से कभी नहीं जाने वाले और न ही जेहन से.....
स्कूल के ज़माने से ही farewell के मौके पर ये उनका ये शेर खूब पढ़ा करता था.....
फ़राज़ साहब को भी इन्ही मोतियों से पूरी हिन्दयुग्म टीम की तरफ़ से भाव-भीनी श्रद्धांजली.....
"अबके हम बिछडे तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूँढ़ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये खज़ाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिलें "
निखिल आनंद गिरि
प्रेमचंद जी, सच कहा आपने शायर किसी मुल्क विशेष का नही होता, वो तो हर दिल में बसता है, हर दिल उसका मुल्क बन जाता है, भावभीनी श्रदांजलि एक अमर शायर को.....आपका बहुत बहुत आभार
कोई इन शब्दों के अर्थ बता दे - फ़राज़, तखय्युल, इखलास.
फ़राज़ = ऊंचाई, बुलंदी.
इखलास = पवित्रता.
तखय्युल = कल्पना.
तखल्लुस = कवि का उपनाम
जैसे 'तालिब' 'ग़ालिब' 'नीरज' आदि.
अरे भाई मायने पूछते वक्त शरमाना कैसा नाम भी लिख देते तो क्या फर्क पङता खैर ये लो मायने बता रहा हूं
फराज-बुलंदी
तखय्युल-सोचना, विचार करना, ख्याल करना, कविता के लिए मजमून तलाश करना, उङान
इख्लास-सच्चा और निशकपट प्रेम, खुलूस,निष्कपटता,
प्रमचंद जी,
धन्यवाद.. जो आपके और हिन्दयुग्म के द्वारा महान शायर के बारे में इतनी जानकारी मिली..
फ्राज़ साहब को श्रद्धांजलि...
दिल की गहराइयों को जो लफ्ज़ की आवाज़ देते थे |
दोस्तों उस शख्स को अहमद फराज़ कहते थे ||
जिसने पाया था शायरी में एक मुश्किल फ़राज़ |
उसको नमन है दिल की गहराइयों से आज ||
प्रदीप मनोरिया (http://manoria.blog.co.in)
बहुत उम्दा प्रस्तुति!
श्रद्धांजलि अहमद फ़राज साहब को।
***
"डूबते डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ
मैं नहीं, कोई तो साहिल पे उतर जायेगा"
अहमद फराज साहेब जैसे शायर कभी मरते नहीं,
ये वो लोग हैं जो आँधियों से भी डरते नहीं..
इनके शेर हमेशा महफिलों में जिन्दा रहेंगे,
और ये शायर हमारे दिलो में जिन्दा रहेंगे..
--गोपाल के.
बेहद आभार इस प्रस्तुति का। आप सौभाग्यशाली रहे कि फ़राज़ से आप जीते जी मिल पाए..
बहुत ही शानदार प्रस्तुति सहजवाला साहब.
इस महँ शायर को मेरा नमन.
आलोक सिंह "साहिल"
शायर अहमद फ़राज़ को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि
महान शायर अहमद फराज़
को समर्पित
दिल सोचे है आपका हमराज़ बन जाऊ,
आप राग बन जाए मै साज़ बन जाऊ |
सोंचता हूँ मै जब भी आपके बारे में,
दिल करता है मै भी फ़राज़ बन जाऊ ||
वीनस केसरी
फ़राज़ साहब को स्राधांजलि
हिन्दयुग्म का आयाम दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है.फ़राज़ जी को इससे अच्छी स्राधांजलि और क्या हो सकती थी..
फ़राज़ को फ़राज़ न दो अब कोई
इस ख़याल को ख्वाब न दो अब कोई
फ़राज साहब को भावभीनी श्रद्धांजलि।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
premchandji ka alekh aur hindyugm kee prastuti.
lajabab.mere peshawar ke hee pakhtoon dost aur faraz ke khandanee jahangir khan(new york me)ko lekh ka tarzuma sunaya aur faraz kee shayaree unkee hee juban me internet pe sunvayee.unka kahana batana jarooree hai.unhee ke lafzon me."unake intekal se ab tak itna achcha presentation kisi aur jagah naheen paya".
punasch:
jahangir ke sath vyaktigat aur new york ke do mushayaron me faraz saheb ke sath mulaqat huyee.unake apne 'des nikale' ke dauran vah bhee indo-pak tension ke peak par.sochata hoon ki sab vaise hote to hind na bantata.kam se kam hind-o-pak na ladte.
vaise faraz sahab ppl ke najdeekee the aur us jamane me kafee pakistanee unase gajab kee nafrat karte the.voh bhee pakistanee nafrat ka ultimate.faraz hindustan ke 'dalal' bhee kahalaye.
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