बड़ा ख्याल रखा
डर डर कर कि
तुम्हारी निरव वाणी के
सन्नाटे से मेरी
मुरझाई चेतना का संतुलन न बिगड़े
गीर न पड़ूं धम से
पर तुम्हारी निश्छल हंसी का
क्या भरोसा
जाने कब अपना दायरा भूल कर
छेड़ दे कोमल तन्तु
उजागर कर दे
उलझे अरमान
और बिखरी तमन्नायें …
अन्तस का पिघलता लावा
आंखों में उभार दे
इसलिये तो
जीवन को
स्वार्थी प्यार से
कस कर हथेली से दबाये
रोके रखा
डर बैठाया मन पर कि
क्या होगा अगर
सचमुच मैं मर गया तो ?
मेरी अकड़ और अहं का टूटना
या कि किताबी भाषा में … आत्मा का मिलन…
इससे तो बेहतर
क्यों न जी लें
हम अलग अलग शरीर में ।
-हरिहर झा
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11 कविताप्रेमियों का कहना है :
क्या भरोसा
जाने कब अपना दायरा भूल कर
छेड़ दे कोमल तन्तु
उजागर कर दे
उलझे अरमान
और बिखरी तमन्नायें …
अन्तस का पिघलता लावा
आंखों में उभार दे
बहुत उत्तम भाव ओ शब्द प्रयोग है.
यह भी देखें-
rashtrapremi.blogspot.com
हरिहर जी
बहुत अच्छी कविता।विशेष रूप से-
उलझे अरमान
और बिखरी तमन्नायें …
अन्तस का पिघलता लावा
आंखों में उभार दे
इसलिये तो
जीवन को
स्वार्थी प्यार से
कस कर हथेली से दबाये
रोके रखा
वाह! बधाई स्वीकारें।
डर बैठाया मन पर कि
क्या होगा अगर
सचमुच मैं मर गया तो ?
मेरी अकड़ और अहं का टूटना
या कि किताबी भाषा में … आत्मा का मिलन…
इससे तो बेहतर
क्यों न जी लें
हम अलग अलग शरीर में ।
बहुत सुंदरयह कविता लगी आपकी हरिहर जी ..ख़ास कर यह पंक्तियाँ सच के बहुत करीब है
बहुत अच्छा खयाल है, सुन्दर और सरल, साधुवाद,
सस्नेह,
दिव्या माथुर
लन्दन्
अच्छी कविता है हरिहर जी। प्रतीकात्मक तरीके से आप बड़ी बात कह गये हैं।
---इससे तो बेहतर
हम क्यों न जी लें
हम अलग-अलग शरीर में ।
----सुन्दर रचना।--देवेन्द्र पाण्डेय।
पर तुम्हारी निश्छल हंसी का
क्या भरोसा
जाने कब अपना दायरा भूल कर
छेड़ दे कोमल तन्तु
उजागर कर दे
उलझे अरमान
और बिखरी तमन्नायें …
अन्तस का पिघलता लावा
आंखों में उभार दे
Khubsurat.
"तुम्हारी निरव वाणी के
सन्नाटे से मेरी
मुरझाई चेतना का संतुलन न बिगड़े
गीर न पड़ूं धम से"
बहुत बढिया , हरिहरजी !
वाह, बहुत सुन्दर
मेरी अकड़ और अहं का टूटना
या कि किताबी भाषा में … आत्मा का मिलन…
इससे तो बेहतर
क्यों न जी लें
हम अलग अलग शरीर में ।
बहुत ही सुंदर भाव
I was searching for some special meaning in the words - the poem should have taken me to somewhere but it did not do it. I was looking for some strong feeling to come out whether of some real fear, helplessness, sadness or whatever but all I got here are some good words without bringing a that single binding cohesive and compelling force. This fear is an imaginary fear, a fear of a confused mind to become a lover. In other words a poem about a fear which belongs to "what ifs" category. It's probably the penchant for today's poems not rousing you in a defined way but to keep you confused and prisoned in useless emotions.
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