मैंने आज फिर उसे देखा है
वो अकेला खड़ा था
हाँ और ना के बीच के भूरे गलियारे में
बहस करता
चुप्पी के साथ
उसने आज भी वही मुस्कान पहन रखी थी
और वही कपड़े
जिनमे पहली बार मिला था वो हमें
जब उसने आधे चाँद और आधी रोटी को मिलाकर बनाया था एक पूरा गोल
तब भी वो ऐसे ही खिलखिलाया था
आज की तरह
उसने समझाया था हमें उस दिन
परदे के आगे और पीछे का अन्तर
वो सब जानता था क्यूंकि
गुजारी थी उसने अपनी पूरी ज़िंदगी नेपथ्य में ही
उसके बारे में कई कहानिया सुनी हैं हमने
सुना है
वो जमा करता है आवाजें
जो छनकर आ जाती हैं परदे के पीछे
और बुनता है उनसे नए शब्द
कि वो साप्ताहिक बाज़ार में
रेहडी पर बेचता है चुटकुले हर हफ्ते
पर सच तो है कि मैंने देखा है उसे,लेटे पेट के बल
नदी के मुहाने पर
ढूढते पानी में कुछ,अपने हाथों से
क्या जाने
शब्द, चुटकले,कवितायें या मछलियाँ
या और ही कुछ?
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
आज ये कविता हिंद युग्म पर मेरी एक नई शुरुआत है
अपने बीच जगह देने के लिए आप सबका धन्यवाद
पावस नीर
सुंदर |
अवनीश
वाह।
पावस जी,
हिंद युग्म पर आपका स्वागत है .
यह कविता भी आपकी अन्य कविताओं की तरह अच्छी लगी , ऐसे ही लिखते रहिये
शुभकामनाएँ
^^पूजा अनिल
बढिया लिख रहें है पावस जी...
सुन्दर...
जब उसने आधे चाँद और आधी रोटी को मिलाकर बनाया था एक पूरा गोल
तब भी वो ऐसे ही खिलखिलाया था
आज की तरह
उसने समझाया था हमें उस दिन
परदे के आगे और पीछे का अन्तर
वो सब जानता था क्यूंकि
गुजारी थी उसने अपनी पूरी ज़िंदगी नेपथ्य में ही
शीर्षक देख कर ही पता चल गया था की यह कविता पावस नीर जी की है | बहुत अच्छे पावस जी और हिन्दयुग्म पर स्थाई सदस्य के रूप मी आने पर बधाई
पावस भाई!
तुम्हारी यह कविता भी पहले की कविताओं जैसी हीं विचारोत्तेजक है और इसी कारण मुझे बेहद पसंद आई।
बधाई स्वीकारो।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
पावस,बधाई हो,हमारे युग्म के स्थायी कवि बनने पर.अपनी धार को मजबूती से बनाये रखना.
आलोक सिंह "साहिल"
उसने आज भी वही मुस्कान पहन रखी थी
और वही कपड़े
जिनमे पहली बार मिला था वो हमें
जब उसने आधे चाँद और आधी रोटी को मिलाकर बनाया था एक पूरा गोल
तब भी वो ऐसे ही खिलखिलाया था
आज की तरह
उसने समझाया था हमें उस दिन
परदे के आगे और पीछे का अन्तर
वो सब जानता था क्यूंकि
गुजारी थी उसने अपनी पूरी ज़िंदगी नेपथ्य में ही
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पर सच तो है कि मैंने देखा है उसे,लेटे पेट के बल
नदी के मुहाने पर
ढूढते पानी में कुछ,अपने हाथों से
क्या जाने
शब्द, चुटकले,कवितायें या मछलियाँ
या और ही कुछ?
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बहुत सुंदर ....दिल को छू लेने वाली पंक्तियाँ ..
सुनीता यादव
वाह
बहुत खूब पावस जी
पिछले "कवि" जितना ही अच्छा लगा इस बार का आपका "कवि"।
धन्यवाद जो हिन्दयुग्म को "पावस" नीर मिला।
पावस,
मैं आपकी पहली कविता से ही आपका प्रशंसक हो गया हूँ।
जब उसने आधे चाँद और आधी रोटी को मिलाकर बनाया था एक पूरा गोल
तब भी वो ऐसे ही खिलखिलाया था
आज की तरह
वो सब जानता था क्यूंकि
गुजारी थी उसने अपनी पूरी ज़िंदगी नेपथ्य में ही
ढूढते पानी में कुछ,अपने हाथों से
क्या जाने
शब्द, चुटकले,कवितायें या मछलियाँ
या और ही कुछ?
एसे ही कलम अनवरत चलती रहे।
***राजीव रंजन प्रसाद
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