जानवर होना...
जैसे आदमी की नज़र में
अच्छा नहीं...गंदगी है
हर आदमी भी
कहाँ अच्छा है...
'उनकी' नज़र में ?
कह न पाने का
दर्द भी उनको नहीं
वे तो खामोशी में ही
बयां कर देते हैं...हर कुछ
ऐसे ही कुछ खामोशियां
पाले हुईं हैं....
कुछ जवानी
ढ़ांपने में गंदगी
लगीं हैं ...या लगाईं गईं हैं!
बहुत कुरेदा...
कइयों ने
बहुत समझाया
कहने लगीं.....
'छोड़ो भी सा'ब...
अब चले भी जाओ
न किसी जानवर को
बोलना सिखाओ...
हमारे भी
मस्तक-उदर-लिंग
लम्बवत ही थे
बिछावन पर...
गिराए जाने से
पहले तक ।...
..जानना ही है कुछ
तो इतना ही जानो..
..हर कोई बिछने लगा है
..इस दुनिया में अब
जाति-लिंग छोड़
नया मज़हब हुआ है!
वैसे भी...
खरीदने-बेचने की
कला में....
था मर्द ही माहिर
हमारी 'गली' में
सबसे बड़ी गाली
यूं ही नहीं है -- "मर्द होना"!'
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
खरीदने-बेचने की
कला में....
था मर्द ही माहिर
हमारी 'गली' में
सबसे बड़ी गाली
यूं ही नहीं है -- "मर्द होना"!'
सही कहा आपने अभिषेक जी , ऐसी ही मर्दानगी को(गाली को ) मर्द का नाम दे दिया जाता है .....
पिछली रचना वेश्या की तरह यह रचना सटीक और सुंदर लगी |
..हर कोई बिछने लगा है
..इस दुनिया में अब
जाति-लिंग छोड़
नया मज़हब हुआ है!
-- बहुत सुंदर |
अवनीश तिवारी
अभिषेक जी, आपकी कविता बहुत सही लगी। आप छोटी कविता लिखते हैं परन्तु अच्छा लिखते हैं।
कह न पाने का
दर्द भी उनको नहीं
वे तो खामोशी में ही
बयां कर देते हैं...हर कुछ
बहुत खूब !
बढिया, गूढ कविता
बहुत कुरेदा...
कइयों ने
बहुत समझाया
कहने लगीं.....
'छोड़ो भी सा'ब...
अब चले भी जाओ
न किसी जानवर को
बोलना सिखाओ...
हमारे भी
मस््तक-उदर-लिंग
लम््बवत्् ही थे
बिछावन पर...
गिराए जाने से
पहले तक ।...
बधाई
ह्म्म्म्म्म्म्म्म....
गजब ढा दिया आपने तो!
आलोक सिंह "साहिल"
पिछली रचना की हीं तरह इस बार भी आप अपने पूरे रंग में हैं।
बढिया लगी आपकी रचना।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
इतनी अच्छी रचना पर देर से कमेंट करने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ अभिषेक जी ..
अत्यंत तीक्ष्णता है .. छेद गयी अंदर तक आपकी लेखनी ... इस विषय पर पहले भी बहुत कुछ पढ़ा पर यह तो असाधारण है...
शब्दों में नही लिख पाऊँगा मैं... बहुत ही प्रभावित किया आपकी कविता ने....
very well written poem
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