आज मैं शिखर पर हूँ
कदमों के निचे से
अंकुरित सूरज
दर्प को द्विगुणित करता
विशिष्टता के बोरे लादे
आत्मविभोर आज मैं
शिखर पर हूँ
आल्हाद सागर में
चुपके से उभरा प्रश्न
अब क्या ?
इसके बाद ?
पतन चाहता नही
और शिखर प्राप्त हुआ
चिंतन पटल पर
अनवरत थपेडे
इसके बाद ?
अब क्या ?
.
आज याद आने लगे
वे शिखर जिन्हें रौंद
मैं शिखर पर हूँ
घर परिवार
संगी साथी
कोई साथ नही
सिवा जूनून के
अपनों के सपनों का इंधन ले
बस बढ़ता चला गया
क्लांत मन तन
दिग्भ्रमित हिम मरू
थका हरा मैं नत-जानू
संसार समर त्याग
लक्ष्य युद्ध पलायन ही तो है
कर में धर करुणा हथियार
क्यूँ ना लड़ा मैं
तितली के पर नोचते बाले से
बछडे का दूध छिनते ग्वाले से
अंगूठा लगवाते लाले से
पर्वत जिनका शिखर नही
यात्रा ही शिखर
शिखर ही यात्रा
तब ना डसता भुजंग प्रश्न
अब क्या ?
आज मैं शिखर पर हूँ
देखा जो फलक से तो
तो.. तो.. गर्त में हूँ
.
विनय के जोशी
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4 कविताप्रेमियों का कहना है :
तब ना डसता भुजंग प्रश्न
अब क्या ?
आज मैं शिखर पर हूँ
देखा जो फलक से तो
तो.. तो.. गर्त में हूँ
बहुत खूब विनय जी!
बहुत अच्छा विनय जी पढ़कर दिल खुश हुआ
शुद्ध हिन्दी में लिखी एक बहुत ही भावुक कविता लिखी आपने
आज मैं शिखर पर हूँ
देखा जो फलक से तो
तो.. तो.. गर्त में हूँ...
क्या बात है विनय जी... मजा आ गया पढ के...
कुछ नये हिन्दी के शब्द भी सीखने को मिले..
बहुत सुन्दर कविता...
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