अपने मैं होने का
दंभ क्यों
कैसे
जहन पर
छा जाता है
सोते जागते
हँसते गाते
हर वक़्त बस
मैं ,मैं
का राग
यह दिल
अलापता है
किंतु मैं
सिर्फ़ ख़ुद के
होने से कहाँ
पूर्ण हो
पाता है
तुम शब्द का
इस में
शामिल होना ही
इसको
सार्थक बना
पाता है....
जैसे रात का
अस्तित्व भी
चाँद,तारों
जुगनू से
जगमगाता है
पर यदि सोचे चाँद
ख़ुद को अहम
अपनी ही धुन में
खोया सा
घुलते घुलते
बस सिर्फ़ एक
लकीर सा
रह जाता है
तब चाँद
कितना अकेला
और बेबस सा
हो जाता है !!
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
पर यदि सोचे चाँद
ख़ुद को अहम
अपनी ही धुन में
खोया सा
घुलते घुलते
बस सिर्फ़ एक
लकीर सा
रह जाता है
बहुत खूब रंजूजी!
अपने में बंद अहम कितना छोटा पड़ जाता है
वाह रंजू जी.. वाह
किंतु मैं
सिर्फ़ ख़ुद के
होने से कहाँ
पूर्ण हो
पाता है
तुम शब्द का
इस में
शामिल होना ही
इसको
सार्थक बना
पाता है....
बहुत सार्थक चित्रण किया,
शब्दों के कैनवास में सही रंग भरे-मैं,तुम के साथ का .
सरल और सहज भाव से अहम का बहुत खूबसूरत रूप दिखा दिया.
रंजना जी,
सुन्दर और सामयिक कविता रच दी आपने.
अहम का वहम पाल कर कई सूरमा गये
वक्त के साथ चन्द धुंधले निंशा रह गये
baut badiya anju jee
रंजू जी बहुत अच्छी लगी आपकी कविता लेकिन साथ ही कहना भी चाहूंगी कि चाँद अकेला होता ही तभी टू उसके प्रति आकर्षण होता है और हर कोई उसी की तरह चमकना चाहता है |yah to chaand ke liye lekin sach me aham insaan ko apani pahchaan hi nahi hone deta........सीमा सचदेव
सच मैं में तुम का मिलना ही उसको सार्थक बनता है,बहुत सुंदर कविता.
किंतु मैं
सिर्फ़ ख़ुद के
होने से कहाँ
पूर्ण हो
पाता है
तुम शब्द का
इस में
शामिल होना ही
इसको
सार्थक बना
पाता है..
बहुत खूब,मैं का तुम में समावेषित होना एक अवश्यम्भावी प्रक्रिया है,इस बात को इतने सहज रूप में उकेरना अच्छा लगा.बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
रोमांस से अलग हटकर लिखी गई आपकी यह कविता , आपकी लव गुरु वाली छवि को तोड़ती है जो कि एक अच्छी बात कही जा सकती है।
बहुत अच्छे रंजना जी,
बड़े साधारण तरीके से इतनी गहरी बात कह दी।
बहुत खूब रंजू जी अहम् को आइना दिखाती हुई अच्छी रचना है,
पूजा अनिल
रंजना जी,
सुंदर रचना है | बधाई |
अवनीश
अहम् पर लिखना मेरा प्रिय विषय रहा है ,आपकी कविता को पढ़ना अच्छा लगा .....
विषय से हटकर चिंतनशील तत्वों पर आपका लिखना अच्छा लगा… मगर मुझे कुछ कमियाँ लगी…चूँकि यह विषय बहुत व्यापक है… थोड़ा और गहरा हो सकता था…।
अहम् के आते सब ख़त्म!
हम का होना ही सार्थक हैं,
बहुत सही लिखा.......
खोया सा
घुलते घुलते
बस सिर्फ़ एक
लकीर सा
रह जाता है
तब चाँद
कितना अकेला
और बेबस सा
हो जाता है !!
रंजना जी अच्छा विश्लेषण।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अच्छी रचना है| आपने मैं और तुम वाली जो बात कही उसे और आगे बढाकर हम तक ले जाती तो भाव पूर्ण होता|
गिरीश जोशी
तुम शब्द का
इस में
शामिल होना ही
इसको
सार्थक बना
पाता है....
बहुत सुंदर कविता.
अच्छी रचना है
बढ़िया है.
बहुत सुंदर रंजू जी कितने सरल शब्दों में जीवन का दर्शन समझा दिया। वाकई 'मैं' से 'हम' तक आने में सारी उम्र बीत जाती है ।
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