किसी सालाना जलसे सा लगता है अब घर जाना
यात्रा के आखिरी पड़ाव सा शांत खड़ा मिलता है घर
आखिरी प्लेटफार्म सा जम्हाई लेता
अकेला खड़ा
हाथ हिलाता आने जाने वालों को
पूरा करता निमंत्रण की औपचारिकतायें
मुस्कुराता खिड़किओं से
पलकें झपकाता परदे गिराकर
घर की मुस्कराहट के पीछे
दिख जाती हैं कुछ डबडबाई ऑंखें
शब्दों के दायरे से बाहर झांकती कुछ भावनाएं
मेरे दुबलेपन को कोसती माँ की रसोई
अखबारों के पीछे से झांकते पिता के प्रश्न
एक अनसुलझा सवाल लगता है घर आना अब
चौराहे पर खड़ा गुलमोहर,रोकता है मेरे कदम
मुस्तैद ,लाल बत्ती की तरह
आम के पत्ते सुनाते हैं रात का गीत
थपकिओं से सुलाता है आँगन
साथ साथ सोता है जब,घर भी
एक पूर्णविराम सा लगता है घर जाना तब
पर
अलार्म घड़ी सा चीख उठता है कागज़ का एक टुकडा
झूमता नही गुलमोहर अब,आम के पत्ते गूंगे हो जाते हैं
जाग जाता है घर चौंक कर
उस कागज़ की आवाज़
जिसके एक ओर छपा है
रेल का टिकट
और
यह पूर्णविराम नही है
कहती है दूसरी ओर
गेंहूँ की रोटी
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी कि कड़ी में जुड़ती एक बेहतर कविता.बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
तुम्हारा मूल्यांकन नही कर सकता | फ़िर भी एक पाठक के नाते से - ८/१० नही ९/१० ... |
-- अवनीश तिवारी
घर की मुस्कराहट के पीछे
दिख जाती हैं कुछ डबडबाई ऑंखें
शब्दों के दायरे से बाहर झांकती कुछ भावनाएं
मेरे दुबलेपन को कोसती माँ की रसोई
अखबारों के पीछे से झांकते पिता के प्रश्न
एक अनसुलझा सवाल लगता है घर आना अब
क्या बात है पावस, कितने सुंदर शब्द दिये हैं तुमने....आखिरी पंक्तियों ने मन को यूँ छुवा की आंख भर आयी
पावस जी,
आपने तो इस कविता के बाद दिल जीत लिया। आपकी सभी कविताओं की खास बात यह रही है कि आप उनमें भावनाएँ असली भावनाएँ पिरोते हैं। एक-एक शब्द महसूस किया हुआ लगा।
बहुत बढिया, दिल की बात शब्दों में...
महसूस किये जाने वाली रचना..
किसी सालाना जलसे सा लगता है अब घर जाना
यात्रा के आखिरी पड़ाव सा शांत खड़ा मिलता है घर
आखिरी प्लेटफार्म सा जम्हाई लेता
अकेला खड़ा
हाथ हिलाता आने जाने वालों को
पूरा करता निमंत्रण की औपचारिकतायें
मुस्कुराता खिड़किओं से
पलकें झपकाता परदे गिराकर
पावस जी आपकी लेखनी की अलग ही पहचान है ,बधाई
पावस जी ,
घर की याद दिलाती आपकी रचना सचमुच मन में गहरे उतर गई . बहुत सुंदर.
^^पूजा अनिल
सुन्दर रचना............
आपकी कविता आपके हुनर पर मुहर लगाती है...बारीकियां पकड़ने वाला एक और कवि हमारे बीच है, इस बात का भरोसा हो गया...
ऐसे ही लिखते रहे...
सस्नेह,
निखिल
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