तुम पूनम का चांद बनो,मैं छवि बनूँ सागर में,
एक-दूसरे के पूरक हों,हम जीवन की डगर में….
जीवन के कोरे पृष्ठों पर, तुमको ही चित्रित कर दूं,
चाहता हूँ, विपुल सृष्टि में तुम्हारा रुप भर दूं,
और सुख-सरिता बहे, अविरल सदा ही,
और दुःख सारा तुम्हारा, अपनी ही झोली में भर दूं,
करूं फिर पूजा तुम्हारी, दीप लिए आशा के कर में….
तुम पूनम का चांद बनो, मैं छवि बनूँ सागर में,
एक-दूसरे के पूरक हों, हम जीवन की डगर में….
थोड़ी-थोड़ी आग लगाई, थोडा-थोडा जल डाला,
जब भी जीवन डंसने लगा है, तुमने ही आँचल डाला,
क्या जानूं कि मुझ अधमी पर क्यों-कर तुम आसक्त हुईं!
पर ये सच है, धीरे-धीरे तुमने मुझे बदल डाला,
प्रेम हुआ जाता है सुवासित, धीमे-धीमे अंतर में…
तुम पूनम का चांद बनो, मैं छवि बनूँ सागर में,
एक-दूसरे के पूरक हों, हम जीवन की डगर में
दूरियां कब कर सकीं हैं प्रेम का माधुर्य कम,,
देह ना हो, तो भी मिलते ही हैं भाव अंतरतम,
तुम कभी विचलित ना होना धुंधलकों से,
सूर्य की रश्मि सदा जीती है,कब जीता है तम??
मिटा देगी वेदना सारी,विगत स्मृतियां,पल भर में…..
तुम पूनम का चांद बनो, मैं छवि बनूँ सागर में,
एक-दूसरे के पूरक हों, हम जीवन की डगर में...
बिना तुम्हारे रातें नागिन, दिन का पहर प्रलय लगता है,
सच कहता हूँ, मुझे अभावों में जीना सुखमय लगता है,
बहुत हो चुका, संबंधों के मोलभाव में लुटते रहना,
आंख में आंसू छलते हैं अब, हंसना भी अभिनय लगता है,
तुमने हाथ जहाँ छोड़ा था, भटक रहा हू उसी नगर में……
तुम पूनम का चांद बनो, मैं छवि बनूँ सागर में,
एक-दूसरे के पूरक हों, हम जीवन की डगर में….
निखिल आनंद गिरि
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत अच्छी कविता प्रस्तुत किया है भाई आपने रसास्वादन प्राप्त कर मजा ही आ गया।
तुम पूनम का चांद बनो, मैं छवि बनूँ सागर में,
एक-दूसरे के पूरक हों, हम जीवन की डगर में...
बहुत सुन्दर गीत निखिल जी
तुमने हाथ जहाँ छोड़ा था, भटक रहा हू उसी नगर में……
अच्छे भाव | बधाई |
विनय
वाह बहुत खूब लिख रहे अस आजकल, बहुत सुंदर प्रवाह है, और भाषा सटीक..लगता है किसी विशेष के लिए लिखा गया है....:)
वाह निखिल! बहुत सुन्दर गीत लिखा है,
पर ये सच है, धीरे-धीरे तुमने मुझे बदल डाला,
प्रेम हुआ जाता है सुवासित, धीमे-धीमे अंतर में…
दूरियां कब कर सकीं हैं प्रेम का माधुर्य कम,,
देह ना हो, तो भी मिलते ही हैं भाव अंतरतम,
तुम कभी विचलित ना होना धुंधलकों से,
सूर्य की रश्मि सदा जीती है,कब जीता है तम??
मिटा देगी वेदना सारी,विगत स्मृतियां,पल भर में…..
बहुत खूबसूरत पंक्तिया है यह...
तुम कभी विचलित ना होना धुंधलकों से,
सूर्य की रश्मि सदा जीती है,कब जीता है तम??
ये जो कविता है आपकी
शाश्वत सत्य को समेटे है ख़ुद में,
अब इससे अधिक क्या कहू ....................
वीनस केसरी
लय तो बहुत सुंदर है सर, और भावों की तो पराकाष्ठा हो गई है।
aap ki kavita ne ek shital bayar sa chhuaa man ko
bahut suner kavita hai
saader
rachana
तुम पूनम का चांद बनो, मैं छवि बनूँ सागर में,
एक-दूसरे के पूरक हों, हम जीवन की डगर में….
निखिल भाई,मैंने कई बार जानने की कोशिस की पर कभी जान नही पाया.आख़िर,कौन है वो प्रेव्रानास्रोत?
खैर,आपकी कलम की रवानी हैरान कर देने वाली है,भाव इतने गहरे की मन पुलकित हो उठा.
हैरतंगेज.... हाहा हा हा हा हा....
आलोक सिंह "साहिल"
कुछ कम पसंद आई निखिल भाई!
प्रेम की गहरी पराकाष्ठा की झलक दिखी आपकी कविता में
बहुत सुंदर भावों से सजी एक लयात्मक कविता लिखी आपने
Bhahut aachi kavita hai mere to dil ko chhu gayi
Bhavpoorn aur sachi kavita.
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