हम साथ साथ हुए थे आज़ाद
ऐसे कि
कभी बने शंख,
कभी नगाड़े
और कभी तुरही।
तुरही क्या होता है पापा?
कुछ साल बाद,
कुछ दशक बाद
मेरी बेटी पूछेगी
तो नहीं बता पाऊँगा मैं,
उसे नहीं सुनवा पाऊँगा
तुरही का जना संगीत।
मुझे भी नहीं मालूम
कि क्या होती है तुरही
क्योंकि नहीं बता पाए थे
मेरे पिता भी।
हम साथ साथ हुए थे आज़ाद,
साथ साथ सनते हुए
खेलते रहे
तालाब के किनारे के कीचड़ में,
हमने भरी हुंकार
तो थरथराकर
आसमान गिर गया था,
हमने दोपहर में
एक पेड़ उखाड़कर
अपनी धूप की छाँव में बो दिया था,
शाम आई थी
तो इंतज़ार करती रही थी
बस अड्डे वाले बैंच पर बैठकर।
हमने नहीं आने दिया था
किसी को भी तालाब तक,
जिन्हें नहलानी थी
अपनी गाय-भैंसें, ढोर-डंगर,
वे तालाब की हवा से
पानी भरकर ले गए थे
और शाम थक हारकर
आखिरी बस से
शहर लौट गई थी जब
तो तुमने ज़िद की थी
चाँद लाने की।
मैं चाँद की अम्मा से झूठ बोलकर
बुला लाया था उसे
पढ़ने के बहाने।
चाँद की लालटेन में
नीम की पत्तियों से बाती बनाकर
जलाई थी मैंने,
नहीं,
शायद तुमने जलाई थी
और मैं लेटकर
तारे उतारता रहा था।
तुम मेरी लिखावट का
कुछ पढ़ते पढ़ते
सो गई थी
मेरे अक्षरों की चादर ओढ़कर।
गाँव भर में
उजाला रहा था उस रात,
जाने किसका!
उसके बाद नहीं याद
कि तालाब कहाँ चला गया था?
चाँद की अम्मा ने नाराज़ होकर
कौनसे शनिवार को
वारे थे
मिर्च और नींबू?
हम
जो हुए थे साथ साथ आज़ाद,
कौनसी बस में बैठकर
कहाँ जा मरे थे?
कौन थी वो पापा?
कुछ दशक बाद
मेरी बेटी पूछेगी
तो नहीं बता पाऊँगा मैं
कि कौन थी तुम?
उसे नहीं समझा पाऊँगा
कि सलीकेदार दुनिया में
कैसे किया था
मैंने और तुमने
गँवारों की तरह इश्क़।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 कविताप्रेमियों का कहना है :
मेरी बेटी पूछेगी
तो नहीं बता पाऊँगा मैं,
उसे नहीं सुनवा पाऊँगा
तुरही का जना संगीत।
मुझे भी नहीं मालूम
कि क्या होती है तुरही
क्योंकि नहीं बता पाए थे
मेरे पिता भी।
बहुत अच्छी लगी यह पंक्तियाँ |
जो जितना गहरा उतरेगा...वो उतना ....अपना समझेगा...आपकी रचना को गौरव भाई....बधाई....बधाई.....रूह तक पहुंची आपकी आवाज...जो आपने भी शायद... अपनी रूह से ही लगाई है.......बहुत तरह के भाव उमड़ते हैं आपकी रचनाओं को पढ़ने के बाद....मैं सोचता रह जाता हूं कि....क्या-क्या कहूं...........
निम्न पंक्तियों में आपकी लेखनी की पूरी शक्ति दिखती है। शाम का बेंच पर इंतज़ार करना, फिर आखिरी बस से वापिस लौट जाना, चाँद की अम्मा से झूठ बोलना, अक्षरों की चादर आदि बहुत ख़ास बिम्ब है। यह आपकी प्रतिनिधि कविता बनने लायक है।
हम साथ साथ हुए थे आज़ाद,
साथ साथ सनते हुए
खेलते रहे
तालाब के किनारे के कीचड़ में,
हमने भरी हुंकार
तो थरथराकर
आसमान गिर गया था,
हमने दोपहर में
एक पेड़ उखाड़कर
अपनी धूप की छाँव में बो दिया था,
शाम आई थी
तो इंतज़ार करती रही थी
बस अड्डे वाले बैंच पर बैठकर।
हमने नहीं आने दिया था
किसी को भी तालाब तक,
जिन्हें नहलानी थी
अपनी गाय-भैंसें, ढोर-डंगर,
वे तालाब की हवा से
पानी भरकर ले गए थे
और शाम थक हारकर
आखिरी बस से
शहर लौट गई थी जब
तो तुमने ज़िद की थी
चाँद लाने की।
मैं चाँद की अम्मा से झूठ बोलकर
बुला लाया था उसे
पढ़ने के बहाने।
चाँद की लालटेन में
नीम की पत्तियों से बाती बनाकर
जलाई थी मैंने,
नहीं,
शायद तुमने जलाई थी
और मैं लेटकर
तारे उतारता रहा था।
तुम मेरी लिखावट का
कुछ पढ़ते पढ़ते
सो गई थी
मेरे अक्षरों की चादर ओढ़कर।
गाँव भर में
उजाला रहा था उस रात,
जाने किसका!
वाह। गौरव सोलंकीजी वाह।-----------बहुत प्यारी--मासूम--- कविता है-----खुदा इसे बुरी नजर से बचाए। पढ़ते-पढ़ते यूँ लगा कि जैसे------------चॉदनी रात में----गंगा की धार में----बहती नाव में------अकेले नाव पर लेटा हुआ-- बहा जा रहा हूँ मैं--------और सुन रहा हूँ---------आपकी कविता------हम साथ-साथ हुए थे आजाद ऎसे कि कभी बने शंख-कभी नगाड़े-और कभी तुरही-------------वाह।
शानदार
आलोक सिंह "साहिल"
तुरही के बोल जब घुले थे मेरे कान में,
दूर हीं से जान गए,यह इश्क का जोश है।
चाँद तारे, तोड़ने और मोड़ने तालाब को,
बेखौफ होकर जो चले,सौ फीसदी मदहोश है।
पूछा किसी की बेटी ने,"कविता ऎसी होती है?"
मैने कहा, देखो तुम्हारे पापा क्यों खामोश हैं?
भाव ऎसे उभरें तो क्यों न कोई खो चले,
गौरव!किसी का नहीं,यह बस तुम्हारा दोष है। :)
ऎसे हीं लिखते रहो, मित्र!!
बहुत बढिया।
बधाई स्वीकारो।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
वाह भाई वाह, कविता नही ये तो जादू है भाई....टोटका भी.....और क्या कहूँ ....सरूर उतरने दो....फ़िर कुछ कहूंगा
बहुत प्यारी कविता लिखी है गौरव जी ने ......प्रेम कहानी को कहा है ....बहुत खूबसूरत शब्दों और पंकित्यों के साथ ....और आख़री पंक्ती जेसे कहती है की गवारों की तरह ......जो दिखता है की वही सच्चा प्यार था ...मासूम ...बेखबर .....
आजाद .....केसे बता पाओगे आपनी बेटी को ....की तुरही क्या होती है ....जिसने केवल शोर सुना है संगीत को केसे सुना पाओगे उसे तुम ......कहाँ जानती होगी बेटी की ...तालाब क्या है...पेड़ की छांव ....आस्मान ...और चाँद तारे ...और उनको लाना क्या है ...इसी मोहब्बत को बेटी केसे समाज पाएगी....महसूस कर पाएगी क्या वो संगीत तुरही का ........जो सुनेगी शोर को ........सिर्फ़ शोर को ......
बधाई आपको गौरव जी और प्रेम
बड़े बड़े लोगों ने बाहुत कुछ कह दिया है। अब कुछ कहने को बचा नहीं है। आप लिखते रहिये गौरव भाई।
बहुत अच्छा लगता है आपको पढ़कर।
गौरव जी ,
बहुत खूब ,
प्यार भी कितना मासूम होता है ना...., जो गावं ,शहर, चाँद और आसमान की किन्ही हदों को नहीं जानता ...
पहले भी कहा है और अब फ़िर कहती हूँ कि आप बहुत अच्छा लिखते हैं और ऐसे ही लिखते रहिये ,
शुभकामनाओं के साथ
^^पूजा अनिल
गौरव जी, बुरा ना मानियेगा पर अगर कविता में लय न हो, उसे गुनगुनाया ना जा सके तो कविता बेरंग हो जाती है, आपके विचार बहुत सुंदर होते हैं पर कुछ ही कविताओं में लय होती है, कृपया इसका भी ध्यान रखा कीजियेगा तो आप एक महान कवि बन जायेंगे, वैसे अभी भी आप जैसे कवि कम ही हैं.-
विवेक जैन
Gaurav
Meri aankhein nam hain, kahin gehre tak choo gayi hai. bahut khoob gaurav.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)