दीन-दुनिया के
तमाम तहसीलदार
चाँद के महलों में
नहीं रहते,
कुछेक के लिए
हरे-भरे दरख्तों
के नशेमन हीं
काफी होते हैं;
पर सुना है कि
दरख्त
चाँद तक जाने लगे हैं अब!
कहते हैं-
पानी के बुत
पिघलना नहीं जानते
बस उबलना जानते है।
ये बुत
कभी-कभार
कर आते हैं
पथरीली कंदराओं की सैर
तो कभी
मंदिर और संग्रहालयों के दरवाजों
पर जोर-आजमाईश भी करते हैं,
तभी शायद
जनमता है इनमें
पृष्ठ-तनाव का बोध-
तन जाते हैं ये,
और फिर
इतिहास के हर पृष्ठ पर
इनकी
लकवा-ग्रस्त तस्वीरें उभर आती हैं।
ऎसे हीं कुछ पनियल बुत
या कहिये
दुनिया के
तथाकथित तहसीलदार
हर चार या आठ घंटे पर
आसमान पर अपना अक्स देखते हैं
और भगवान होने का
शौक पालने लगते हैं,
हर चार या आठ दिन में
अकारण हीं
हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की बातें करते हैं
तो कभी
कुत्तों की भांति
अपने "महान""राष्ट्र" की हेंकरी भरते हैं
और
देश के दूसरे बिजली के खंभों पर
टाँगे ऊँची कर देते हैं,
हर चार या आठ महिने में
"मोगरे" के फूलों पर
"कनैल" के टैग डालते होते हैं,
"ब" को "मु" करने से पेट नहीं भरता तो
अरब सागर की हवाओं से लेकर
स्कूल और स्टाक एक्सेंज तक
किसी मुम्बा देवी की पैरवी करते हैं।
ऎसे पनियल बुत
पिघलते नहीं
वरन
कभी अनजाने में
किसी की अंगीठी में उलझकर
उबल जाते हैं।
अंगीठी
या फिर
एक अगरबत्ती बस
उसी की होती हैं
जो जानता है कि
केंचुल छोड़ता साँप
मौसम की पगडंडियों से गुजरकर
जब भी
हमारे मगज़ में जा बैठता है,
जिंदगी महज़ खानापूर्त्ति नहीं करती,
ना हीं
खानाखराब होने का डर होता है हमें,
हम बस
नाक की सीध में
मौत के गुर्गे छान मारते हैं,
और फिर
बिना किसी जाँच-पड़ताल के
मौत को मौत की नींद सुला देते हैं;
यूँ
सुलग उठता है केंचुल
और निगल लेता है साँप का कफन।
आज फिर
एक हीं के
कई सारे
रूप सामने हैं हमारे-
पनियल बुत,
तथाकथित तहसीलदार,
केंचुल छोड़ता साँप।
सबके लिए काफी है
बस एक पत्थर
या फिर एक पत्थर-दिल
जो जानता हो पिघलना
पर उबलता न हो.................।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
कुत्तों की भांति
अपने "महान""राष्ट्र" की हेंकरी भरते हैं
और
देश के दूसरे बिजली के खंभों पर
टाँगे ऊँची कर देते हैं,
हर चार या आठ महिने में
"मोगरे" के फूलों पर
"कनैल" के टैग डालते होते हैं,
"ब" को "मु" करने से पेट नहीं भरता तो
अरब सागर की हवाओं से लेकर
स्कूल और स्टाक एक्सेंज तक
किसी मुम्बा देवी की पैरवी करते हैं।
गजब की फटकार है तन्हाजी आपकी कविता में
बिम्ब भी बहुत अच्छे हैं। कविता के लिये
बहुत बहुत बधाई व इस अभिव्यक्ति के लिये
धन्यवाद।
आज फिर
एक हीं के
कई सारे
रूप सामने हैं हमारे-
पनियल बुत,
तथाकथित तहसीलदार,
केंचुल छोड़ता साँप।
सबके लिए काफी है
बस एक पत्थर
या फिर एक पत्थर-दिल
जो जानता हो पिघलना
पर उबलता न हो..........
बहुत खूब ..दीपक जी बहुत अच्छी लगी आपकी कविता
पनियल बुत,
तथाकथित तहसीलदार,
केंचुल छोड़ता साँप।
सबके लिए काफी है
बस एक पत्थर
या फिर एक पत्थर-दिल
जो जानता हो पिघलना
पर उबलता न हो.................।
सच्च कहा तनहा जी आपने ,एक ही पत्थर काफी है जिससे टकरा कर पूरा का पूरा जहर दूसरो पर उगल देते है | बहुत ही दमदार बिम्ब के साथ एक दमदार रचना |बधाई
तनहा जी,
आपकी रचना जितनी सशक्त है आपके प्रयुक्त बिम्ब उतने ही जानदार। आक्रोश की भाषा में भी व्यंग्य निहित है और आक्रोश भी इस तरह से व्यक्त किया है आपने कि अंतिम पंक्तियों तक रचना अपने मूड से पाठक को परिचित नहीं होने देती।
पर सुना है कि
दरख्त
चाँद तक जाने लगे हैं अब!
इतिहास के हर पृष्ठ पर
इनकी
लकवा-ग्रस्त तस्वीरें उभर आती हैं।
पनियल बुत,
तथाकथित तहसीलदार,
केंचुल छोड़ता साँप।
सबके लिए काफी है
बस एक पत्थर
बधाई स्वीकारें..
***राजीव रंजन प्रसाद
दीन दुनिया के
तमाम तहसीलदार
चांद के महलों में नहीं रहते
कुछेक के लिए
हरे भरे दरख्तों के नशेमन ही काफी होते हैं
पर सुना है
कि दरख्त
चांद तक जाने लगे हैं अब--।
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--------------------------
सबके लिए काफी है
बस एक पत्थर
या फिर एक पत्थर दिल
जो जानता हो पिघलना
पर उबलता न हो------------।
वाह---
जैसी शुरूवात वैसा अंत।
भाषा-बिंब-सब जानदार।
----------बधाई।
तनहा जी बहुत सुन्दर भावभरी कविता-
व
कहते हैं-
पानी के बुत
पिघलना नहीं जानते
बस उबलना जानते है।
ये बुत
कभी-कभार
कर आते हैं
पथरीली कंदराओं की सैर
तो कभी
मंदिर और संग्रहालयों के दरवाजों
पर जोर-आजमाईश भी करते हैं,
तभी शायद
जनमता है इनमें
बहुत खूब
बहुत बढ़िया तनहा भाई....भावनाओं की अभिव्यक्ति अत्यंत सरल रूप से करते हुए भी आपने आज के समाज का क्या खूब विवरण दिया है....बात सिर्फ़ इस कविता को समझने की नहीं इस कविता के मूल को समझकर कठिनाईयों के निवारण में है...
बढ़िया कोशिश...आपका अभिनन्दन करता हूँ....
रूप सामने हैं हमारे-
पनियल बुत,
तथाकथित तहसीलदार,
केंचुल छोड़ता साँप।
सबके लिए काफी है
बस एक पत्थर
या फिर एक पत्थर-दिल
जो जानता हो पिघलना
पर उबलता न हो..........
तलबगार-ऐ- मुहब्बत,
पीयूष राज 'सख्त जानी'
दीन-दुनिया के
तमाम तहसीलदार
चाँद के महलों में
नहीं रहते,
कुछेक के लिए
हरे-भरे दरख्तों
के नशेमन हीं
काफी होते हैं;
पर सुना है कि
दरख्त
चाँद तक जाने लगे हैं अब
गजब तन्हा जी...
केंचुल छोड़ता साँप
मौसम की पगडंडियों से गुजरकर
जब भी
हमारे मगज़ में जा बैठता है,
जिंदगी महज़ खानापूर्त्ति नहीं करती,
ना हीं
खानाखराब होने का डर होता है हमें,
हम बस
नाक की सीध में
मौत के गुर्गे छान मारते हैं,
और फिर
बिना किसी जाँच-पड़ताल के
मौत को मौत की नींद सुला देते हैं;
यूँ
सुलग उठता है केंचुल
और निगल लेता है साँप का कफन।
अभी तक चार बार यह कविता पढ़ चुकी हूँ और हर बार नए अर्थ सामने आ रहे हैं , शब्द का सामर्थ्य असीमित होता है इस बात पर मेरे यकीन को और मजबूत किया है आपकी रचना ने, तन्हाजी , बधाई स्वीकारें |
आज फिर
एक हीं के
कई सारे
रूप सामने हैं हमारे-
पनियल बुत,
तथाकथित तहसीलदार,
केंचुल छोड़ता साँप।
बहुत खूब ,बहुत बधाई .
तन्हा जी,
बहुत ही सशक्त शब्दों में आपने अपना आक्रोश व्यक्त किया है , पहले तो अंत तक बिना रुके ही पढ़ती चली गयी, फ़िर पता चला कि यह कविता तो बहुत कुछ कह रही है, फ़िर धीरे धीरे ठहर कर पढ़ा और अंत तक आते आते कई तस्वीरें बनती बिगड़ती रही , और अंत में मिला एक व्यंग्य और अवर्णित सत्य ... बहुत ही अच्छे शब्दों में ये कविता रची है . बधाई
^^पूजा अनिल
दिल के किसी कोने से
उगते हैं कुछ विचार
चूजों की तरह
शब्दों का दाना चुगते हैं
स्याही का रस पीते हैं
मिल जाते हैं जब लय के पंख
ऊड़ जाते हैं खुले आकाश मे
कविता बन कर..
आज 22 म ई को अपना जन्म दिन है !
Mujhe nahi pata chala ki kavita kya thee
kya teri kavita sirf kaviyon ke samajhane ke liye bani hoti hai
aam aadami ke liye nahi ...
ye achchha laga paani ke but (moorti) pighalana nahi bas ublana jante hain
ab bhagwaan jaane ye paani ke but kahan milate hain .. [:P]
teri kavita to kitav main chhapane layak ho gayi hai
aur bachchhe rate rataye answer de ki kavi kahana chahata hai .. ye wo falana ...(TZP)
:P
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