इस शहर की भीड़ में हम भी हुए गुमनाम से....
चंद सांसें भी न ले पाये कभी आराम से...
नाश्ते में धूल-मिटटी, और खाने में धुंआ,
रात तन्हाई की महफिल, आंसुओं के जाम से....
ख्वाब के जाले टंगे हैं, हर तरफ़ दीवार पर,
नींद आंखों में नहीं आई है पिछली शाम से...
माँ दुआएं भेजती तो है, मगर मिलती नहीं,
जो भी मिलता है यहाँ, मिलता है अपने काम से...
ख़ुद ही चलके आएगी मंजिल, "निखिल" छोडो भरम,
सर झुकाकर, बन न पायी, राह भगवन राम से.....
निखिल आनंद गिरि
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6 कविताप्रेमियों का कहना है :
Refreshing one though traditional.
Good-
ख़ुद ही चलके आएगी मंजिल, "निखिल" छोडो भरम,
सर झुकाकर, बन न पायी, राह भगवन राम से.....
bahut achhi gajal-Devendra Pandey.
ख़ुद ही चलके आएगी मंजिल, "निखिल" छोडो भरम,
सर झुकाकर, बन न पायी, राह भगवन राम से.....
वाह!!
सत्य वचन!
बेहद उम्दा गज़ल !
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
nikhil itni acchi aur bhav purn gazal ke liye apko badhayi.antim panktiya atyant shundar hai
इस शहर की भीड़ में हम भी हुए गुमनाम से....
चंद सांसें भी न ले पाये कभी आराम से...
पहला शेर पढ़ते ही रोम रोम खिल उठा
नाश्ते में धूल-मिटटी, और खाने में धुंआ,
रात तन्हाई की महफिल, आंसुओं के जाम से....
ख्वाब के जाले टंगे हैं, हर तरफ़ दीवार पर,
नींद आंखों में नहीं आई है पिछली शाम से...
माँ दुआएं भेजती तो है, मगर मिलती नहीं,
जो भी मिलता है यहाँ, मिलता है अपने काम से...
आगे के शेरो में आपने शहर की भागदौड़ की पूरी जिंदगी बयां कर दी है काफ़ी अच्छा लगा
ख़ुद ही चलके आएगी मंजिल, "निखिल" छोडो भरम,
सर झुकाकर, बन न पायी, राह भगवन राम से..
अन्तिम शेर पढ़कर दिल बाग़ बाग़ हो उठा और मुह से निकला वाह
बहुत बढिया निखिल!
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