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Thursday, August 21, 2008

शिखर मंथन


आज मैं शिखर पर हूँ
कदमों के निचे से
अंकुरित सूरज
दर्प को द्विगुणित करता
विशिष्टता के बोरे लादे
आत्मविभोर आज मैं
शिखर पर हूँ
आल्हाद सागर में
चुपके से उभरा प्रश्न
अब क्या ?
इसके बाद ?
पतन चाहता नही
और शिखर प्राप्त हुआ
चिंतन पटल पर
अनवरत थपेडे
इसके बाद ?
अब क्या ?
.
आज याद आने लगे
वे शिखर जिन्हें रौंद
मैं शिखर पर हूँ
घर परिवार
संगी साथी
कोई साथ नही
सिवा जूनून के
अपनों के सपनों का इंधन ले
बस बढ़ता चला गया
क्लांत मन तन
दिग्भ्रमित हिम मरू
थका हरा मैं नत-जानू
संसार समर त्याग
लक्ष्य युद्ध पलायन ही तो है
कर में धर करुणा हथियार
क्यूँ ना लड़ा मैं
तितली के पर नोचते बाले से
बछडे का दूध छिनते ग्वाले से
अंगूठा लगवाते लाले से
पर्वत जिनका शिखर नही
यात्रा ही शिखर
शिखर ही यात्रा
तब ना डसता भुजंग प्रश्न
अब क्या ?
आज मैं शिखर पर हूँ
देखा जो फलक से तो
तो.. तो.. गर्त में हूँ
.
विनय के जोशी

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4 कविताप्रेमियों का कहना है :

Harihar का कहना है कि -

तब ना डसता भुजंग प्रश्न
अब क्या ?
आज मैं शिखर पर हूँ
देखा जो फलक से तो
तो.. तो.. गर्त में हूँ

बहुत खूब विनय जी!

BRAHMA NATH TRIPATHI का कहना है कि -

बहुत अच्छा विनय जी पढ़कर दिल खुश हुआ
शुद्ध हिन्दी में लिखी एक बहुत ही भावुक कविता लिखी आपने

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

आज मैं शिखर पर हूँ
देखा जो फलक से तो
तो.. तो.. गर्त में हूँ...

क्या बात है विनय जी... मजा आ गया पढ के...
कुछ नये हिन्दी के शब्द भी सीखने को मिले..

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

बहुत सुन्दर कविता...

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