असंख्य लहरों से तरंगित
जीवन उदधि
अब अचानक शान्त है
एकदम शान्त
घटनाओं के घात-प्रतिघात
अब आन्दोलित नहीं करते
तुम्हारा क्रोध,
तुम्हारी झुँझलाहट देख
आक्रोष नहीं जगता
बस सहानुभूति जगती है
कभी-कभी तुम अचानक
बहुत अकेले और असहाय
लगने लगते हो
दिल में जमा क्रोध का ज्वार
कब का बह गया
अब कोई शिकायत नहीं
कोई आत्मसम्मान नहीं
बस बिखरे हुए रिश्तों को
समेटने में लगी हूँ
तुम्हें पल-पल बिखरता देख
मन चीत्कार उठता है
और मन ही मन सोचती हूँ
ये तो मेरा प्राप्य नहीं था
मैं तुम्हें कमजोर और
हारता हुआ नहीं
सशक्त और विजयी
देखना चाहती थी
पता नहीं क्यों तुम
सारे संसार से हारकर
मुझे जीतना चाहते हो
भला अपनी ही वस्तु पर
अधिकार की ये कैसी कामना है
जो तुम्हे अशान्त किए है
भूल कर सब कुछ
बस एक बार देखो
मेरी उन आँखों में
जिनमें तुम्हारे लिए
असीम प्यार का सागर
लहराता है
अपना सारा रोष
इनमें समर्पित कर दो
और सदा के लिए
समर्पित हो जाओ
संशयों से मुक्ति पाजाओ।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
13 कविताप्रेमियों का कहना है :
vakai bhut achhe se ek prem ko bataya hai. sundar. badhai ho.
इतनी जटिल भावनाओं और सम्बन्ध समीकरणों को इतनी सरलता से शब्दों में बाँध पाने के लिए बधाई स्वीकारें. अलबत्ता, छपाई में एक गलती आ गयी है, सौंदर्य बनाए रखने के लिए निम्न पंक्ति को ठीक कर लें:
ये त मेरा प्राप्य नहीं था
कविता बहुत सुंदर है.
"अब कोई शिकायत नहीं
कोई आत्मसम्मान नहीं"
"भला अपनी ही वस्तु पर
अधिकार की ये कैसी कामना है"
जो कविता या कविता मे वर्णित प्रेम एक स्त्री को वस्तु में बदल दे. मै उस कविता से कतई सहमत नहीं हो सकता.
अदभुत ...... !!
'वस्तु' शब्द के प्रयोग पर किसी को भी सतही तौर पर आपत्ति हो सकती है. परन्तु काव्य सौन्दर्य के निखार और अनुराग में समर्पण के उत्कृष्ट स्वरुप को इसप्रकार शब्दोत्पत्त कर पाना इतना सहज भी नहीं है ....... जब मैं और तू का भेद मिट जाता है ... स्वयम का अस्तित्व ही विलीन हो जाता है .... उत्कृष्ट
यह आपके जीवन परिपक्वता का एक संकेत है |
रचना गंभीर , अर्थ पूर्ण है | पसंद आयी |
बधाई |
अवनीश
अवनीश जी
कविता पढ़ने और उसपर टिप्पणी देने के लिए धन्यवाद। कविता में स्त्री को वस्तु नहीं कहा गया है। इसमें समर्पण की पराकाष्ठा है। जब मैं तू का अन्तर समाप्त हो जाता है तभी तो यह भाव उत्पन्न होता है। जब भक्त भगवान के समक्ष भक्त समर्पित हो कहता है- 'त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पयामि' तब उसका भाव भी यही होता है।
मेरा भाव भी कुछ ऐसा ही है। सस्नेह
मैं तुम्हें कमजोर और
हारता हुआ नहीं
सशक्त और विजयी
देखना चाहती हूँ ...
bahut hi badhiya likha hai ek stri ke man ki bhavana ka acha samyojan hai
शोभजी, कुछ पंक्तियाँ वाकई बहुत सुंदर है बहुत अच्छी लगी - बधाई
तुम्हारा क्रोध,
तुम्हारी झुँझलाहट देख
आक्रोष नहीं जगता
बस सहानुभूति जगती है....
कभी-कभी तुम अचानक
बहुत अकेले और असहाय
लगने लगते हो
दिल में जमा क्रोध का ज्वार
कब का बह गया
अब कोई शिकायत नहीं
कोई आत्मसम्मान नहीं.....
बस बिखरे हुए रिश्तों को
समेटने में लगी हूँ
तुम्हें पल-पल बिखरता देख
मन चीत्कार उठता है
और मन ही मन सोचती हूँ
ये तो मेरा प्राप्य नहीं था
मैं तुम्हें कमजोर और
हारता हुआ नहीं
सशक्त और विजयी
देखना चाहती थी....
बस एक बार देखो
मेरी उन आँखों में
जिनमें तुम्हारे लिए
असीम प्यार का सागर
लहराता है
अपना सारा रोष
इनमें समर्पित कर दो.....
सुरिन्दर रत्ती
परम्परागत किंतु उत्कृष्ट कथ्य को अभिव्यक्त करने में पूर्णतः सक्षम प्रतीक और तत्सम शब्दों के साथ आधुनिक खड़ी बोली का सुंदर समायोजन अच्छा लगा !
बहुत अच्छी कविता एक एक लाइन में समर्पण की भावना है
काफी अच्छे तरीके से आपने अपनी भावनाओ को प्रकट किया है बहुत अच्छा
बहुत बहुत सुंदर, मर्मस्पर्शी रचना.सचमुच यदि बीच से अहम् को हटा दिया जाए तो समर्पण प्रतिपल तो वही न्योछावर को प्रस्तुत होती है जिसकी कामना दम्भी को कुछ भी देख पाने में असमर्थ किए होती है.
सह्ज शब्दों में गहरा दर्शन समेटे है यह रचना
बधाई
पढने देर से आया पर अब बहुत देर से पढ रहा हूँ
पढते पढते बहुत देर हो गयी है क्यूँकि कई बार पढ ली है फिर भी पढ रहा हूँ
सारे संसार से हारकर
मुझे जीतना चाहते हो
भला अपनी ही वस्तु पर
अधिकार की ये कैसी कामना है
प्ररम्भ में पढने से ही पता चल गया था कि य़ुग्म की शोभा बढाने वाली शोभा जी की ही लेखनी होगी..
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