भुच्च काला
पसलियों सना सीना
और बेहद फूला पेट
बिलकुल नंगा
वह, उस अखबार पर की जूठन
चाट रहा है
जिसपर अमेरिका के झंडे की फोटो
लहराती हुई छपी है
कसरती बदन वाले बुश साहब
मुस्कुराते दिखते हैं।
रेडियो में दूर कहीं बज रहा है
सारी दुनियाँ का बोझ हम उठाते हैं
अखबार में छपा है
हिन्दुस्तानी ज्यादा खाते हैं
और सारी दुनियाँ
इसी से भूखों मर रही है..
पसलियों सना सीना
और बेहद फूला पेट
बिलकुल नंगा
वह, उस अखबार पर की जूठन
चाट रहा है
जिसपर अमेरिका के झंडे की फोटो
लहराती हुई छपी है
कसरती बदन वाले बुश साहब
मुस्कुराते दिखते हैं।
रेडियो में दूर कहीं बज रहा है
सारी दुनियाँ का बोझ हम उठाते हैं
अखबार में छपा है
हिन्दुस्तानी ज्यादा खाते हैं
और सारी दुनियाँ
इसी से भूखों मर रही है..
उसका फूला हुआ पेट
बिलकुल ग्लोब की तरह दिखता है
और नाक भौं सिकोडते
उस विदेशी सैलानी के आगे
हाँथ फैलाये खडा अब
भूखे होने का इशारा करता
नादान!! नहीं जानता
कि कोई कोंडलिसा ‘राईस’ नहीं देती..
बिलकुल ग्लोब की तरह दिखता है
और नाक भौं सिकोडते
उस विदेशी सैलानी के आगे
हाँथ फैलाये खडा अब
भूखे होने का इशारा करता
नादान!! नहीं जानता
कि कोई कोंडलिसा ‘राईस’ नहीं देती..
बाजार मे भीड है
वह मूढ नावाकिफ है
कि भारत एक बडा बाजार है
उसे चिंता भी नहीं
तन पर एसा कोई चीथडा नहीं
जिसमें जेब हो
उसका फैला हुआ हाँथ
अब तक खाली है..
वह मूढ नावाकिफ है
कि भारत एक बडा बाजार है
उसे चिंता भी नहीं
तन पर एसा कोई चीथडा नहीं
जिसमें जेब हो
उसका फैला हुआ हाँथ
अब तक खाली है..
द्रौपदी का पात्र
एक दाने से जगत को तृप्त करता था
नादान ने वह कीमती दाना निगल लिया है
उसे भी पचता नहीं है
बुश को भी नहीं
और दुनिया भूखी मर रही है
आह...
एक दाने से जगत को तृप्त करता था
नादान ने वह कीमती दाना निगल लिया है
उसे भी पचता नहीं है
बुश को भी नहीं
और दुनिया भूखी मर रही है
आह...
***राजीव रंजन प्रसाद
19.05.2008
19.05.2008
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
16 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह व्यंग और वेदना की अच्छी पंक्तियाँ हैं
खासकर .......
नादान!! नहीं जानता
कि कोई कोंडलिसा ‘राईस’ नहीं देती..
राजीव जी इस आह को पढ़कर टू किसी की भी आह ही निकलेगी |
Beahtareen Rajeev ji.
wakai ye panktiya bahut hi jyada sarahniy hai ..
"नादान!! नहीं जानता
कि कोई कोंडलिसा ‘राईस’ नहीं देती.."
--------------------------------
नादान-! नहीं जानता
कि कोई कोंडलिसा-'राईस' नहीं देती----
---एक अच्छा व्यंग है ।
बधाई स्वीकारें----
-देवेन्द्र पाण्डेय।
राजीव जी
बहुत दिनो बाद पढ़ी आपकी कविता। आपने समाज की वेदना को बहुत सुन्दर रूप में चित्रित किया है। मुझे निम्न पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं-
द्रौपदी का पात्र
एक दाने से जगत को तृप्त करता था
नादान ने वह कीमती दाना निगल लिया है
उसे भी पचता नहीं है
बुश को भी नहीं
और दुनिया भूखी मर रही है
आह...
बधाई स्वीकारें।
राजीव जी
सामयिक व्यंग्य और संवेदना की आपकी की ही शैली की प्रस्तुति
बहुत अच्छा लगा एक लंबे अंतराल के बाद आपको पढ़ना
द्रौपदी का पात्र
एक दाने से जगत को तृप्त करता था
नादान ने वह कीमती दाना निगल लिया है
उसे भी पचता नहीं है
बुश को भी नहीं
और दुनिया भूखी मर रही है
आह...
बहुत ही सही व्यंग किया है आपने राजीव जी ...
आपकी आह पढ़ी
तो आह निकली
पर आपके लिये
वाह निकली
और फिर
ऐसी ही रचना
पुनः पढने की चाह निकली
यही गुजारिश की एक
राह निकली...
एक कुछ छंदों की रचना है | लेकिन इतना कुछ कहने मी समर्थ है जितना किसी ३ घंटे के सिनेमा मे होता है |
अच्छे रचनाकार की यही विशेषता होती है |
--अवनीश तिवारी
राजीव जी,
बहुत दिनों बाद आपकी रचना पढी , सचमुच आह निकले ऐसी रचना है ,
नादान!! नहीं जानता
कि कोई कोंडलिसा ‘राईस’ नहीं देती..
वेदना और व्यंग्य का बहुत ही अच्छा संयोजन है , साथ में दिया हुआ चित्र कविता को चित्रित करता लग रहा है.
शुभकामनाएं
^^पूजा अनिल
द्रौपदी का पात्र
एक दाने से जगत को तृप्त करता था
नादान ने वह कीमती दाना निगल लिया है
उसे भी पचता नहीं है
बुश को भी नहीं
और दुनिया भूखी मर रही है
आह...
इस आह की अभिवयक्ति के लिए सिर्फ़ वाह-वाह कहा जा सकता है, राजीव जी बधाई |
aah ko paghkar aah nikle bina nahi rahi bahut khub.
महानुभाव,
रचना पढ़कर मुंह से निकलनेवाली 'वाह', दिलकी आह से भर आए गलेमें दबकर रह गई .... गजब की अभिव्यक्ति है, प्रणाम स्वीकारें.
वाह राजीव जी,
बहुत समय बाद आपकी कविता पढ़ी
"नादान!! नहीं जानता
कि कोई कोंडलिसा ‘राईस’ नहीं देती.."
राजीव जी!
रचना पाठक के अंतर तक उतर कर उसे उद्वेलित करने में सक्षम है और यही किसी भी रचना की सच्ची सफलता है.
रेडियो में दूर कहीं बज रहा है
सारी दुनियाँ का बोझ हम उठाते हैं
अखबार में छपा है
हिन्दुस्तानी ज्यादा खाते हैं
बहुत सामयिक और प्रभावी व्यंग्य!
zindagi ki daur me kavita ke liye samay nahi nikal paya,nahi kahunga,samay ko dosh dena khud ka ghav chupane jaisa hai.....
par sach kahu, 3 mahine baad hind yugm par aana, aisa laga jaise sarthak ho gaya, pehle kuch hansikaye padhi....thik lagi, par aankhein jaise kuch aur hi khoj rahi thi.....aur aapki kavita aakhir naseeb ho gayi,kehti hui....
"kesriya balam,aao ni padharo mhare des...."
नादान!! नहीं जानता
कि कोई कोंडलिसा ‘राईस’ नहीं देती..
kya kahu is pankti ke liye....gajab ka vyangya...shaili itni paini ki dil ko bedh gayi....itni vedna agar padhne aur dekhne(photo) ko mile to .....kya kehne.....
vaise aapki kavita padhkar lagta hai jaise tript ho gaye...ek andhe ko kya chahiye...do ankh.
shayad agli baar "mere kavi mitra" par kab aau,nahi pata,
par is baar aapne bhookh ko tript kar diya....iske liye kotish: aabhar.
rajiv ji, jaipur ko dehle 2 hafte hone ko hai, aapki kalam ne kuch aah nahi dikhai?????
shayad agli bar aau to meri ye bhookh bhi aap tript kar denge.
hai na....
arya manu,
udaipur.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)