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Monday, May 12, 2008

प्याली


चुसकियों में खत्म हुई - चाय
जूठी प्यालियां...फिर भी
सहेज दी गईं...
अगली बार धुलकर
फिर चाय सजाने की खातिर
हर बार...इस्तेमाल हुईं
प्यालियां बेहाल हैं
आखिरी घूंट के साथ
गिरकर टूट गईं होती तो..
अगली बार अवसादमुक्त रहतीं
भले ही कचरे में फेंक दी जातीं
पर यूं बेहाल न होती!

हर घूंट सुकूं तब तक है
जब तक नर्म-नर्म उंगिलयां
थामें हुईं शगल में
थोड़ी देर में जूठन सहित
दरकिनार हो जाएंगी बैठक से
रात भर सूखती...चीटियों-मक्खियों से जूझतीं
सुबह फिर कहीं जिंदगी पाएंगी
चाय भले ही औपचारिकता हो...
व्यवहारिकता हो...पर...
प्यालियां...हर बार ठगी जाती हैं
हर बार होंठों से लगाकर
छोड़ दी जाती हैं
हर बार के ऐसे इस्तेमाल पर
क्षुब्द हैं... पर क्या करें?
वे न तो चाय हो सकती हैं....
न वो होंठ.....!

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17 कविताप्रेमियों का कहना है :

सीमा सचदेव का कहना है कि -

प्याली बिम्ब के साथ आपके भावोदगार बहुत अच्छे लगे

Pooja Anil का कहना है कि -

नमस्ते अभिषेक जी,

इस कविता की प्रथम चार पंक्तियाँ पढ़ते ही आपका नाम जेहन में आया, और सचमुच कविता आपकी ही है,लगता है अब मैं आपकी लेखन शैली से परिचित होने लगी हूँ,):
कुछ पंक्तियाँ पसंद आई

हर बार...इस््तेमाल हुईं
प््यािलयां बेहाल हैं
आिखरी घूंट के साथ
िगर करटूट गईं होती तो..
अगली बार अवसादमुक््त रहतीं
भले ही कचरे में फेंक दी जातीं
पर यूं बेहाल न होती!

किसी भी गहन भाव अथवा अर्थ को ढूंढे बिना बस इतना ही कहूँगी कि आपकी कविता अच्छी लगी . शुभकामनाएँ

^^पूजा अनिल

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

अभिषेक जी,

बढिया बिम्ब के साथ बढिया कविता गढी है..

हर घूंट सुकूं तब तक है
जब तक नर््म-नर््म उंगिलयां
थामें हुईं शगल में
थोड़ी देर में जूठन सहित
दरकिनार हो जाएंगी बैठक से
रात भर सूखती...चीटियों-मकि््खयों से जूझतीं
सुबह फिर कहीं जिंदगी पाएंगी
चाय भले ही औपचारिकता हो...
व््यवहारिकता हो...पर...
प््यालियां...हर बार ठगी जाती हैं
हर बार होंठों से लगाकर
छोड़ दी जाती हैं

Rama का कहना है कि -

डा. रमा द्विवेदी....


प्रतीकों और बिंबों के माध्यम से आपने समाज के ज्व्लन्त समस्या को विशलेषित किया है..बहुत सुन्दर,बहुत मार्मिक ....बधाई एवं शुभकामनाएं...

Anonymous का कहना है कि -

भावाितरेक की अतिव््यंजना देखनी हो तो कोई आपकी कविता पढ़े...वाह जनाब वाह....मुग्ध कर दिया...लेकिन जनाब क्षुब््द की बजाय क्षुब््ध होते तो ज््यादा अच््छा रहता.....

Unknown का कहना है कि -

प्यालियो के माध्यम से आपने बहुत कुछ कह दिया..
अच्छा लिखा है.....
सुमित भारद्वाज

ममता पंडित का कहना है कि -

प्यालियां...हर बार ठगी जाती हैं
हर बार होंठों से लगाकर
छोड़ दी जाती हैं
हर बार के ऐसे इस्तेमाल पर
क्षुब्द हैं... पर क्या करें?
वे न तो चाय हो सकती हैं....
न वो होंठ.....!

सुंदर प्रवाह के साथ संतुलित अंत, अभिषेक जी बहुत ही अच्छी रचना लिखी है आपने , बधाई स्वीकारें |

देवेन्द्र पाण्डेय का कहना है कि -

अभिषेक जी--आपने चमचों के बारे में तो कुछ लिखा ही नहीं । मैने तो सुना है कि प्याली का साथ चमचे बखूबी देते हैं। एक टूट जाती है तो चमचे झट दूसरी में सवार हो जाते हैं।

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

आपने जो सामाजिक कमियों को खारोदाने का काम किया है , बधाई |
पिछली रचनाये भी सफल थी ये भी |

अवनीश तिवारी

KAMLABHANDARI का कहना है कि -

abhishekji pahli baar aapki kavita ka aanand liya hai .sachmuch dil ko chhu gai.kya khub kaha aapne --प्यालियां...हर बार ठगी जाती हैं

pallavi trivedi का कहना है कि -

वाह...नयेपन के साथ अनूठे अंदाज़ की सार्थक कविता! अच्छा लगा पढ़कर!

Sajeev का कहना है कि -

वाह अभिषेक, बेहद सशक्त अभिव्यक्ति, एकदम नया बिम्ब है, और भाव उत्कृष्ट....

Anonymous का कहना है कि -

बहुत सलीके से आगे बढ़ती कविता.मानो चाय की बार दर बार की चुस्की...
आलोक सिंह "साहिल"

Unknown का कहना है कि -

अभिषेक जी, रोजमर्रा की जिंदगी मे प्रयोग आने वाली एक छोटी सी प्याली के भावों को अनुभव कर उसे सुंदर शब्दों मे व्यक्त करना वाकई सराहनीय है. माँ शारदे का आशीष सदैव आपके साथ रहें.
मैत्रेयी

sushant jha का कहना है कि -

बेहतरीन...कविता पढ़कर एक लड़की की याद आ गई....

Dr. sunita yadav का कहना है कि -

सामायिक सवालों की ओर आप ने इंगित किया ...सार्थक बिम्बों के माध्यम से ...अच्छा लगा
सुनीता यादव

mona का कहना है कि -

nice poem....inner meaning can also be felt.

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