
पुरस्कृत कविता- बात न करो
लामज़हबों की दुनिया में मज़हब की बात न करो,
वो तो ख़ुदा को नहीं बख्शते इंसां की बात न करो
कौन सुनेगा फरियाद किसी की मसरुफ जो ठहरे,
जब दौर-ए-गर्दिश हो इंसाफ की बात न करो
मेरी दहलीज़ पर हंगामें डेरा डाले बैठे रहे,
दौर-ए-नाशाद में शाद की बात न करो
जिस्म का मर्ज़ और दिल का दर्द बताऊँ किसे,
उसने कहा मेरी सुनो अपनी बात न करो
दुनिया बेरहम-ओ-बेरुखी के क़ायदे पढ़ती है,
ऐसे में तहय्युर-ओ-तज़वीज़ की बात न करो
कल नज़र उठा के देखा तदबीर तो मौजूद थी,
मनसब ठीक न हो उम्मीद की बात न करो
"रत्ती" घिर गये हो तुम सेहरा के जंगलों में,
रेत ही मयस्सर होगी पानी की बात न करो
शब्दार्थ-
लामज़हब = नस्तिक, नाशाद = दुख, मनसब = लक्ष्य, मसरूफ = व्यस्त
शाद = सुख, तहय्युर = बदलाव, सेहरा = मरुस्थल
तज़वीज़ = राय. मयस्सर = उपलब्ध
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ६, ३, ५॰५, ७॰२५
औसत अंक- ५॰४३७५
स्थान- उन्नीसवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४॰५, ५, ४, ५॰४३७५ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ४॰७३४३७५
स्थान- ग्यारहवाँ
पुरस्कार- शशिकांत 'सदैव' की ओर से उनके शायरी-संग्रह दर्द की क़तरन की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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5 कविताप्रेमियों का कहना है :
लामज़हबों की दुनिया में मज़हब की बात न करो,
वो तो ख़ुदा को नहीं बख्शते इंसां की बात न करो
बहुत खूब ! सुरिन्दर जी
अन्तिम शेर भी खूब पसन्द आया
दुनिया बेरहम-ओ-बेरुखी के क़ायदे पढ़ती है,
ऐसे में तहय्युर-ओ-तज़वीज़ की बात न करो
बहुत खूब ,बधाई
वो तो ख़ुदा को नहीं बख्शते इंसां की बात न करो....
खूब कहा सुरिंदर पा जी !!
कठिन उर्दू के शब्दों का ग्यान कराती
अच्छे विचार जगाती
गज़ल।
--देवेन्द्र पाण्डेय।
बेहद खूबसूरत गजल...
बधाई
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