आलोक सिंह 'साहिल', अल्पना वर्मा, गीता पंडित, महक, सीमा गुप्ता, सीमा सचदेव, पूजा अनिल आदि हिन्द-युग्म मंच के ऐसे नाम हैं जिनकी पठनियता के समक्ष हर कोई नतमस्तक हो जायेगा। आज यूनिकवि प्रतियोगिता के अप्रैल अंक से ऐसे ही एक पाठक-कवि आलोक सिंह साहिल की कविता लेकर हम उपस्थित हैं। इनकी कविता आठवें स्थान पर है। आलोक सिंह साहिल को और जानें।
पुरस्कृत कविता- अपना घर
दिल्ली की सड़कों पर,
सहज ही दिख जाते,
आवारा कुत्ते और सांड
तो लगता है
दिल्ली तो अपना ही घर है.
खाते वक्त जब,
अटकने लगे निवाला,
तो दिख जाते,
किसी की हाथों में
वो पानी की कुछ लड़ियाँ.
यहाँ भी रौंदते है,
गाड़ियों के पहिए
सुनसान सड़क को,
स्याह रात में, जैसे
इफ्तार के वक्त सिगरेट की कश
दौड़ती है
खाली सुखी नसों में
तो लगता है
दिल्ली तो अपना ही घर है.
दिख जाते यहाँ भी
कभी कुछ हाथ, उठाने को
जब विरले अनजाने में
हो जाए
धरती का आलिंगन.
यहाँ भी मिलते
हर कदम पर
बंदिश रहित शौचालय.
दिख जाते
यहाँ सहज ही
कंक्रीट, कोलतार के बने
चमकते थूकदान
हर सफर में,
तो लगता है
दिल्ली तो अपना ही घर है.
यहाँ भी माएं जाती
बच्चों को
स्कूल बसों तक छोड़ने
हाथ में लटकाए टिफिन बॉक्स,
यहाँ भी जलती
प्रेमी-युगलों की
असमय लाशें,
यहाँ भी होते
वृहद् धर्मायोजन,
रहते यहाँ भी
भूखे-नंगे
फटे-चिथड़ों में,
तो लगता है
दिल्ली तो अपना ही घर है
मिलते यहाँ भी
भिखमंगों को चिल्लर,
दिख जाते यहाँ भी
वर्दीधारी रंगदार,
बलात्कारी ठेकेदार,
जब शोषित होते
सहमी गलियों से
निकलने वाली पैदावार
और जब घुटती
उनकी साँसे, उनके घरों में
तो लगता है
दिल्ली तो अपना ही घर है.
प्रथम चरण के जजमेंट में मिले अंक- ४, ६॰९, ६॰८, ५॰५
औसत अंक- ५॰८
स्थान- आठवाँ
द्वितीय चरण के जजमेंट में मिले अंक- ३, ४॰५, ४॰५, ५॰८ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ४॰४५
स्थान- आठवाँ
पुरस्कार- डॉ॰ रमा द्विवेदी की ओर से उनके काव्य-संग्रह 'दे दो आकाश' की स्वहस्ताक्षरित प्रति।
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
मिलते यहाँ भी
भिखमंगों को चिल्लर,
दिख जाते यहाँ भी
वर्दीधारी रंगदार,
बलात्कारी ठेकेदार,
जब शोषित होते
सहमी गलियों से
निकलने वाली पैदावार
और जब घुटती
उनकी साँसे, उनके घरों में
तो लगता है
दिल्ली तो अपना ही घर है.
सही कहा आलोक जी दिल्ली तो अपना घर है .अच्छी लगी आपकी यह रचना सच के करीब ...
आलोक जी
बहुत अच्छे -
-यहाँ भी होते
वृहद् धर्मायोजन,
रहते यहाँ भी
भूखे-नंगे
फटे-चिथड़ों में,
तो लगता है
दिल्ली तो अपना ही घर है
बधाई स्वीकारें.
आलिक जी,
विवरणात्मकता नें कविता में पूरा चित्र खींचा है और पाठक पंक्ति दर पंक्ति आपसे सहमत होता हुआ चलता है। कविता के अंत में कसावट की आवश्यकता है...थोडा समय दें।
***राजीव रंजन प्रसाद
और जब घुटती
उनकी साँसे, उनके घरों में
तो लगता है
दिल्ली तो अपना ही घर है.
कविता बहुत ही सुन्दर है और सहज भाव मे कही गयी है।
दिल्ली की हकीकत पढकर अच्छा लगा।
सुमित भारद्वाज।
अच्छा वर्णन है |
-- अवनीश तिवारी
हमारे घरके इस पीडादाई वर्णन से और आपकी रचनासे प्रभावित हूँ. आपकी लेखनी में बहुत शक्ति है, मेरा अभिवादन स्वीकार करें...
कवि जी सही कहा आपने दिल्ली टू अपना ही घर है | आपकी रचना बहुत प्रभावी है ,और किसी एक पंक्ति की बात न कहकर पूरी कविता सुंदर लगी | अच्छी रचना के लिए बधाई....सीमा सचदेव
वाह आलोक भाई, यूनिपाठक तो बन चुके, अब यूनिकवि बनने की ओर अग्रसर हो गये हैं..
दिल्ली को अपने घर सा बनने में हमने भी कोई कसार नही छोडी है
बात चाहे विचारों की हो या 7up की ........आशा है आप आशय समझे होंगे ........कविता बहुत अच्छी है ...........
आलोक जी!
आपकी कविता महज़ दिल्ली का ही नहीं भारत के लगभग हर बड़े शहर की हालत का चित्रात्मक विवरण प्रस्तुत करती प्रतीत होती है. अच्छी प्रस्तुति!
पाठक पढ़ पढ़ कवि भया, आगे कहा न जात..
होनहार बिरवान के होत चीकने पात
क्या बात है साहिल जी...
मस्त एक दम
दिल्ली की सड़कों पर,
सहज ही दिख जाते,
आवारा कुत्ते और सांड
तो लगता है
दिल्ली तो अपना ही घर है.
खाते वक्त जब,
अटकने लगे निवाला,
तो दिख जाते,
किसी की हाथों में
वो पानी की कुछ लड़ियाँ.
यहाँ भी रौंदते है,
गाड़ियों के पहिए
सुनसान सड़क को,
स्याह रात में, जैसे
इफ्तार के वक्त सिगरेट की कश
बहुत ही सुन्दर ,बधाई
आप सभी ने मेरी कलम को सराहा,आप सबको धन्यवाद.
आलोक सिंह "साहिल"
आलोक जी,
आपकी कविता पढ़ते पढ़ते सचमुच दिल्ली की सड़कें और गलियां याद आ गयी.
बहुत अच्छा लिखा है , बधाई .
^^पूजा अनिल
डा.रमा द्विवेदीsaid....
साहिल जी,
दिल्ली का शब्दचित्र बहुत विस्तारित है....पुरस्कृत होने के लिए बधाई....
bade hi sahaj bhaw se dilli mein apne ghar ko dekha,to achha laga.kavita ka shilp thoda aur achha ho sakta tha.
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