कुछ दार्शनिक हो जाते हैं,
पोथियां लिख डालते हैं बड़ी बड़ी,
रहस्य फ़िर भी अनुत्तरित रह जाते हैं,
कुछ बुद्धिजीवी बन जाते हैं,
मनवा लेते हैं हर बात तर्क से,
पर भीतर एक खोखलापन कसोटता रह जाता है,
कुछ धार्मिक हो जाते हैं,
रट लेते हैं वेद पुराण, कंटस्थ कर लेते हैं,
और बन जाते हैं तोते, करते रहते हैं वमन -
कुछ उधार लिए हुए शब्दों का, उम्रभर,
और दूकान चलाते हैं,
कुछ नास्तिक हो जाते हैं,
नकार देते हैं सिरे से हर सत्ता को, हर सत्य को,
अपने अंहकार में निगल लेते हैं कभी ख़ुद को,
कुछ सिंहासनों पर चढ़ बैठते हैं,
जीभ लपलपाते हैं कुबेर के खजानों पर बैठकर,
जहरीले नागों की तरह,
बहुत से रह जाते हैं - खाली बर्तनों की तरह,
कभी दार्शनिक तो कभी तर्कशास्त्री हो जाते हैं,
सुविधानुसार - धार्मिक और नास्तिक भी,
धन मिल जाए तो राजा, वरना फकीरी को वरदान कह देते हैं,
आड़म्बरों में जीते हैं, और भेड़चाल चलते हैं,
पाप भी करते हैं और
एक डुबकी लगा कर पवित्र भी हो लेते हैं,
मगर कुछ बदनसीब ऐसे भी रह जाते हैं,
जिनपर कोई रंग नही चढ़ पाता,
बर्दाश्त नही कर पाती दुनिया उनकी आँखों का कोरापन,
उनकी जुबान की सच्चाई, कड़वे जहर सी लगती है,
उनका नग्न प्रेम नागवार गुजरता है दुनिया के दिल से,
जीते जी उन्हें हिकारत मिलती है,
और मरने के बाद परस्तिश,
चूँकि दुनिया का दस्तूर है -
कोई नाम जरूरी है,
तो ठोंक दिया जाता है, मरने के बाद उनके नामों पर भी,
कभी संत, कभी प्रेमी तो कभी कवि होने का ठप्पा....
( चित्र सौजन्य मनुज मेहता, छायाकार, हिंद युग्म )
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
जीते जी उन्हें हिकारत मिलती है,
और मरने के बाद परस्तिश,
चूँकि दुनिया का दस्तूर है -
कोई नाम जरूरी है,
तो ठोंक दिया जाता है, मरने के बाद उनके नामों पर भी,
कभी संत, कभी प्रेमी तो कभी कवि होने का ठप्पा....
वाह संजीवजी ! इंसान को इंसान के रूप में
कहां स्वीकृति मिल पाती है!
क्यों जरूरी होता है कोई ठप्पा लगना !
क्या बात कही आपने संजीव जी यह ठप्पा भी अजीब चीज है लग ही जाता है नाम के साथ अक्सर ,पर कवि होने का ठप्पा लगना तो........? हर किसी के नाम के साथ नही लगता |कविवर पन्त जी की पंक्तियाँ याद आ रही है :-
वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान
उमड़ कर आंखो से चुपचाप
बही होगी कविता अनजान
बधाई ........सीमा सचदेव
क्या बात कह दी सजीव जी..
कुछ नास्तिक हो जाते हैं,
नकार देते हैं सिरे से हर सत्ता को, हर सत्य को,
अपने अंहकार में निगल लेते हैं कभी ख़ुद को,
कुछ सिंहासनों पर चढ़ बैठते हैं,
जीभ लपलपाते हैं कुबेर के खजानों पर बैठकर,
जहरीले नागों की तरह,
बहुत से रह जाते हैं - खाली बर्तनों की तरह,
कभी दार्शनिक तो कभी तर्कशास्त्री हो जाते हैं,
सुविधानुसार - धार्मिक और नास्तिक भी,
बहुत बढिया...
बड़ी गहरी बात कर दी आज तो सजीव जी ....
वाह...बहुत उम्दा रचना है आपकी. बहुत गहरी और यथार्थवादी सोच है!
अरे वाह ! घुमा फिराकर तो पते की बात कह गए |
बहुत सुंदर
अवनीश तिवारी
वाह क्या कवीता है ........हर तरफ़ ठप्पों की होड़ लग रही है.............और जो सच है .......... उसे ठप्पे की जरुरत नही ..........
पर बीना ठप्पे के इंसानों को........कोई देखता नही .......कोई जानता नही ..........हाँ वो ही है जो है खाली भीतर से ......जिसके अन्दर किसी नाम की चाह नही .....और दिल में उसके खुदा का नाम है बस .............. पर ठप्पे की उन्हें परवाह नही .........चाहे कवी कह दो चाहे संत ...............पर वो ही है जो है ..........बाकी है सब केवल ठप्पे .केवल नाम .................उन्ही ठप्पों को सँभालने में ......... उनकी जिंदगी बीत जाएगी ........... और कभी ना जान पाएंगे वो की ................बिन ठप्पे के भी कोई केसे जी लीया.............खुश रहा ............... और हस्ते हस्ते ही वो केसे मर गया ...................क्युकी ठप्पों को छोड़ना इतना आसान नही................ और ठप्पों के बीना जीना हर किसी का नसीब नही ..........
बधाई सजीव जी ........वाकई आपकी इस कवीता ने मुझे आपके बहुत करीब ला दिया ........और मैं आपकी फेन हो गई बस ..........
प्रेम
ठप्पा लगा कर शायद हम अपनी भूल सुधार लेते हैं....सजीव जी आप ने कटु सत्य लिखा है. शब्द और भाव का अनुपम संगम है आप की रचना में. इश्वर करे ऐसे ही खूब लिखते रहें.
नीरज
काफ़ी कुछ कहा जा चुका है ऊपर... अब और क्या कहूँ.? बस प्रणाम स्वीकार कीजिए!
एक बात भूल गया, मनुज आप को इस चित्र के लिए धन्यवाद और बधाई |
-- अवनीश तिवारी
सजीव जी ,आज के परिवेश में ठप्पे के साथ जीना आवश्यक समझने लगे हैं लोग ! तभी तो आज यदि हम किसी सड़क या गली में देखें तो हर नुक्कड़ पर हमको लोगों के साइन बोर्ड नज़र आते हैं ! एक एक पोस्टर पर दस लोगों की तस्वीर नाम सहित नज़र आती है !सच ही हर आदमी अपनी पहचान के लिए एक ठप्पा तलाशने लगा है !आपकी कविता यथार्थवादी है !आपकी लेखनी को नमन करना चाहती हूँ !धन्यवाद .....
बहुत सधे हुए शब्दों में....बेहद सटीक कविता लिखी है...बधाई हो!
बहुत ही सुंदर कविता लगी आपकी यह सजीव जी ..बधाई
एक भी शब्द अतिरिक्त नहीं है कविता में। बहुत समझदारी से बौखलाई हुई कविता।
वाह! मजा आ गया।
बहुत बढिया ठप्पा,बधाई
संजीव जी,
बहुत ही सुंदर रचना
किन किन पंक्तियों की तारीफ की जाय,
हर एक पंक्ति लाजवाब है
सजीव जी,
सत्य छिप नहीं सकता, फ़िर चाहे कोई भी ठप्पा लगा हो या नहीं , जिस तरह से आपकी कविता सत्य कह रही है हम भी उसी तरह सत्य कह रहें हैं कि आपने वाकई बहुत अच्छा लिखा है , बधाई स्वीकारें
^^पूजा अनिल
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