प्यार की हर दास्ताँ क्यों जुर्म में लिपटी हुई
पूछती थी कल फज़ा से रूह इक भटकी हुई
प्रार्थना के बाद महबूबा अगर परसाद दे
क्या पता परसाद में ही मौत हो लिखी हुई
किस कदर मगरूर थे रिश्तों पे हम दुनिया में कल
आज है परिवार में मासूमियत सहमी हुई
सैंकड़ों टुकड़ों में कट कर एक आशिक मर गया
मौत थी उसके ही एक रकीब ने सोची हुई
एक आशिक ने परोसी प्रेमिका गिद्धों पे कल
प्रेमिका की लाश फिर छत पर मिली लटकी हुई
कोई भी देता नहीं दिल इस शह्र में दोस्तो
क्या बताएं किस कदर है जिंदगी बिखरी हुई
खूब पी ली मय अगरचे प्यार की तेरे मगर
क्यों न थी आवाज़ थोडी भी मेरी बहकी हुई
जल रहे थे जिस्म दोनों प्यार की ही आग में
फिर न जाने किस लम्हे वो आग भी ठंडी हुई
रुख बदल कर सब हवाएं यक-ब-यक चलने लगी
साजिशे-मौसम थी क्या सोची हुई समझी हुई
कौन था ये कैस जी और कौन थी लैला यहाँ
आज है सारी फजा इस प्रश्न में उलझी हुई
( फ़ज़ा = वातावरण, रूह = आत्मा, रकीब = प्रेमिका का दूसरा प्रेमी या शत्रु, मय = शराब, अगरचे = हालाँकि, कैस = मजनू, यक-ब-यक = सहसा, साजिश = षडयंत्र )
ग़ज़लकार - प्रेमचंद सहजवाला
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8 कविताप्रेमियों का कहना है :
वीभत्स रस?
wah aap ne to premika ke wastavik swroop ki kafi achi parikalpana ki hai bahut hi acha likha hai
प्रेमचंद सहजवाला जी
आपकी ये गजल भी अच्छी है काफिया रदीफ दोनो अच्छी तरह निभा रखे है पर आपकी पिछली गजलो के मुकाबले मे कुछ कमजोर लगी।
सुमित भारद्वाज
प्रेम जी आपकी ग़ज़लों में अखबार झांकता है, आज के दौर के प्रेम रिश्तों पर करारा प्रहार
एक सामान्य रचना !!
सैंकड़ों टुकड़ों में कट कर एक आशिक मर गया
मौत थी उसके ही एक रकीब ने सोची हुई
कोई भी देता नहीं दिल इस शह्र में दोस्तो
क्या बताएं किस कदर है जिंदगी बिखरी हुई
जल रहे थे जिस्म दोनों प्यार की ही आग में
फिर न जाने किस लम्हे वो आग भी ठंडी हुई
रुख बदल कर सब हवाएं यक-ब-यक चलने लगी
साजिशे-मौसम थी क्या सोची हुई समझी हुई
बहुत अच्छे शेर और बहुत अच्छी ग़ज़ल
आज समाज का जो स्तर गिर रहा है उसको आपने बखूबी अपनी ग़ज़ल में चित्रित किया है
बहुत ही अच्छा
साजिशे-मौसम थी क्या सोची हुई समझी हुई
यह भी एक सच्चाई है जो लोगों को सुनने में शायद अच्छी न लगे,पर कटु भी है तो भी सत्य तो है.बहुत ही अच्छी लगी आपकी rachna.
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