तुमको देखा धड़कनें रुक गयीं नजारा देखकर
चाँदनी आयी हो जैसे आसमां लपेटकर... आसमां लपेटकर...
कितने तारे हाथ पकड़े करधनी में सज गये
और कुछ सितारे देखो घूम में उलझ गये
चाँद सूरज मुस्कुरा आँचल में आकर टंक गये
सप्तऋषि भी चावियों का गुच्छा बन लटक गये
ध्रुव ने आसन लगाया नांक का मोती बने
उदगनों के समूह कुछ लगे मुदरियों से झाँकने
दो सितारों वाली हिरनी....
दो सितारों वाली हिरनी खिलखिलाती पेट पर
चाँदनी आयी हो जैसे आसमां लपेटकर... आसमां लपेटकर...
अधरों की हद पर एक तारा स्वमं बुझकर बस गया
या तपिश अंगारों से गिरते ही झट झुलस गया
कर्णफूलों की जगह पर पंच-पांडव झूमते
गौर-ग्रीवा हार बन करते परिक्रमा घूमते
छोटे छोटे बाल-तारे यहाँ-वहाँ बिखर गये
अरुण आभा से तरुण कुछ और भी निखर गये
पद-नखों को चूमते से.....
पद-नखों को चूमते से कुछ सितारे लेटकर
चाँदनी आयी हो जैसे आसमां लपेटकर... आसमां लपेटकर...
आकाशगंगा धवल धार अम्बर किनारा बन गयी
किसमें कितना तेज है मानो परस्पर ठन गयी
बाजू बन्दों में लगे आ कुछ सितारे डोलने
घुँघरुओं में छुपकर देखो धीरे धीरे बोलने
आखों मे टिम-टिम दो सितारे मात देते सौर को
स्वर्ग का सृजन करे देखे बिहँसि जिस ओर को
मांणिकों का कोई सेतु.....
मांणिकों का कोई सेतु रख दिया समेटकर
तुमको देखा धड़कनें रुक गयीं नजारा देखकर
चाँदनी आयी हो जैसे आसमां लपेटकर... आसमां लपेटकर...
आसमां लपेटकर... आसमां लपेटकर...आसमां लपेटकर...
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुद्नर कविता लिखी है आपने राघव जी दिल को छुते हैं इसके भाव बधाई सुंदर रचना के लिए
धड़कने रूक गईं हमारी---शब्द चयन देखकर ।
भूपेद्र राघवजी-आपने भी --माणिकों का एक सेतु रख दिया समेटकर ।
आकाशगंगा धवल धार अम्बर किनारा बन गयी
किसमें कितना तेज है मानो परस्पर ठन गयी
बाजू बन्दों में लगे आ कुछ सितारे डोलने
घुँघरुओं में छुपकर देखो धीरे धीरे बोलने
आखों मे टिम-टिम दो सितारे मात देते सौर को
स्वर्ग का सृजन करे देखे बिहँसि जिस ओर को
बहुत सुद्नर भाव,बहुत बहुत बधाई.
जब इस तरह के शब्द-सौष्ठव हों तो वो कविता पुरानी-सी, बासी-सी लगने लगती है। कविता-लेखन में भी ट्रेंड का ख्याल रखना पड़ता है।
कविता अच्छी है लेकिन शैलेश जी की बात भी बिल्कुल सही है।
भूपेंद्र जी आपका गीत अच्छा लगा और आपका नया रूप दिख रहा है :).......चाँदनी आयी हो जैसे आसमां लपेटकर
चाँद सूरज मुस्कुरा आँचल में आकर टंक गये...
......
अधरों की हद पर एक तारा स्वमं बुझकर बस गया..
bahut sunder kalpana hai
राघव भाई,एकबार फ़िर एक अच्छा गीत,
आलोक सिंह "साहिल"
राघव जी,
कविता कुछ कुछ मैथिलीशरण गुप्त जी की सैरंध्री की याद दिला रही है , आपकी गीत रूपी कविता पढ़ने में प्रवाह जरूर बना हुआ है, परन्तु मुझे भी लगता है कि शैलेश जी सही कह रहे हैं , कविता में भाव बड़े सुंदर हैं , श्रृंगार रस में अच्छी कविता लिखी है .
शुभकामनाएँ
^^पूजा अनिल
जिस तरह से आकाश के सितारों और सौन्दर्यता की कल्पना कर उसे उपयोग मे लाया गया है, वह बहुत ही अच्छा लगा | एक सूत्र मे बांधा है आपने |
बासीपन के विषय मे कहना चाहूंगा कि आज के आधुनिक युग मे भी कभी कभार क्लासिक मूवी बनती रहती है |
इतना ख़राब भी नही है :)
बधाई |
अवनीश तिवारी
भावों को अगर शब््दों का साथ देने में राघवजी सफल हुए हैं तो इसमें दिक््कत क््या है.....इस तरह की कविता कभी-कभी ही तो मिलती है...रचना शिल््प की दृष््टि से भी मुझे अद््भुत रचना लगी...शिकायत करने वाले भाई लोग एकाध बार और पढ़ लीजिए ....आपके लैंग््वेज में कहूं तो प््लीज....प््लीज...प््लीजजज
अच्छी कविता लिखी है आपने भूपेंद्र जी .... मुझे कुछ शब्द समज़ नही आए ..... लेकिन हाँ आपने किसी की खूबसूरती की तारीफ की है ......जो बहुत ही प्यारा है की सब चाँद तारे हैरान हैं देखके ....वेसे आजकल इतने प्यारे लोग हैं कहाँ......जिनकी इतनी तारीफ कर पाएं....अपने केसे किया ये......किसको देख लिया था :)
प्रेम
नमस्कार प्रियजनों
बहुत बहुत आभार
जो सहन कर ली
मेरी कविताई कि मार..
इसलिये
एक बार
फिर नमस्कार
अब ध्यान दें
सभी टिप्पणीकार
मेरे सरकार
बहुत बड़ा कवि नही हूँ
कहीं गलत तो कहीं सही हूँ
कवि तो कल्पना पर डिपेंड होता है
अगर कल्पना नही तो
जिन्दगी भर का कलपना रहता है
और पहले दिन ही सस्पेंड होता है
अब कल्पना अपने पंखो से
कभी भविष्य में उड जाती है
तो कभी भूत में
जिस संसार में चली जाती है कल्पना
कविता प्रकट होती है उसी रूप में
अभी क्यूकि ज्यादा ट्रेण्ड नही हूँ
तो ट्रेन्ड का ख्याल नही रहता
और हम ट्रेंड होते
तो आपका ये सवाल नही रहता..
वैसे मै ज्यादा सहित्य पढ़ नहीं पाया हूँ
शायद इसलिये आज के हिसाब से
भाव के साथ आधुनिक शब्द जड नही पाया हूँ
मेरे ख्याल से श्रृंगार प्रधान कवितायें
आज भी लेती है ऐसी उपमायें
मगर कम लिखी जाती है
शायद इसलिये नज़र नहीं आती हैं
हमें कुछ याद आ रहा है
आपके समक्ष फरमाया जा रहा है
"चन्दन सा बदन चंचल चितवन"
"चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो"
"तारों से सजके अपने सूरज से "
ये अभिव्यक्तियाँ फिलहाल की है
पर उपमाये आदिकाल, रीति काल की हैं
जैसे -
"राम को रूप निहारति जानकी कंगन के नग की परछाहीं"
"मनौ नील मणि शैल पर आतप परयो प्रभात"
"झलकी भरि भाल लिये जल की पुटि सूख गये मधुराधर वै"
अगली कविता में श्रृगार का रस होगा
परंतु बिम्बो में और उपमओं में
स्कर्ट जींस व हाई हील सेन्डल का कस होगा
फेस की आभा मरकरी लाइट से तेज होगी
और बैठने के लिये समुद्र का किनारा नही...
ड्राइंग रूम की गद्दे दार कुर्सी और मेज होगी
और चाल मेट्रो ट्रेन की स्पीड में होगी
फिर देखते हैं कविता...
कैसे पनपती हुई आज कल की ब्रीड में होगी
कोशिश करता हूँ नये बिम्बों के साथ लिखने की
या तो कविता नये बिम्बो से बॉम हो जायेगी
और आपकी तालियाँ दिलवायेगी
वरना अपुन अपने प्यारे से डोगी को सुनायेगा
क्लेपिंग तो उसको भी देनी ही होगी -
चाहे कान फडफडाकर क्लेपिंग बजायेगा..
- पुन: एक बार नेहमय नमस्कार
- मेरी टिप्पणी को अन्यंत्र ना लेना यार
- देखकर आप लोगों का असीम प्यार
- मेरा मन भी हो उठा लिखने को बेकरार
- रहना अगली कविता झेलने को तैयार
अस्तु - नमस्कार
राघव - हिन्द-युग्म सिपेसिलार
अरे वाह भाई बहुत ही सुंदर प्रेम गीत ....आपने तो समां ही बाँध दिया.... रघाव जी बहुत बहुत बधाइयाँ.... मैं तो इस खूबसूरत सी खला में खो गया हूँ.....
श्रीमान भूपेन्द्र राघवजी--
आपका आभार भी जोरदार है।
नमस्कार क्या है एक चमत्कार है।
भूपेन्द्र जी
आपका यह गीत बहुत अच्छा लगा-
कितने तारे हाथ पकड़े करधनी में सज गये
और कुछ सितारे देखो घूम में उलझ गये
चाँद सूरज मुस्कुरा आँचल में आकर टंक गये
सप्तऋषि भी चावियों का गुच्छा बन लटक गये
ध्रुव ने आसन लगाया नांक का मोती बने
उदगनों के समूह कुछ लगे मुदरियों से झाँकने
दो सितारों वाली हिरनी....
संस्कृत निष्ठ और अलंकृत भाषा का प्रयोग बहुत प्रभावी लगा। बधाई स्वीकारें।
राघव जी
कविता से अधिक मुझे आपकी टिप्पणी ने प्रभावित किया। आपमें हास्य-व्यंग्य की अद्भुत प्रतिभा है। इसे बनाए रखें।
बहुत दिनों के पश्चात मेरी इस कविता पर नज़र गई। कविता सच में बेहद अच्छी है।
फिर जब मेरी टिप्पणियों पर नज़र गई तो शैलेश जी की टिप्पणी देख मैं अचंभे में पड़ गया-
"जब इस तरह के शब्द-सौष्ठव हों तो वो कविता पुरानी-सी, बासी-सी लगने लगती है।"
भला कॊई अच्छी चीज किसी बुरी चीज का कारण कैसे हो सकती है। शब्द-सौष्ठव और बासी का कोई सामंजस्य नहीं है। पुरानी या फिर प्राचीन कहा जाता तो कोई बात होती।
अच्छे और शुद्ध शब्द कविता को बासी नहीं बनाते, कविता को बासी बनाती है पढने वालों की मंशा। अगर "प्रसाद जी" अपनी कविताओं, कहानियों और नाटकों में विशुद्ध हिंदी के शब्दों का प्रयोग करते थे, तो ऎसा नहीं था कि भारत में उस समय विशुद्ध हिंदी हीं बोली जाती थी। फिर भी लोग उसे पढते थे, क्योंकि लोग शब्दों से कतराते नहीं थे। आजकल तो मानो फास्ट-फुड का जमाना आ गया है, बोलचाल के शब्द बिना किसी शिल्प के रच डाला और खुश हो लिए कविता हो गई। पढने वाले भी दिमाग लगाना नहीं चाहते। आखिर साहित्य का भी कोई मान है या नहीं?
गौरव, तुम्हारी टिप्पणी ने भी मुझे आहत किया है। भाई! कविता केवल भावों से नहीं बनती, शब्द भी चाहिये होते हैं।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
Arz kiya h
Taumra bs ek yhi bhul karta rha galib
Dhul to mere chere pr thi or m bs aaina saaf karta rha..
लिखने बाले तूने भी
तकदीर क्या खूब लिखी है।
एक ही परीक्षा पास करने
के बाद भी तूने कुछ को
TC,CC और ASM बनने
की दे दी जिंदगी न्यारी
हमने क्या बिगाड़ा था जो
हमको बिटर पंजा और वारी।
जरूर लिखा होगा कागज
और पत्थर का नसीव भी
वरना ये मुमकिम नही होता
की कोई पत्थर ठोकर खाये
और
कोई पत्थर पूजा जाये।
कोई कागज रद्दी और कोई
कागज गीता और कुरान बन
*जाये।
माना के किस्मत पे किसी
का कोई ज़ोर नही….....
पर ये सच ह की ट्रैकमैन
मेहनत में किसी से कमज़ोर
*नही,
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
मगर हमे तो किसी से भी उम्मीद नहीं
क्या करे दोस्तों अब सपनो को
दिल से लगाने कीआदत नही रही
हर वक़्त मुस्कुराने की आदत नही रही,
ये सोच के की कोई हमारी मदद में
नही आएगा, तब सेे रूठ जाने की
आदत नही रही…
चेतराम मीणा ट्रॉलीमैंन-भरूच वडोदरा
✍©®™✍
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