मन्त्रीजी स्वर्ग सिधारे
( नरक के बदले )
शायद चित्रगुप्त की भूल
या खिलाया
कम्प्यूटर ने गुल
नकली दया दिखाई थी
वो गई असल के खाते में
रिश्वत खाई वो पैसा गया
दान के एकाउन्ट में
हाय ! कर्मों का लेखा आया
कुछ ऐसे स्वरुप में
घपला ये हुआ कि
मन्त्री की छवि उभरी
सन्त के रूप में
अंधे के हाथ बटेर !
देखा, स्वर्ग में खुले आम
सोमरस बांटती सुन्दरी का नर्तन
वे कह न पाये इसे
पाश्चात्य संस्कृति का वर्तन
गंधर्व, किन्नर सब आये और गये
नहीं लगे अपने से
साकी और जाम
सब लगे सपने से
इच्छा हुई अपना झन्डा गाड़ने की
हूक हुई अब उन्हे भाषण झाड़ने की
अमीर ! गरीब !
पर शब्द हुये विलिन
न कोई अमीर था न कोई गरीब
हिम्मत कर बोले मन्दिर… मस्जिद…
पर सब अर्थहीन
जिबान बन्द रही
बैठे रहे मन मार
मानो काया पर हो रहा
छुरे भालों का प्रहार
अब लाइसेन्स, रिश्वत, घोटाला
सब गया
मानो गरम गरम तेल की
कड़ाही में शरीर झुलस गया
दो यमदूत और चित्रगुप्त अचानक दिखे
मन्त्रीजी उन पर ही बरस पड़े
“ऐसा होता है क्या स्वर्ग ?
नरक से भी बदतर !”
चित्रगुप्त ने जवाब दिया
हँसते हुये -
“कैसा स्वर्ग मत्रींजी ! याद कीजिये आपने
देश के गद्दारो के साथ
पकाई खिचड़ी
आपको तो कुम्भीपाक में पकाया जायगा
आपने जनता से किये थे झूठे वादे
दिये थे आश्वासन
बदले मे यह नरक - स्वर्ग से उल्टा
स्वर्ग का शिर्षासन है
और ये मेनका-उर्वशी की छवियां
स्वर्ग का आश्वासन है ।
- हरिहर झा
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
इच्छा हुई अपना झन्डा गाड़ने की
हूक हुई अब उन्हे भाषण झाड़ने की
अमीर ! गरीब !
पर शब्द हुये विलिन
न कोई अमीर था न कोई गरीब
हिम्मत कर बोले मन्दिर… मस्जिद…
पर सब अर्थहीन
बहुत अच्छा व्यंग किया है आप ने!
अच्छा व्यंग्य किया है व्यवस्था पर.
अंधे के हाथ बटेर !
देखा, स्वर्ग में खुले आम
सोमरस बांटती सुन्दरी का नर्तन
वे कह न पाये इसे
पाश्चात्य संस्कृति का वर्तन
एक अच्छा व्यंग किया है आपने अपनी इस रचना में ..अच्छा लिखा है हरिहर जी !!
हा हा हा.. बहुत बढिया..
जैसे को तैसा -
बदले मे यह नरक - स्वर्ग से उल्टा
स्वर्ग का शिर्षासन है
और ये मेनका-उर्वशी की छवियां
स्वर्ग का आश्वासन है ।
अच्छा व्यग्य है श्रीमान..
बहुत बहुत बधाई
एक मजेदार व्यंग है |
अच्छा लिखा है |
अवनीश तिवारी
बहुत खूब,बहुत ही बेहतरीन व्यंग,मजा आ गया.
आलोक सिंह "साहिल"
:):):);)बहुत खूब बधाई
वाह!!!!!
तगड़ा व्यंग्य है। इस रचना की खासियत यह है कि व्यंग्य क्लाईमेक्स में जाकर अपना रंग दिखाता है। मेरे अनुसार व्यंग्य उसी को कहते हैं जो आपको जड़ से उठाकर पटक दे और आपको पता हीं न चले कि वार किधर से हुआ था। इस मामले में आप सफल हुए हैं।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
आपकी व्यंग्यात्मक कविता बहुत अच्छी लगी
क्या खूब व्यंग्य किया है हरिहर जी !!! अंत की पंक्तियों से शीर्षक सार्थक व्यंग्य करता है , बहुत ही अच्छा लिखा है , बधाई
^^पूजा अनिल
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