रात जब सिरहाने में रखा मोबाइल...
गुनगुनाता है मेरे कानों में,
और अंधेरों में चुपचाप-सा मेरा कमरा..
जगमगाता है जुगनू की तरह;
मैं जो दिन भर की थकन का मारा,
ले रहा होता हूँ नींद की मीठी गोली,
अधखुली आंखों से नाम तुम्हारा पढ़कर,
नींद की गोली उगल देता हूँ.....
और फ़िर दोनों किसी बेहोश परिंदे जैसे,
बड़बड़ाते हैं सूनी रातों में,
रात भर मेरी बेतुकी बातें,
तुम बहुत ध्यान से सुनती हो क्यों...
मैं कोई संत या कबीर नहीं,
फ़िर भी मुझको ये गुमां होता है,
रात भर मैंने यूँ ही बातों में,
तुमको अमृत-सा कुछ पिलाया है....
रात अंधेरों में मेरा कमरा,
एक मस्जिद की शक्ल लेता है...
हम फुसफुसाते हैं आयतें सारी...
फुसफुसा कर अजान देते हैं..
तुम्हारे घर में न जग जाए कोई...
वरना बलवा ही हो जायेगा...
हम अकलियत के मारे पंछी...
आज की रात मेरा फ़ोन चुप है...
आज की रात मेरे कमरे में,
कोई जुगनू भी नहीं चमका है...
मुझको डर है कि तुम्हारे घर में,
कोई बलवा न मच गया होगा...
खो गई है मेरी नींद की मीठी गोली...
इस अंधेरे में मेरे कमरे में..
एक परिंदा फड़फड़ाता है....
देखने मस्जिद-सा मेरा कमरा,
एक श्मशान न बन जाए कहीं...
सच की दुनिया भी कभी सोचता हूँ...
क्या तिलिस्मों से भरी होती है.....
एक जुगनू में उस परिंदे की,
जान है क़ैद, क्या अजूबा है.......
निखिल आनंद गिरि
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
क्या बात है |
बिल्कुल सच सा लगा | इस दृश्य के अनुभूति से ही मजा ले लिया |
-- अवनीश तिवारी
सच की दुनिया भी कभी सोचता हूँ...
क्या तिलिस्मों से भरी होती है.....
एक जुगनू में उस परिंदे की,
जान है क़ैद, क्या अजूबा है.......
wah bahut badhiya,jazzabat ko alfazon ki kinaar sundar mili hai,badhai
इस अंधेरे में मेरे कमरे में..
एक परिंदा फड़फड़ाता है....
देखने मस्जिद-सा मेरा कमरा,
एक श्मशान न बन जाए कहीं...
बहुत ही सुंदर भाव
फ़ोन को साइलेंट मोड से बदलो पहले तो...और थोड़ा सो लो। उसके बाद फिर एक कविता लिखना...ताकि और पढ़ सकें हम।
निखिल,
चित्र खींचती हुई सी रचना है।
इस अंधेरे में मेरे कमरे में..
एक परिंदा फड़फड़ाता है....
देखने मस्जिद-सा मेरा कमरा,
एक श्मशान न बन जाए कहीं...
सच की दुनिया भी कभी सोचता हूँ...
क्या तिलिस्मों से भरी होती है.....
एक जुगनू में उस परिंदे की,
जान है क़ैद, क्या अजूबा है.......
एक एक शब्द महसूस करने वाले हैं, शशक्त हैं और स्पंदित करते हैं...
***राजीव रंजन प्रसाद
निखिल आनंद गिरि जी,
आपने कविता मै रूपात्मकता अच्छी दी है. उदाहरंतः १) जुगुनू मोबाइल को बनाया तो..
२) इंसान को परिम्दे के रूप मै ढाला है..
३) और दुनिया को तिलस्मी बना दिया है इस घटना के माध्यम से..
कविता का विषय नवीन है.. और रोचक भी,
परन्तु कविता के काफी सरे पहलू ऐसे है जो पाठक को उबा देते है...
१) कविता एक तरह की मुक्तक है.. और जैसे हमारे ग़ज़ल गुरु कहते थे.. ग़ज़ल सब ध्वनि का खेल है.. मुझे लगता है आजकल पाठक कविता को भी ध्वनि और ताल पर पड़ना ज्यादा पसंद करता है.
२) कविता का प्रस्तुति करण मुक्तक की ही तरह है.. जैसे कही पर ३ पंक्तियों का पद है तो कही पर ५ का.. तो ऐसा लगता है की हम लेख पढ़ रहे हो न की कविता.. (राय भिन्न हो सकती है )
३) रूपात्मकता के साथ साथ उपमा अलंकार भी अच्छा प्रयुक्त हुआ है..
४) उर्दू शब्दों का प्रयोग ज्यादा हुआ है.. जिस से कुछ शब्द कठिन (कही कही हिंदी शब्द भी ) समझने के लिए .. जैसे
आयतें ,अजान , बलवा .
बाकी कविता अच्छी है..
सादर
शैलेश
रात जब सिरहाने में रखा मोबाइल...
गुनगुनाता है मेरे कानों में,
और अंधेरों में चुपचाप-सा मेरा कमरा..
जगमगाता है जुगनू की तरह;
बिम्ब विशेष रूप से पसन्द आये निखिल जी !
सुन्दर कविता! बधाई
वाह निखिल भाई वाह.आपने वो कर दिखाया जो सहज ही कोई इन्सान नही कर पता है.उन खूबसूरत एहसासों का इतनी साफगोई से वर्णन किया है कि दिल खुश हो गया.बलमा मचने के पहले तक नीद के बदले में जो खूबसूरत पल हम जीते हैं वो हर कुछ....आज की तमाम मज्नुआं जमात की इस बेहद निजी वाले विषय को इतनी चित्रात्मकता से उकेरा है कि...अब कुछ कहा नही जाता क्योंकि अब मुझे ये रात का पहला पहर काटने लगा है शायद अब मुझे भी रात के गहराने का बेसब्री से इंतजार है.शायद कोई जुगनू मेरे सुनसान स्याह कमरे में भी चमके......आमीन
आलोक सिंह "साहिल"
वाह निखिल भाई..
बैटरी का बैकअप कितना है भाई...
और हाँ बी एल 5 सीरीज की हो तो चेक कराना ना भूलें..
बडी ही नवीन कविता लगी.. चित्रात्मक शैली
मुझे तो कविता में हकीकत सी नज़र आ रही है..
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