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Monday, May 19, 2008

आसमां कैसे कैसे ?


सिर्फ ज़मीं ही नहीं
हर गांव-शहर के ऊपर फैले
आसमां का रंग भी जुदा होता है

मेरे गांव वाल घर की छत से
काली रात में टिमटिमाते तारों की तुलना में..
जहां मैं पला-बढ़ा
उस शहर के आसमां पर
वैसी ही काली रात को (!!)
कम तारे टिमटिमाते नज़र आते थे

और इस महानगर की...
जहां मैं रोजी-रोटी की तलाश में आया हूं..
कल की रात तो
मेरे लिए खौफनाक थी
एक भी तारा नहीं दिखा!!!

आसमां पूरी रात
अजीब रंग से ढँका लगा
वो रंग...बादल....नहीं
धूल भी नहीं.....
रौशनी....पता नहीं
लेकिन मैं सहमा हुआ हूं...

दादी कहती थी कि
वो मर कर तारा बन जाएंगी
बुआ बताती थी कि
आदमी मर कर तारा बन जाता है
पिताजी ने भी मरने से पहले
भरोसा दिया था कि
वो मुझे ऊपर से देखा करेंगे

मां तो...अब भी ऐसा ही कुछ कहती हैं

तो क्या..इस शहर (महानगर!!) में
कल रात के आसमां से..
किसी के अपने ने...
...अपनों को देखने की
जहमत नहीं उठाई!!!

तो क्या....
इस अनजान शहर (महानगर!!) में
मैं बिल्कुल अकेला हूं?

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

13 कविताप्रेमियों का कहना है :

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

अभिषेक जी,

आपकी रचनाओं की खास बात है उनका भीतर तक उतर जाना। एसी रचनाओं की समालोचना संभव नहीं, इन्हें बस गहरे महसूस कर स्पंदित हुआ जा सकता है...

तो क्या..इस शहर (महानगर!!) में
कल रात के आसमां से..
किसी के अपने ने...
...अपनों को देखने की
जहमत नहीं उठाई!!!

कोष्ठक में शहर और महानगर की पुनरावृत्ति पाठक का तारतम्य ही तोडती है चूंकि दोनों में से एक भी शब्द रचना में पर्याप्त है..वह पूर्णत: संप्रेषित होता है।

***राजीव रंजन प्रसाद

Kavi Kulwant का कहना है कि -

अच्छा है..

Anonymous का कहना है कि -

bahut sunder bhav hain is rachna ke

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

वाह एक नारे तरीके से व्यथा को कहा है |
रचना प्रभावी है |

-- अवनीश तिवारी

ममता पंडित का कहना है कि -

आसमां पूरी रात
अजीब रंग से ढँका लगा
वो रंग...बादल....नहीं
धूल भी नहीं.....
रौशनी....पता नहीं
लेकिन मैं सहमा हुआ हूं...

इस महानगर में जमीं से आसमान तक बस धुआं है, डर लगता है यहाँ रहते रहते कही एक दिन हम भी धुआं हो जायेंगे , कड़वे सच के साथ संवेदनाओं को संजोयें हुए एक बहुत ही सुंदर रचना, अभिषेक जी बधाई |

विश्व दीपक का कहना है कि -

पाटनी जी,
कविता का विश्लेषण करने से पहले एक बात कहने के लिए माफी चाहता हूँ। दर-असल मैने जब आपकी कविता पढी तो पता नहीं क्यों ऎसा लगा कि आईडिया "मुन्नाभाई एम०बी०बी०एस० के एक डायलाग कि माँ तारा बन गई है लेकिन मुब्बई में इतना प्रदूषण है कि दिखती हीं नहीं" से लिया हुआ है। मैं ऎसा कहकर आप पर कोई आरोप नहीं लगा रहा, बस दिल में आई बात को आपके साथ शेयर कर रहा हूँ।

अब रही कविता की बात तो आपकी शैली का मैं वैसे हीं प्रशंसक हूँ। रचना इस बार भी अच्छी लगी,परंतु ऎसा लगा कि आप इसे और अच्छी तरह से लिख सकते थे। भाव गहरे हैं, बस इन्हें थोड़ी और करीने से सजाने की आवश्यकता है।

ऎसे हीं लिखते रहें...आपकी अगली रचना के इंतजार में-
विश्व दीपक ’तन्हा’

सीमा सचदेव का कहना है कि -

आज के दौर मी अपनों का भी साथ नही मिलता | बहुत ही भाव्पूरण कविता अच्छी लगी

SahityaShilpi का कहना है कि -

आप पाठक के मानस को छूने में सफल हुये हैं और शायद यही कविता की सबसे बड़ी सफलता है. बधाई!

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

अति सम्वेदनशील और गहरा कथ्य लिये हुए रचना

तो क्या..इस शहर (महानगर!!) में
कल रात के आसमां से..
किसी के अपने ने...
...अपनों को देखने की
जहमत नहीं उठाई!!!

बधाई

mehek का कहना है कि -

तो क्या..इस शहर (महानगर!!) में
कल रात के आसमां से..
किसी के अपने ने...
...अपनों को देखने की
जहमत नहीं उठाई!!!
बहुत ही सुंदर रचना,बहुत बधाई

Pooja Anil का कहना है कि -

अभिषेक जी ,

आपकी कविता में छिपा अकेलेपन का दर्द या डर सहज ही प्रकट होता है , हम सब अपनों को ढूँढते रहते हैं और ये पता ही नहीं चलता कि हम स्वयम ही अपने सबसे अच्छे दोस्त हैं .

आपकी कविता बहुत अच्छी है , लिखते रहें

^^पूजा अनिल

रज़िया "राज़" का कहना है कि -

अभिषेक जी, आपकी रचना में मैने अपनी रचना का अहेसास किया।ईसलीये अपनी रचना भेज रही हु.
रज़िया मिर्ज़ा



तलाश

सफर में ख़ो गई मंज़िल,उसे तलाश करो।.
किनारे छूटा है साहिल, उसे तलाश करो।.
था अपना साया भी इस वक़्त साथ छोड़ गया।.
कहॉ वो हो गया ओझल उसे तलाश करो।
ना ही ज़ख़म,ना तो है खून फिर भी मार गया।
कहॉ छुपा है वो कातिल, उसे तलाश करो।
भूला चला है वक़्त जिन्दगी के लम्हों को।
मगर धड़कता है क्यों दिल? उसे तलाश करो।
ये कारवॉ है तलाशी का, लो तलाश करें।
हो जायॆं हम भी तो शामिल, उसे तलाश करो।
वो बोले हम है गुनाहगार उनके साये के।
कहां पे रह गये ग़ाफिल उसे तलाश करो।
लुटा दिया था हरेक वक़्त उनके साये में।
मगर नहिं है क्यों क़ाबिल, उसे तलाश करो।
समझ रहे थे ज़माने में हम भी कामिल हैं।
हमारा खयाल था बातिल उसे तलाश करो।
अय “राज” खूब तलाशी में जुट गये तुम भी।
बताओ क्या हुआ हॉसिल? ,उसे तलाश करो।
कहां पे रह गये ग़ाफिल उसे तलाश करो।

mona का कहना है कि -

A very sweet poem. Nayi jagah akele hone ke anubhav ko darshaate yah kavita achche lage.

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