वो जुलाई का पहला हफ्ता था
जब पहली बार बात की थी मैंने
सड़कों से
मेरे मुंह में ताज़ा था हार का स्वाद
नमकीन, सौंधे नमक सा
सुनी थी
पुल के कमर दर्द की कराह
जब बदस्तूर जारी था गाड़ियों का गुजरना
पहली बार देखी थी मैंने
पेंसिल की लकीर पे भागती जिंदगी
वो जुलाई का पहला हफ्ता ही था
उन्हीं सड़कों पर
मुस्कुराई थी मुझे देखकर
बुलडोज़र की राह देखती एक झोपडी
हाथ हिलाया था जब
नदी की सिकुड़ती कमर ने
जुलाई का पहला हफ्ता ही था वो
आखिरी सड़क पर घंटों टहलते हुए
सुनी थी कहानियाँ
ठूंठे आम से
कैसे एक दिन
चार कन्धों पर लादकर लाया गया था
सच
और जला दिया गया था बिना किसी मंत्रोच्चार के
उस दिन
सड़क पर आखिरी पत्ता गिरा था
उस ठूंठे आम से
हाँ, वो जुलाई का पहला हफ्ता ही तो था
शायद
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
उन्हीं सड़कों पर
मुस्कुराई थी मुझे देखकर
बुलडोज़र की राह देखती एक झोपडी
हाथ हिलाया था जब
नदी की सिकुड़ती कमर ने
जुलाई का पहला हफ्ता ही था वो
वाह! वाह! कितनी सुन्दर व अनुपम उपमाओं का चयन किया है,
बधाई हो भाई,
पर्यावरण की अलख जगाई!
पावस जी,
आप बहुत अच्छा और सच्चा लिखते हैं। बहुत लम्बे समय के बाद हिन्द-युग्म को आप जैसी कलम मिली है। आप समय के साथ चलने वाले कवि लगते हैं। आपकी कविताओं में दुःख, संवेदना और व्यंग्य सभी दृष्टिगोचर होते हैं। बहुत ही बढ़िया कविता।
चार कन्धों पर लादकर लाया गया था
सच
और जला दिया गया था बिना किसी मंत्रोच्चार के
उस दिन
बिम्ब और प्रतीक रूप में कह देना
आपकी खासियत है पावस जी!
कविता हमें बहुत ही पसन्द आई
पावस जी,
मुझे आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा रहने लगी है। बिम्ब गहरे हों तो कविता की आत्मा तक पाठक पहुँच जाता है। आपकी अंतिम पंक्तियाँ सोच के जिस शून्य में छोडती हैं बस वहीं से क्रांति घटती है:
उस दिन
सड़क पर आखिरी पत्ता गिरा था
उस ठूंठे आम से..
***राजीव रंजन प्रसाद
वाह पावस जी..
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
मुस्कुराई थी मुझे देखकर
बुलडोज़र की राह देखती एक झोपडी
हाथ हिलाया था जब
नदी की सिकुड़ती कमर ने
जुलाई का पहला हफ्ता ही था वो
मुस्कुराई थी मुझे देखकर
बुलडोज़र की राह देखती एक झोपडी
हाथ हिलाया था जब
नदी की सिकुड़ती कमर ने
जुलाई का पहला हफ्ता ही था वो
adbhut likha hai...
पावस जी,
आपकी कविता पढी अच्छी लगी. मुबारक बाद!
बस पढते वक़्त एक गलती की है कि मैने इसको कुछ इस तरह से पढा है....
वो जुलाई का पहला हफ्ता था
जब पहली बार बात की थी मैंने
सड़कों से
सुनी थी
पुल की कराह
उस पर बदस्तूर जारी था गाड़ियों का गुजरना
पहली बार देखी थी मैंने
पेंसिल की लकीर पे भागती जिंदगी
वो जुलाई का पहला हफ्ता ही था
उन्हीं सड़कों पर
कातर याचना से देखा था मुझे
एक झोपडी ने
जिसको पता था कि
उस पर चलने वाला है बुलडोज़र
हाथ हिलाया था उस नदी ने
जिसका जिस्म तो क्या
आँसू भी सूख
चुके थे
जुलाई का पहला हफ्ता ही था वो
आखिरी सड़क पर घंटों टहलते हुए
सुनी थी कहानियाँ
ठूंठे आम से
कैसे एक दिन
चार कन्धों पर लादकर लाया गया था
सच जैसा कुछ
और जला दिया गया था बिना किसी मंत्रोच्चार के
उस दिन
सड़क पर आखिरी पत्ता गिरा था
उस पेड से
हाँ, वो जुलाई का पहला हफ्ता ही तो था
शायद
जब मैने चखा था हार जाने का स्वाद
और वो नमकीन बिल्क़ुल भी नहीं था.
...उम्मीद है आप मुझे क्षमा करेंगे.
सुनी थी
पुल के कमर दर्द की कराह
जब बदस्तूर जारी था गाड़ियों का गुजरना
पहली बार देखी थी मैंने
पेंसिल की लकीर पे भागती जिंदगी
वो जुलाई का पहला हफ्ता ही था...
अनूठे बिम्ब !
मोगाम्बो खुश हुआ ... !!!
पावस जी,
आप की यह कविता भी बहुत सुंदर लगी. लिखते रहिये .
^^पूजा अनिल
उस दिन
सड़क पर आखिरी पत्ता गिरा था
उस ठूंठे आम से
----वाह। बहुत अच्छी लगी कविता।
जुलाई का पहला हफ्ता हित्द-युग्म अदभुत सौगातें लेकर आया है।
एक साइबर में बैठकर उस घड़ी को कोस रहा हूँ जब मैने बी०एस०एन०एल० ब्राडबैण्ड लगवाया।
आज १० दिनों से कनेक्शन कटा हुआ है और मैं इन सब से दूर रह रहा हूँ।
---देवेन्द्र पाण्डेय।
bahut dino baad yugm ko nayapan mila hai. you are an asset to hind yugm
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
सारी जिंदगी का सच बयान कर किया कुछ लाइनों में बहुत अच्छी कविता
आप सब का बहुत बहुत धन्यवाद
असल में जुलाई का ये पहला हफ्ता बड़ा अजीब सा रहा मेरे लिए
अक्सर जुलाई के पहले हफ्ते में ही चीज़ें नया मोड़ लेती हैं ये कविता उन दिनों की याद है जब सड़कों पर बिना उदेश्य भटका करता था ..................
अवनीश जी,
कविता आपके सामने है और इसलिए आप की ही है.आपने इसे जिस भाव से पढा वैसा ही कुछ मेरा भी उदेश्य था, हाँ शायद मेरी आपबीती ज्यादा हो गई कहीं कहीं ...............बहुत बहुत धन्यवाद्
आपका पावस नीर
सुंदर...
आलोक सिंह "साहिल"
सुंदर...
आलोक सिंह "साहिल"
पावस जी,
बहुत अच्छा लिखा है आपने.
कुछ कहने की नही बचा, पर बिना कुछ कहे अगर नही रहना तो यही कहूँगा ....लाजवाब ...
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