पेड में पत्ते
पत्तों में चिडिया
चिडिया में चोंच
चोंच में दाना
दाने में खेत
खेत में मिट्टी
मिट्टी में किसान
किसान में गाँव
गाँवों में गोबर
गोबर में औरतें
औरतों में बच्चे
बच्चों में शहर
शहर में सपनें
सपनों में बाज़ार
बाज़ार में सम्मभावनाएं
सम्मभावनाओं में ग्राहक
ग्राहक में भविष्य
भविष्य में योजनायें
योजनाओं में दफ्तर
दफ़्तर में अफ़सर
अफ़सर में रिश्वत
रिश्वत में पुलिस
पुलिस में डंडा
डंडे में बाँस
बाँस में अर्थी
अर्थी में घाट
घाट में पंडा
पंडा में धर्म
धर्म में राजनीति
राजनीति में स्वार्थ
स्वार्थ में अहित
अहित में देश
देश में शहर
शहर में गाँव
गाँव में खेत
खेत में मिट्टी
मिट्टी में दानें
दानें में चोंच
चोंच में चिडिया
चिडिया में पेड
पेंड में पत्ते
पत्तों में कम्पन.
रचना काल : 1997
---अवनीश गौतम
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
padkar maza aaya
क्या बात है अवनीश जी सारी दुनिया की सैर एक कविता में ही करा दी
एक सुन्दर कविता
बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई।
अवनीश गौतम जी, बहुत अच्छी कविता है - और यह वृत्त का प्रयोग भी बहुत सुंदर बन पडा है. बधाई!
वर्तुल जीवन चक्र ....
अवनीश गौतम जी
आपी कविता की कोशिश अच्छी है पर.. आप इस "मै " लाने के चक्कर मै कविता का अर्थ कही कही खो बैठे है,.. जैसे कुछ बातों का तो मतलब ही नहीं निकल रहा है
जैसे
१)"चिडिया में चोंच" सही हो सकता है,, पर बिकुल सही नहीं
२) "औरतों में बच्चे" नहीं समझा?
३)"बच्चों में शहर" ??? बाप रे.. सर के ऊपर से निकल रहा है..
सादर
शैलेश
दुनिया एक वृत्त के समान गोल है
हम जहाँ से चले वहां फ़िर पहुँच जायेंगे इस कविता में ये अहसास दिला दिया आपने
अच्छी रचना
शैलेश जम्लोकी जी एक चीज होती है कविता में जो उसे कविता बनाती है उसे कहते हैं कहने का तरीका उससे भी आगे एक चीज होती है जिसे सलीका कहते हैं. आपसे विशेष अनुरोध है कि आप समकालीन और पूर्ववर्ती कविता का गंभीर और गहरा अध्ययन करें.
अवनीश गौतम जी ,
शायद आपको मेरी टिप्पणिया अच्छी नहीं लगी.. इस के लिए माफ़ी चाहता हूँ..पर मैंने एक आम पाठक के नज़रिए से टिपण्णी दी है..और मुझे बस ऐसा ही.. महसूस हुआ.. वैसे आपने सही कहा आपकी कविता मै बस दो ही बार पढ़ पाया शायद इस लिए सही से नहीं समझ पाया...आगे से ख्याल रखूँगा...
सादर
शैलेश
अवनीश जी--
ऐसन चक्कर चलैला कि लोगन कs खोपड़िया घनचक्कर हो गयल।
हमें त मजा आ गयल। अंत --- पत्तों में कम्पन- से कइला एहसे कविता कs खूबसूरती बढ़ गयल हौ।
एग्यारह बरस बाद छपैला, सौ बरस बाद भी एतने नया लगी।
-देवेन्द्र पाण्डेय।
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