छुटपन में
एक स्लेट होती थी
जिसपर उलटे सीधे , टेढ़े मेढ़े
अक्षर उगाते थे हम
जब पहली बार
लिखते थे हम स्लेट पर
तितली की शक्ल का 'क'
सब खुश हो जाते थे
वे अक्षर बड़े आजाद थे,
कभी तितली
कभी गौरैया
कभी चींटी
हुआ करते थे
छोटी छोटी उंगलियाँ
जैसा जी चाहा , वैसा ही 'क'
लिख लेतीं थीं ।
फ़िर धीरे धीरे हाथ पकड़ कर
सीखा हमने
गौरैया, चीँटी और तितली को
'क' लिखना ।
उड़ते-भागते अक्षर स्लेट पर
ऐसे चिपके
कि फ़िर न हिल सके।
फ़िर स्लेट बदल गयी, और
कापियों में अक्षर बिछाने लगे हम
पहले सादी और फ़िर
रूल वाली कापियों में ,
ताकि दो रेखाओं के
जमीन और आसमान की कैद से
छूट न पायें ये शैतान अक्षर !
फ़िर शायद
धीरे धीरे
अक्षरों की भी उड़ने और भागने की इच्छा
खत्म हो गयी ,
वे भी खुश हो लेते थे
अपने सुडौल और सही
रेखाओं के बीच फ़ँसे होने पर ।
फ़िर जब भी
रूल वाली उस कापी में
कोई अक्षर इधर उधर भटकता
तो उसे लाल रंग से काट दिया जाता
शायद अक्षरों का रक्त भी लाल ही था ।
फ़िर वे अक्षर घबराने लगे
कि कहीं उन्हें भी
इधर उधर भटकने पर
काट न दिया जाय ।
इसके बाद
सुडौल आकार में
किताबों और कापियों में
सही जगह पर
छापे गये वे -
सबने उन्हें अपने-अपने तरीके से
अलग अलग क्रम में
सजाया, लिखा
फ़िर छापा
जिसने जितने अच्छे क्रम में
सजाया उन्हें,
बाजार में वे उतना ही बिके ।
लेकिन
फ़िर कभी वे अक्षर
तितली या गौरैया न हो सके
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत खूब सही बात बचपन के अक्षर तितली वाले खो गए है,रह गए है बाकि रक्त रंजित शब्द .
क्या बात है !
आलोकजी, बहुत सुंदर रचना , बधाई हो !
जिसने जितने अच्छे क्रम में
सजाया उन्हें,
बाजार में वे उतना ही बिके ।
लेकिन
फ़िर कभी वे अक्षर
तितली या गौरैया न हो सके
बहुत खूब ! लेपटोप के जमाने में
पुरानी यादें ताजा कर दी
kya baat hai alok jee....kya khoob likha hai aapne...
बहुत खूब कहा आपने , हमारा जीवन भी टू कुछ ऐसा है , आपकी कविता पढ़कर जगजीत सिंह जी की ग़ज़ल याद आ गई :-
ये दौलत भी ले लो ,ये शोहरत भी ले लो .......
खैर आपकी कविता बहुत अच्छी लगी .......सीमा सचदेव
क्या बात है। बस यही शब्द निकले जब पहली बार पढ़ा तो। बहुत खूब।
आलोक जी , बहुत अच्छा सजाया है आपने अपने अक्षरों को , कविता अच्छी लगी .
पूजा अनिल
बहुत खूब आलोक जी
आपने इस कविता के मध्यम से बहुत कुछ दर्शा दिया
याद आता है की किस तरह हमने पड़ना लिखना सिखा
बहुत खूब
बेहतरीन,बेहतरीन,बेहतरीन,बेहतरीन,बेहतरीन,बेहतरीन,बेहतरीन,बेहतरीन,बेहतरीन,बेहतरीन..................अब और क्या कहूँ?सिर्फ़ बधाई दे सकता हूँ.
आलोक सिंह "साहिल"
आलोक जी,
कविता तो सुबह ही पढ ली थी लेकिन आपकी कविता महसूस करने का स्पेस मांगती है। बंधन और उन्मुक्तता के बीच आपके अक्षर कविता के भीतर् से हर पाठक को अपना अपना अर्थ निकालने की छूट देते हैं। ...और जो बात कविता में गहरे उतारती है वह है शब्दों का फिर गौरैया न हो पाना।
आपकी परिचित शैली से विमुख इस रचना की सादगी भी कविता को बार बार पढे जाने पर विवश करती है। बधाई स्वीकारें....
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत शानदार आलोक जी ... प्रभावशाली अभिव्यक्ति है ...शुभकामनाएं.....
आलोकजी, बहुत सुंदर रचना अच्छी लगी .
Regards
आलोक जी
आपने बहुत सुंदर रचना रची। बचपन के िदन याद आ गए
आज आपकी कवीता पढी और फीर से वही तीतली बनाने का जी कीया , बहुत कोशीस कीया पर वो क तीतली न बन सकी| मन् का क्या है वो फीर से वहीं जा पहुंचा जहाँ की बात सुनी पर
समय ने हाथ की कोमलता छीन ली है | आप क्या लिखते हो सर जी. . . . . . . बीते वक़्त की यादों के तालाब में आप की काविता ने तरंग पैदा कर दीया जी . . . . आप ऐसे ही लिखते रहो जी
' उड़ते-भागते अक्षर स्लेट पर ऐसे चिपके कि फ़िर न हिल सके। फ़िर स्लेट बदल गयी'
बहुत सुंदर कविता है .
बहुत अच्छा आलोक , टाइप करना मजबूरी है वरना इस कविता के बाद लिख के टिपण्णी करने की इच्छा हो रही है ,शायद फ़िर से तितली को उड़ा पाऊँ ......
Atyant hriday asparshi rachana, jo katai hi kisi ke snehil man ko jhakjhor sakti hai, aur jhakjhor diya apne alokjee,
Bachpan ki bhuli bisaree yadon ko taja karane ke liye dhanyad.
shyamal
क्या खूब लिखा है आलोक जी ने ... अब हमारे विचारो में वो स्वच्छंदता ना रही .. ज़िन्दगी के रुल लाइन में फंस के रह गई .. अविस्मरनीय कविता लिखा है आपने ... कोटि कोटि धन्यवाद् ऐसी उन्मुक्त कविता के लिए ....
सप्रेम
आलोक रंजन
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