हर रोज़ की तरह
आज भी
उसने सुबह के नाश्ते में
कल के बासी चाँद पर
चुपड़ ली थोडी ताजी धूप
घी की तरह
किसी ने उसे नही टोका
जब वो भरी दोपहर
शहर की सबसे तेज़ सड़क पर खड़े होकर कहने लगा
कि
दरअसल ये सड़क एक नदी है
जो बहती है खिड़की वाले पहाड़ों के बीच
उन्हीं खिड़किओं से झांकते सन्नाटे से
काफी देर तक बातें की उसने
और
कई बातें बचाकर ले आया अपनी कलम में
शाम के नाश्ते के लिए
वो
रोज़ की तरह आदतन रुक गया
उस दुकान पर
जहाँ रोज़ बिकती थी ज़िंदगी टके सेर
दिन भर के कमाए दुःख से
आज फ़िर
सपनों के शहर में उसने शब्द ख़रीदे
और भूखा सो गया .
रचनाकार- पावस नीर (मार्च २००८ अंक यूनिकवि)
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
18 कविताप्रेमियों का कहना है :
ऐसी कविताएं ही होती हैं, जिन्हें बार बार पढ़ने को जी चाहता है। हिन्द-युग्म आपको पाकर धन्य है।
कहते है कवि कविता नही लिखता
लिखती है कविता कवि को अकसर
आ जाती यह जब भी चाहे
न देखे यह कोई अवसर
आपकी कविता भी एक सच्चे कवि को व्यक्त कर रही है .....सीमा
behad sunadar kavita!!!
पावस नीर जी
बहुत सुन्दर बिम्द लिए हैं-
हर रोज़ की तरह
आज भी
उसने सुबह के नाश्ते में
कल के बासी चाँद पर
चुपड़ ली थोडी ताजी धूप
घी की तरह
स ुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
उन्हीं खिड़किओं से झांकते सन्नाटे से
काफी देर तक बातें की उसने
और
कई बातें बचाकर ले आया अपनी कलम में
शाम के नाश्ते के लिए
-- एक विशिष्ट शैली है आपकी |
सुंदर |
अवनीश तिवारी
वाह... gauarv से सहमत हूँ १०० फीसदी
दिन भर की मेहनत का बाद---तपती धूप से बचते-बचाते--जब आया घर--तो अंतरजाल में दिखे------पावस नीर-----कवि--- वाह। क्या कविता है।-------पढ़ते ही भींग गया अपना मन-----अंगुलियॉ थिरकने लगीं बधाई देने के लिए---बधाई पावस नीर---धन्यवाद-- हिन्द-युग्म-।-devendrambika@gmail.com
क्या कहूँ पावस!!!
एक अलग हीं स्तर की कविता है,जिसे पढने पर कवि होने का फख्र होता है। यार!! तुम युग्म के लिए एक धरोहर हो।
बधाई स्वीकारो।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
bahut sundar badhai
पावस जी, आपकी अब तक की हर कविता उम्दा है। आप ऐसे ही लिखते रहें। युग्म को व समाज को आपकी जरुरत है।
धन्यवाद
It is really a very nice poem. The last few lines touched my heart. Great gooing Pawas and keep posting. I am eager to read your next one. cheers, dinesh.
आज भी
उसने सुबह के नाश्ते में
कल के बासी चाँद पर
चुपड़ ली थोडी ताजी धूप
घी की तरह
पावस नीर जी
आपकी कविता पढ़ कर
जो आनन्द आया उसे मैं बयान नहीं कर सकता
वाह !
मोह लिया आपकी लेखनी ने
मन करता है कि सुबह के नाश्ते से
रात के भोज तक..
यही आचमन करता रहूँ
और प्यास बरकरार रहे..
पावस जी , आपकी कविताएँ जिंदगी के बहुत करीब होती हैं, ऐसी ही यह कविता भी है, बहुत सुंदर लिखा है --
वो
रोज़ की तरह आदतन रुक गया
उस दुकान पर
जहाँ रोज़ बिकती थी ज़िंदगी टके सेर
दिन भर के कमाए दुःख से
आज फ़िर
सपनों के शहर में उसने शब्द ख़रीदे
और भूखा सो गया .
बधाई स्वीकारें
^^पूजा अनिल
दिन भर के कमाए दुःख से
आज फ़िर
सपनों के शहर में उसने शब्द ख़रीदे
और भूखा सो गया .
बहुत ही अच्छे विचार है
सुमित भारद्वाज
बहुत खूब पावस,बेहतरीन
आलोक सिंह "साहिल"
अनूठे बिंबों और उपमानों से सजी एक़ अद्भुत कविता .... कवि की क़हानी कवि की ज़ुबानी ...
बहुत अच्छा लगा पढ़कर...
kaffi sunder likhte hain aap....man ko bhitar tak chhujati hain aap ki kavitayen...........
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)