मेरा इंतज़ार करते करते
साथ में
किसी और का भी इंतज़ार
आँखों में रख लेते हैं लोग अक्सर।
मैं भी पहुँचकर
छपाक से डूब जाता हूं
’और’ के इंतज़ार में,
शिकायत नहीं करता।
मुझे कहानियाँ सुनाते सुनाते
अपने किरदारों में
डूब जाते हैं लोग अक्सर।
मैं बाहर चुपचाप खड़ा रहता हूं
या पड़ा रहता हूं
उनके महानगरों में
अलसुबह आए अख़बार की तरह।
मुझसे बात करते-करते
मेरी आँख, नाक, कान
या मेरी उपलब्धियों, असफलताओं
और मेरे दर्शन से
उलझे रहते हैं लोग अक्सर।
मैं उपेक्षित सा
समय के साथ
बीतता रहता हूं।
मुझे दूध पिलाते-पिलाते अक्सर
बड़ी दी के दुधमुँहे दिनों को
याद करने लगती थी
मेरी माँ की मुस्कुराती आँखें।
मैं बोलता नहीं था कुछ,
आँखें मींचकर जागता रहता था।
कल मेरे कंधे पर सिर रखकर
सुबकती रही तुम
किसी और के नाम।
मन किया कि
मार डालूं तुम्हें,
मगर कहता रहा था
कि हौसला रखो।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
19 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुन्दर कविता
बहुत खूब.............
raseedee tikat men amritaa preetam likhtee hain ki skootar par imroz ke peechee baithe hue main saahir kaa naam imroz kee peeth par ungalion se likhtee thee or ye imroz bhee jante the......
गौरव जी ,
बहुत ही खूबसूरत शब्दों में एक उपेक्षित मन की व्यथा कह डाली , ना शिकायत ना सवाल , बस एक तड़प - वो भी अनकही , बहुत ही सुंदर.
शुभकामनाएं
^^पूजा अनिल
सम्पूर्ण कविता प्रभावी.. परंतु निम्न पंक्तियों ने अधिक प्रभावित किया..
कल मेरे कंधे पर सिर रखकर
सुबकती रही तुम
किसी और के नाम।
मन किया कि
मार डालूं तुम्हें,
मगर कहता रहा था
कि हौसला रखो।
बधाई......
कल मेरे कंधे पर सिर रखकर
सुबकती रही तुम
किसी और के नाम।
मन किया कि
मार डालूं तुम्हें,
मगर कहता रहा था
कि हौसला रखो।
बहुत अच्छी कविता |बधाई
क्या कहूँ!
दर्द चरम पर है। लिखते रहो, बधाईयाँ।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
बहुत बढ़िया
आपकी कविताओं से हर बार कुछ अनछुए को छु लेने सा एहसास होता है
बहुत बढ़िया
आपकी कविताओं से हर बार कुछ अनछुए को छु लेने सा एहसास होता है
कविता पढ़कर बहुत देर तक कहीं खो गया। टिप्पणियॉ पढ़ीं तो लगा--यही तो मैं लिखना चाहता था--खूबसूरत शब्दों में एक उपेक्षित मन की व्यथा-अनछुए को छू लेने का एहसास-बहुत बढ़ियॉ कविता-एक संपूर्ण कविता----कहीं आप यह तो नहीं सोंच रहे हैं कि----मेरी कविता मेरे दर्शन से उलझते रहते हैं लोग अक्सर। मै उपेक्षित सा समय के साथ बीतता रहता हूँ---------वाह।
जब भी पढ़ते हैं आपको आह निकलने लगती है,
आलोक सिंह "साहिल"
मुझे दूध पिलाते-पिलाते अक्सर
बड़ी दी के दुधमुँहे दिनों को
याद करने लगती थी
मेरी माँ की मुस्कुराती आँखें।
मैं बोलता नहीं था कुछ,
आँखें मींचकर जागता रहता था।
...................
इल्जाम भी न दे पाए दर्द भी सह न पाए ...बहुत खूब
सुनीता यादव
:)शुद्ध गौरव की कविता
आखिरी की पंक्तियाँ सबसे अच्छी लगींः
कल मेरे कंधे पर सिर रखकर
सुबकती रही तुम
किसी और के नाम।
मन किया कि
मार डालूं तुम्हें,
मगर कहता रहा था
कि हौसला रखो।
आप दिल्ली आयें गौरव, मिलने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही है।
गौरव..
इतना क्रांतिकारी शीर्षक रख कर एसी छू जाने वाली बात लिखोगे तो...हर पैरा अपने आप में पूरी कविता है किंतु अंतिम पंक्तियाँ संग्रहणीय..
कल मेरे कंधे पर सिर रखकर
सुबकती रही तुम
किसी और के नाम।
मन किया कि
मार डालूं तुम्हें,
मगर कहता रहा था
कि हौसला रखो।
:) खैर हौसला रखो...
***राजीव रंजन प्रसाद
मन किया कि
मार डालूं तुम्हें,
मगर कहता रहा था
कि हौसला रखो.... कुछ ऐसी ही संवेदेना के साथ हर कोई जी रहा....शायद मैं भी....मैं गहरी सोच में उतर गया हूं...पता नहीं... पर ये सिर्फ आपका ही असर है....कुछ भी कह पाने में असमर्थ...बस सोचे जा रहा हूं.......
गौरव जी आपकी कविता मार डालू बहुत मार्मिक है ,किसी मे किसी को देखकर हम भूल जाते है कि कितना इकतरफ़ा होते है हम. इतना परिपक्व अनुभव है आपका कि यह स्तब्ध कर रहा है मुझे,आखिरी सात पंक्तिया इस कविता की जान है.
डा.शीला सिंह
गौरव जी आपने इतना परिपक्व अनुभव कहा सेपाया? सच है अक्सर हम किसी को किसी का दर्पण बना कर किसी को खोजते हैनही मिलता है तो भी स्वयं को भरमाये रहते हैंकैसी विडम्बना है बहुत मार्मिक है दिल को कुरेदती है. अखिरी सात पंक्तिया इस कविता की जान है ,आप बधाई के पात्र हैं सीधा वार करते हैं...
डा.शीला सिंह
बहुत बारीक और पकी हुई कविता है। अकसर ऐसा ही होता है, हम सभी के साथ।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)