ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो
भीगी हुए मंज़र पर ठहरा था कोई साहिल
आज भी उस की याद में तुम बरसती क्यों हो?
अनजान सी लगती है ,साथ गुजरी हुई राहें
अठखेलियाँ वो अल्हड़पन की देती है अब भी सदायें
देख के अजनबी सा फिर मुझको....
यूँ हाथो से फिसलती क्यों हो..
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो
बनाए थे जो रेत के धरोंदे
शायद वो थे बचपन के धोखे
वही बन के ख्वाब रंगो का
तुम आँखो से छलकती क्यों हो
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो
सलोना सा रूप तेरा कुछ दिखता है ऐसा
राधा और श्याम का संग हो जैसा
नज़र से बचने के लिए लगा के दिठौना
तुम नित नये शिंगार करती क्यूँ हो
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो !!
साथ हैं बस यादे कुछ बीते पलों की
कभी संग चलती कभी कहीं रुकती
यूँ बेवजह जीने की वजह बनती क्यूँ हो
ज़िंदगी तुम मेरे साथ यूँ चलती क्यूँ हो
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो !!
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो
भीगी हुए मंज़र पर ठहरा था कोई साहिल
आज भी उस की याद में तुम बरसती क्यों हो?
अनजान सी लगती है ,साथ गुजरी हुई राहें
अठखेलियाँ वो अल्हड़पन की देती है अब भी सदायें
देख के अजनबी सा फिर मुझको....
यूँ हाथो से फिसलती क्यों हो..
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो
बनाए थे जो रेत के धरोंदे
शायद वो थे बचपन के धोखे
वही बन के ख्वाब रंगो का
तुम आँखो से छलकती क्यों हो
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो
सलोना सा रूप तेरा कुछ दिखता है ऐसा
राधा और श्याम का संग हो जैसा
नज़र से बचने के लिए लगा के दिठौना
तुम नित नये शिंगार करती क्यूँ हो
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो !!
साथ हैं बस यादे कुछ बीते पलों की
कभी संग चलती कभी कहीं रुकती
यूँ बेवजह जीने की वजह बनती क्यूँ हो
ज़िंदगी तुम मेरे साथ यूँ चलती क्यूँ हो
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो !!
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो !!
वाह क्या बात कही है आपने ,शायद बदलाव का नाम ही जीवन है ,नही तो कोई गति ही न हो |और अपना ही अक्स देख डरती क्यो हो ,सच कहा आपने ,कभी पीछे मुड़कर देखे तो कई कड़वे सच्च हमे डरा देते है |अच्छी रचना ......सीमा सचदेव
बनाए थे जो रेत के धरोंदे
शायद वो थे बचपन के धोखे
वही बन के ख्वाब रंगो का
तुम आँखो से छलकती क्यों हो
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो
kya baat kah dee wah
Anil
बहुत खूब!!! जीओ!!!!!!!
Bahut Badhiya . Jindagi se sawal karane ki himmat dikahee Aapne. lekin jaise ki seemaji ne kaha badlaw ka nam hi jindagi hai. Rahi darane ki bat so apni kee huee galtiyon se hi dar lagta hai. Abi safar me hoon isee liye roman me lokh rahi hoon.
रंजना जी, सवाल आपका सही है...ज़िन्दगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो??
हर पल बदलती है ज़िन्दगी....
पूरी कविता अच्छी है और सभी के जीवन के करीब है परन्तु अंत में "क्यूँ" और "क्यों" का एक साथ प्रयोग अखर रहा है।
कोई एक ही शब्द का प्रयोग होता तो शायद ठीक था।
धन्यवाद
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो
नया चेहरा पेश किया ज़िंदगी का ...रंजना जी ... ज़िंदगी पर जितना लिखो कम है .. बहुत खूब ... सुरिन्दर रत्ती
रंजू जी, आप की रचना बहुत अच्छी है , विशेषतः यह पंक्ति
बनाये थे जो रेत के .................... ... तुम आंखों से chalakti क्यों हो
सुंदर कविता!!
जिंदगी से सवाल करती हुई, हर एक ज़िन्दगी के करीब है आपकी कविता, बहुत खूब रंजू जी , बधाई
पूजा अनिल
ज़िन्दगी-जाने कितने रूप,कितने नाम!
हारा,थका,बेबस मन यही तो पूछता है.....
साथ हैं बस यादे कुछ बीते पलों की
कभी संग चलती कभी कहीं रुकती
यूँ बेवजह जीने की वजह बनती क्यूँ हो
ज़िंदगी तुम मेरे साथ यूँ चलती क्यूँ हो
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो !!.........
बहुत सहज और भावभीने.
सुंदर भाव है | अच्छी लगी |
कहीं कहीं वर्तनी ठीक नही | उसे सुधार ले |
जैसे - धरोंदे , शिंगार
--
अवनीश तिवारी
आपकी इस कृति में जिन्दगी का अनूठा वर्णन है।
मुझे लगता है कि आपकी ये कविता जिन्दगी के विभिन्न पहलू को दर्शाती है।
मेरे आँफिस में सभी ने इसे पसन्द किया।
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विनीत कुमार गुप्ता
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो,एक अच्छी कविता हे,रंजु जी यह जीवन के अलग अलग रंग हे
यह एक ऎसा सफ़र हे जहां हमे हर कदम पर नये ,पुराने साथी मिलते हे, ओर हम मजिंल की ओर तो जा रहे हे, लेकिन कई बार जिन्दगी अजीब अजीब राहॊ पर ले जाती हे,कभी धुप, कभी छांव,कभी दुख,कभी सुख, इन सब से समझोता कर लो तो यही सफ़र सुहावना लगता हे, बिरोध करो तो यही सफ़र बोझ लगता हे
रंजू जी
मुझे आपकी यह रचना बहुत पसंद ई-ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो
भीगी हुए मंज़र पर ठहरा था कोई साहिल
आज भी उस की याद में तुम बरसती क्यों हो?
अति सुंदर. बधाई
:) बधाई रंजना जी
Mrs. Asha Joglekar जी क्षमा चाहूंगी आपकी बात को काटने का दुस्साहस कर रही हू ,आपने सही कहा की अपनी गलतियों से डर लगता है ,लेकिन केवल गलतियों से नही ,कुछ अनहोनी घटनाओं से भी , जिसने कभी सबकुछ चीन लिया हो ,टू स्वाभाविक रूप से मन मी डर या फ़िर वहम समां ही जाता है और वो अक्स डरावना लगता है | कुछ ग़लत कहा हो तो क्षमा प्रार्थी हू |....सीमा सचदेव
यही तो पूछा था मैंने भी अक्सर,
आज दुहराकर मुझे रुला दिया......
क्यूँ ये मर्म समेट लिया
बनाए थे जो रेत के धरोंदे
शायद वो थे बचपन के धोखे
वही बन के ख्वाब रंगो का
तुम आँखो से छलकती क्यों हो
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
अपने ही अक्स को देख कर डरती क्यों हो
रंजू जी,बहुत दिनों बाद मैं आपकी कविता पढ़ रहा हूँ,दिन ढेर सारे बीत गए पर अंदाज वही अपना जन पहचाना.दिल को बेचैन करती और बेफाखता ख़ुद से पूछती पंक्तियाँ- तुम रोज बदलते क्यों हो? बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
बहुत ही परिपक्व रचना है
रंजू जी!
आज कई दिनों के बाद आप अपने रंग में वापस लौट आई हैं। अच्छा लगा पढकर जिंदगी से कई सवाल:)
आपने इस कविता में ढेर सारी बातें डाली हैं और सभी बातों पर अपने विचार भी रखे हैं। इस नाते रचना सफल है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो
सुंदर रचना.........
ज़िंदगी तुम रोज़ बदलती क्यों हो.........
हम हररोज मथते है जिंदगी को, कभी छाछ तो कभी मख्खन पाते है| रंजू जी ने भी जिंदगी के इस मंथन से प्राप्त छाछ, मख्खन, ज़हर, अमृत पाए है|
मगर एक उदास भाव रह रह कर जाने क्यों इस रचना से बाहर आ कर मन को क्षुब्ध करता रहा| कलाकार भी आखिर लगता है कि हाड़ चाम का बना है और संवेदनाओ ने कही उन्हें भी जन्जोड़ कर रख दिया है| रचना का दर्द स्पर्श कर गया| रंजू जी, आप का प्रयत्न सार्थक है|
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