बीच भंवर में भी सागर ने मुझको रखा प्यासा,
मैं पथ का कंकड़, कैसे हो मंदिर की अभिलाषा?
तुम देवालय की मूरत, मैं अदना-सा दास तुम्हारा,
मेरी चौखट जितनी भूमि, बहुत बड़ा आकाश तुम्हारा,
जुगनू को तारा कहकर मत मान बढ़ाओ, रहने भी दो,
तुम मन की निश्छल, निश्छल विश्वास तुम्हारा॥
मुरझाती कलियों से चमन को, व्यर्थ मधु की आशा....
मैं पथ का कंकड़, कैसे हो मंदिर कि अभिलाषा?
छवि चन्द्रमा की जैसे तुम, पावन जल में,
मरीचिका तुम मेरे मन के मरुस्थल में,
तुम सात सुरों की वीणा , कैसे बनूँ तुम्हारा?
सदा फिरा हूँ मैं, चीखों में, कोलाहल में,
स्वर में मिल ना सकूंगा, समझो मौन की भाषा...
मैं पथ का कंकड़, कैसे हो मंदिर की अभिलाषा?
भाग्य सदा ही प्रेम भाव का करता है उपहास,
लम्बा जीवन, मिलने के क्षण, कम हैं अपने पास,
लेकिन महातपस्या में, इन विघ्नों से क्या डरना,
पात झड़ें, आये सावन, मन करना नहीं उदास,
प्रेम-सुधा की एक बूँद ने, मन-उपवन को तराशा...
मैं पथ का कंकड़, कैसे हो मंदिर की अभिलाषा?
निखिल आनंद गिरी
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
अति सुंदर निखिल जी, क्या उपमाएं हैं - बहुत खूब.
ati sunder
badhai
rachana
निखिल जी,
आपकी कविता मुझे बेहद पसंद आई.. बस कुछ बिंदु कहना चाहूँगा
१) "जुगनू को तारा कहकर मत मान बढ़ाओ, रहने भी दो," इस लाइन मै, जो पहले को पंक्तियों का ताल, लय दिख रहा था.. एक दम से अलग मिला....फिर इस से अगली पंक्ति की लय सही मिली
२) उपमायें बहुत सुन्दर दी है.. और कविता पढ़ कर रवानगी सी लगी.. जो दिल मै घर कर गयी...
३) सुन्दर सरल भाषा का प्रयोग.. चार चाँद लगा रहा है..
४) कविता की लम्बाई.. नपी तुली है.. और बहुत फिट लग रही है..
५) वर्तनी और विराम चिह्नों का पूरा ध्यान रखा गया है..
६) भावात्मक रूप से भी पाठक जैसे जुड़ जाता है कविता से.. अतः आप अपने कथ्य को पाठक तक पहुचाने मै सफल हुए है..
सुन्दर कविता के लिए बधाई
सादर
शैलेश
बहुत अच्छा निखिल जी
उपमा अलंकार से सुज्जजित बहुत ही सुंदर कविता
पढ़कर मजा आ गया
sundar rachna...
निखिल जी,
मुझे आपकी कविता बहुत भायी. विनम्रता ही महानता का द्योतक है..
गजब के अलंकरणों से सजी लाजवाब कविता.
आलोक सिंह "साहिल"
इसे आपकी आवाज़ में सुनना अद्भुत होगा।
छवि चन्द्रमा की जैसे तुम, पावन जल में,
मरीचिका तुम मेरे मन के मरुस्थल में,
तुम सात सुरों की वीणा , कैसे बनूँ तुम्हारा?
सदा फिरा हूँ मैं, चीखों में, कोलाहल में,
स्वर में मिल ना सकूंगा, समझो मौन की भाषा...
मैं पथ का कंकड़, कैसे हो मंदिर की अभिलाषा?
निखिल जी कितना सुन्दर चित्रण है!
पुरी कविता ही सुन्दर बन पडी है, शैलेष जी ने तथ्यात्मक टिप्पणी की है किन्तु किसी भी रचना को पूर्ण नहीं कहा जा सकता और शिल्प से अधिक महत्वपूर्ण है भाव आप लिखते रहैं, आगे बढ्ते रहैं.
बहुत अच्छा लगी यह कविता |
सभी पाठकों का धन्यवाद....कई नए पाठक भी मुझे मिले हैं, इसकी हार्दिक खुशी है.....
भारतवासी जी, कविता को आवाज़ भी दे दूंगा.....थोड़ा इंतज़ार करें....कोई और भी चाहे तो इसे आवाज़ दे सकता है, मुझे ज्यादा खुशी होगी....
सस्नेह,
निखिल आनंद गिरि
bahut hi achhi kavita bani hain,bilkul dil ko chhu gayee.. harivansh rai bachhan ki yad aa gayee,aapki ye kavita padh kar..unhi ki tarah bhasha pravah hai is kavita me....
bahut hi achhi kavita bani hain,bilkul dil ko chhu gayee.. harivansh rai bachhan ki yad aa gayee,aapki ye kavita padh kar..unhi ki tarah bhasha pravah hai is kavita me....
bahut hi achhi kavita bani hain,bilkul dil ko chhu gayee.. harivansh rai bachhan ki yad aa gayee,aapki ye kavita padh kar..unhi ki tarah bhasha pravah hai is kavita me....bachpan me agar aapne ek kaviat" pushp ki abhilasaha" padhi ho,usi tarah ki lagi mujhe aapki ye rachna..
nikhil bhai,
bade din baad aaye.
lekin durust aaye.
बहुत अच्छा लगी यह कविता |
मेरी चौखट जितनी भूमि, बहुत बड़ा आकाश तुम्हारा,
bahut sundar
बिम्ब और उपमान सुंदर परन्तु कहीं कहीं लय-भंग ! अंततः वेदना लिए एक मधुर कविता !!
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