मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥
-आदिकवि वाल्मीकि
यूँ तो
विरह-वेदना जगती तब भी
जब
डाल के दो छोड़ों पर बैठे होते क्रौंच पक्षी...
इशारों में
शीलतापूर्वक
प्रेमालाप करते होते...
और मूढ निषाद
शिकार कर लेता नर क्रौंच का,
आह तब भी उठती
आदिकवि के हृदय से
या फिर नहीं उठती..
क्या पता!
तो क्या
काम-मोहित जोड़े से
एक की मौत पर
कवि इतने आहत हुए कि
शाश्वत प्रतिष्ठाहीन होने का
दे डाला शाप
बहेलिये को,
परंतु काम याकि वासना तो
पाप है....निकृष्ट पाप,
अक्षम्य पाप;
काम अश्लील है,
अशोभनीय है
और अश्लीलता के पोषक,
कामलिप्त ,कामुक प्राणी तो
भागीदार हैं
घृणा एवं दंड के..
तब भी
आह! तब भी
आदिकवि ने
उन पापियों के कारण
शाप दे डाला
एक निरपराध को...
छि:छि:...
तब तो
आदिकवि हीं
पूरक हैं अश्लीलता एवं
वासना के...
फिर
कैसे पूज्य हैं
उनकी अन्य कृतियाँ....
क्या अशोभनीय एवं अस्पृश्य नहीं है
रामायण......
.
.
.
.
.
.
.
क्षमा आदिकवि!
या तो ये प्रश्न और विचार
मेरे नहीं हैं
या फिर
नहीं है आपके हेतु,
क्योकि
मैं
प्रशंसक हूँ
"प्रसाद" की "कामायनी" का
और हूँ जानता कि "वासना" दोष नहीं
बल्कि एक कला है अन्य पंद्रहों की तरह।
ये प्रश्न और विचार तो
उनके हैं
या फिर हैं उनके लिए
जो
स्वयं को मानते हैं बुद्धिजीवी,
पढते हैं धर्मग्रंथों को
परंतु
सत्य से रहते हैं कोसो दूर...
काश!
या तो आपने प्रथम कविता नहीं रची होती
या फिर
सत्य सबके लिए सत्य होता।
काश!!!!!!!
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
आपकी कविता पढ़ी तो मिर्जा गालिब का एक शेर याद आ गया----
कहते हैं दुनियाँ में सुखनवर (गज़लकार) बहुत अच्छे
कहते हैं गालिब का अंदाज-ए-बयाँ कुछ और।
आप ने जिस अंदाज़ से अपनी बात कही उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय वह कम है।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
आदिकवि से प्रश्न मुझे भ्रमित लगा | आप काम - वासना का एक कला के रूप में समर्थन करते है और कहना चाह रहे है कि आदि कवि नही करते थे ? | ल रामायण जैसे काव्य का उल्लेख नही भाया | कुछ स्पष्ट करना | हो सके तो मेल से बताना | और सभी को समझाने दीजिये पहले |
-- अवनीश
बहुत खूब तन्हा जी !
आपकी कविता खूब भाई।
काम को उसके सहज रूप में
स्वीकार न कर पाना आधुनिक युग की देन है
तन्हा जी,
काफी हिम्मत की रचना है क्योंकि कई बिंदु विवादस्पद हो सकते हैं।
काश!
या तो आपने प्रथम कविता नहीं रची होती
या फिर
सत्य सबके लिए सत्य होता।
काश!!!!!!!
आदिकवि ने प्रयत्नपूर्वक कविता नहीं रची थी बल्कि शोक इतना गहरा था कि कविता के रूप में अनायास प्रकट हुआ-शोकः श्लोकत्वम आगतः। और सत्य तो सबके लिए एक सा ही होता है perception अलग हो सकता है| ये तो नहीं संभव है ना कि किसी का सूरज पूरब से निकलता हो किसी का पश्चिम से। पुनश्च, जो सत्य सबके लिये एक सा न हो वो सत्य है ही नहीं क्योंकि सत्य देश, काल एवं पात्र की सीमाओं से परे होता है।
बड़ा यक्ष प्रशन पूछे बैठे आप तो....वैसे मैं सहमत हूँ पूरी तरह...लेकिन कविता में कविता वाले तत्व नही मिले मुझे जैसा कि आम तौर पर आपकी कविता में जम कर नज़र आता है...
बात कह गये तन्हा जी और बडी खूबसूरती से कह गये. बहुत बढिया!
काश!
या तो आपने प्रथम कविता नहीं रची होती
या फिर
सत्य सबके लिए सत्य होता।
काश!!!!!!!
बहुत सुंदर लिखा है तनहा जी.
achchhi soch achchha prashn .myjjhe achchhi lagi kavita
badhai ho
saader
rachana
क्या लिख गए,तन्हा भाई?
सच कहूँ तो पहलीबार आपको पढ़कर मजा नही आया.विषयवस्तु तो बेहतरीन रहा पर कविता.......अगर बुरा लगे तो माफ़ी चाहूँगा.
आलोक सिंह "साहिल"
साहिल भाई!
आपकी टिप्पणी पढकर मुझे तनिक भी बुरा नहीं लगा बल्कि अच्छा लगा क्योंकि
१) इसके अलावा मेरी सारी कविताएँ आपको अच्छी लगी हैं।
२) आपने निष्पक्ष टिप्पणी की। परंतु अच्छा होता कि आप इस कविता के अच्छे न लगने का कारण भी साथ में बता देते....यह कविता मेरे दिल से जुड़ी हुई है।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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