स्टेशन पर
एक हड़बड़ाई हुई माँ
ढूंढ़ रही है अपने बच्चे को
जो उससे आगे दौड़ आया था
कहकर कि
पेड़ के नीचे बैठा मिलूंगा मैं
और कोई पेड़ नहीं है वहाँ,
ठूंठ हैं केवल।
कोई नहीं बैठता उनके नीचे
कोई नहीं बैठा आज भी।
स्टेशन पर
एक भीगे हुए चेहरे वाली औरत
खोज रही है अपने पति को
जो फेंक आया था
खाने की थाली,
जो टूटी हुई थी पहले से ही,
कह आया था
कि नहीं देखेगा मुड़कर,
वह भी कहीं गायब हो गया है
आकाश-पाताल में
बिना रेलगाड़ी के आए
और छाती पीट रही है वह औरत
जिसे तमीज़ नहीं है
कपड़े पहनने की।
एक पिता ढूंढ़ रहा है
अपनी बेटी
जिसे कमाना था
न जाने कैसा नाम!
जिसे आज़ाद होना था
न जाने किससे!
जो चली गई एक शहर
जहाँ बिकते हैं सपने।
और रो रहा है बाप,
हँस रहे हैं लोग।
वाह!
तमाशा हो रहा है।
स्टेशन पर
खेल रहे हैं बच्चे लुका-छुपी
और चाय चढ़ाता एक बच्चा
ढूंढ़ रहा है
अपनी उम्र,
अपने जन्म का दिन,
जिसे मार डालना चाहता है वो।
स्टेशन पर
एक पागल भिखारी
टोह ले रहा है
अपने खोए हुए दिमाग की;
एक हारा हुआ सा बूढ़ा
खोज रहा है
अपना चोरी गया
सपनों का सूटकेस
जिसे उड़ा ले गई है
कुलाँचे भरती हुई उसकी जवानी।
कितनी चीजें
कितने लोग
यूं ही खो जाते हैं ना
स्टेशन पर!
ऐसे ही एक दिन
उस भीड़ भरे स्टेशन पर
तुम पानी लेने गई थी।
कल मैं भी
हर स्टेशन पर
आँखें फाड़-फाड़कर
जाने क्या ढूंढ़ता रहा
दिल्ली से अहमदाबाद तक।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
33 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत खूब गौरव जी
स्टेशन का भली भांति चित्रण आपने लोगो की आम ज़िंदगी से बखूबी किया है
अच्छी रचना
sajeev chitran !!!iss rachna par agar lalu ji( rail mantri)gaur karein..to unko chahiye ki inn samsyaon ka bhi nirakarn karein.
स्टेशन पर
खेल रहे हैं बच्चे लुका-छुपी
और चाय चढ़ाता एक बच्चा
ढूंढ़ रहा है
अपनी उम्र,
अपने जन्म का दिन,
जिसे मार डालना चाहता है वो।
बहुत मार्मिक रचना ,बहुत खूब ,बधाई
स्टेशन के माध्यम से आप अपना संदेश देने में सफल हैं।
एक पिता ढूंढ़ रहा है
अपनी बेटी
जिसे कमाना था
न जाने कैसा नाम!
जिसे आज़ाद होना था
न जाने किससे!
जो चली गई एक शहर
जहाँ बिकते हैं सपने।
और रो रहा है बाप,
हँस रहे हैं लोग।
वाह!
तमाशा हो रहा है।
मार्मिक है, जीवन की सच्चाई है। अंत बहुत अच्छा था।वैसी ही रचना जिसकी हमेशा उम्मीद रहती है।
BOLE TO MAST
LAGE RAHO GAURAV BHAI
मुबारक हो गौरव जी आपकी कवित मे स्टेशन का जो चित्रण उससे एसा लगत है मानो हुम प्लेट्फ़ार्म पर खडे हों और आसपास देख रहे हों बहुत हे सजीव अभिव्यक्ती है
एक धारावाहिक आता था बहुत पहले दूरदर्शन पर अज़ीज़ मिर्जा निर्देशित "इंतज़ार" उसका शीर्षक गीत याद आ गया, " भूखे को रोटी का, बेकार को रोजी का इंतज़ार है...." यह धारावाहिक भी रेलवे स्टेशन पर बिखरी जिंदगियों को दिखता था, तुम्हारी कविता में उसके स्नोप्सिस नज़र आये, बहुत सुंदर चित्रण किया है तुमने, शयाद यह धारावाहिक तुमने नहीं देखा होगा, पर मुझे उसकी याद दिलाने का धन्येवाद .....
कविता लिखना सीखना हो तो गौरव को पढना आरंभ कर देना चाहिये। गौरव की अपार क्षमताओं पर मुझे कभी भी संदेह नहीं था किंतु जब जब इस तरह की कवितायें पढता हूँ तो गर्वित हो उठता हूँ कि मैं उस "हिन्द युग्म" का हिस्सा हूँ जिसमें "गौरव" की रचनायें भी प्रकाशित होती हैं।
कविता आरंभ से अपने अनेक दृश्यबंधों में बहुत कुछ कहती है लेकिन अंत होते होते कविता बिलकुल चुप हो जाती है और एसा प्रभाव देती है जैसे मोरपंख से किसी नें हृदय छुवा हो।
इस तरह की कवितायें अपने प्रकाशन के निर्धारित दिन किसी भी पोस्ट से किसी भी कारण नीचे भेज दी जायें तो यह ठीक नहीं..खास कर उन दिनों जब युग्म पर स्तरीय रचनाओं को खोजे जाने की स्थिति आ गयी हो। कृपया नियंत्रक मेरा विरोध दर्ज करें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
हमारा जीवन भी टू एक स्टेशन ही है जिसमे हम सब सदैव कुछ न कुछ ढूँढते ही रहते है और जिंदगी भर का सफर तय करते है | एक अच्छी रचना के लिए बधाई .......सीमा सचदेव
अच्छी रचना है |
चित्रण अच्छा है |
लेकिन जौरव भाई किसका इन्तजार कर रहे हो ?
दिल्ली से अहमदाबाद तक ?
अवनीश तिवारी
कितनी चीजें
कितने लोग
यूं ही खो जाते हैं ना
स्टेशन पर!
सच!
असाधारण सच!
बाकी क्या कहूँ। मित्रों ने कह डाला है। बस ,कभी अच्छा लिखने का गुर सीखा देना, आभारी रहूँगा।
-विश्व दीपक ’तनह’
गौरव जी यूँ तो पूरी की पूरी कविता बहुत ही मार्मिक है और बहुत ही अलग टाइप की, उसके लिए आप को बधाई, नीचे लिखी लाइनें मुझे खास छू गयीं।
खोज रहा है
अपना चोरी गया
सपनों का सूटकेस
जिसे उड़ा ले गई है
कुलाँचे भरती हुई उसकी जवानी।
बहुत ही सुन्दरता के साथ दृश्य पैदा किये हैं एकदम जीवंत. बधाई हो, अच्छा लगा आपकी लेखनी की धार पढ़कर:
कितनी चीजें
कितने लोग
यूं ही खो जाते हैं ना
स्टेशन पर!
बढ़िया कविता. एक्दम जीवन की सच्चाई का जीवंत वर्णन करती हुई।
अच्छा बताईये जिसे ढूंढ रहे तो वो अहमदाबाद में जाकर भी मिला कि नहीं?
और चाय चढ़ाता एक बच्चा
ढूंढ़ रहा है
अपनी उम्र,
अपने जन्म का दिन,
जिसे मार डालना चाहता है वो।"
बहुत ही मार्मिक और सजीव चित्रण ...
jeevant darshya...bas ek sujhav...itna obvious agar na ho shuru me ki station ki bat hai to?
गौरव जी!
जल्दी ही मुझे घर जाना है अब जब भी स्टेशन जाऊँगा हमेशा एक डर लगेगा ....... खो न जाऊँ कहीं।
इतनी टीस कहाँ से लाते है भाई।
बहुत ही सुंदर कविता है(कहने की ज़रूरत नहीं)
Gaurav ji, i am a silent user and usually reads this blog. I likes what you writes. You have a great depth in your creations.
But this time i really found some unusual things in your above poem and some more unusual comments from the readers. This makes me to put my view also.
This time i have some reservations to put myself in your team as others. I am some what de-motivated on seeing the pictorial representation of a Railway Station through your narration. However, these all my opinion only and nothing resembles to the quality of your work.
I am not able to understand why a person always try to see the sad points in others life in order to get some relief from his/her inner sorrow? Why can't he able to see the smiling faces around him and try to cheer up?
Taking your poem as an example, a person who has a remembrance of his loved one, which once with him, as narrated:
ऐसे ही एक दिन
उस भीड़ भरे स्टेशन पर
तुम पानी लेने गई थी।
कल मैं भी
हर स्टेशन पर
आँखें फाड़-फाड़कर
जाने क्या ढूंढ़ता रहा
दिल्ली से अहमदाबाद तक।
is trying to see and found that every one is full of sorrows and every one's life is ruined here. Moreover, here it does not depicts that the person is no more as going for something and miss the train does not ever mean that the person can never come back.
Secondly, from the beginning it seems that the narrator is only interested in seeing the view that he likes and his justification are controversial here.
एक हड़बड़ाई हुई माँ
ढूंढ़ रही है अपने बच्चे को
जो उससे आगे दौड़ आया था
कहकर कि
पेड़ के नीचे बैठा मिलूंगा मैं
और कोई पेड़ नहीं है वहाँ,
ठूंठ हैं केवल।
कोई नहीं बैठता उनके नीचे
कोई नहीं बैठा आज भी।
On the same place, many mothers are meeting their children who come back after a long waiting time for them. They are really find themselfs on a happy cloud with full of tears which they don't want to stop. Just simply try to find a missed one on a previously promised place is not a mountain of sorrow that the narrator feels. Also,
स्टेशन पर
एक भीगे हुए चेहरे वाली औरत
खोज रही है अपने पति को
जो फेंक आया था
खाने की थाली,
जो टूटी हुई थी पहले से ही,
कह आया था
कि नहीं देखेगा मुड़कर,
वह भी कहीं गायब हो गया है
आकाश-पाताल में
बिना रेलगाड़ी के आए
और छाती पीट रही है वह औरत
जिसे तमीज़ नहीं है
कपड़े पहनने की।
How can the narrator know the inner happenings of their life (throwing a broken food plate before he comes, and the statement given by the man to her wife "कि नहीं देखेगा मुड़कर") as he is simply travelling like other passengers?
एक पिता ढूंढ़ रहा है
अपनी बेटी
जिसे कमाना था
न जाने कैसा नाम!
जिसे आज़ाद होना था
न जाने किससे!
जो चली गई एक शहर
जहाँ बिकते हैं सपने।
और रो रहा है बाप,
हँस रहे हैं लोग।
वाह!
तमाशा हो रहा है।
Here also i feel that the coin is having the hidden side. The father is weeping as now her daughter thinks that she grows enough and can go far from him to give a support to her family. Today he prouds to be having a daughter like her as she is behaving more than a responsible son. She, on such an age, is going to starts a new chapter of her life with an aim of earning the dreams for her loved ones.
He is weeping as he loves her lot and on thinking the known/unknown problems that his child is going to face, his heart comes to stand still. He is weeping between the peoples in which some are praising her daughter, while some are laughing on his bold step to send her.
Also, she (her daughter) is leaving her family not because she do not really wants to live with them, but because the situation forces him and she wanted to be a helping hand of her father. She is leaving the place and kept the portraits of many dreams that are now lie on her.
और चाय चढ़ाता एक बच्चा
ढूंढ़ रहा है
अपनी उम्र,
अपने जन्म का दिन,
जिसे मार डालना चाहता है वो।
In the same way, here also the child is trying to find the probable customers to sell the tea, which is his only medium to earn money and fulfill his requirements. The narrator should feel proud on this child as instead of opting the beggary, he choose to work and set up his little shop or help his elder.
I am also surprised to see the readers comment. Some are listed below:
1. स्टेशन का भली भांति चित्रण आपने लोगो की आम ज़िंदगी से बखूबी किया है
2. sajeev chitran !!!iss rachna par agar lalu ji( rail mantri)gaur karein..to unko chahiye ki inn samsyaon ka bhi nirakarn karein.
3. एक्दम जीवन की सच्चाई का जीवंत वर्णन करती हुई।
My personal view: This is not "all" the "station" is having. And this is not "all" the people's life, emotions are on the "station". This is not at all a "sajeev chitran". This is just the sadness of the narrator eyes which force him to see only the sad happenings.
Gaurav ji, I praise you for the below lines:
स्टेशन पर
एक पागल भिखारी
टोह ले रहा है
अपने खोए हुए दिमाग की;
एक हारा हुआ सा बूढ़ा
खोज रहा है
अपना चोरी गया
सपनों का सूटकेस
जिसे उड़ा ले गई है
कुलाँचे भरती हुई उसकी जवानी।
कितनी चीजें
कितने लोग
यूं ही खो जाते हैं ना
स्टेशन पर!
Finally, i want to add is that all above is just my personal opinion only on the stuff i found here, nothing is pin pointed to any individual. Please don't take the things personally. And Gaurav ji, i am still a fan of your creativity and this HindYugm blog.
Thanks & Regards,
Prabhat
प्रभात जी, विचारशील विस्तृत टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
आप हिन्द युग्म के नियमित पाठक हैं, यह जानकर हर्ष हुआ। आपसे निवेदन है कि इसी तरह अपने विचार भी रखते रहा करें।
आपको लगता है कि सब बातों का एक सुखद पक्ष भी हो सकता था तो मैंने वो क्यों नहीं लिखा।
हाँ, बिल्कुल हो सकता है और होता भी है। लेकिन मैंने यह कहीं नहीं कहा कि सिर्फ़ यही सच है। आप यह न समझिए कि कवि अपने व्यक्तिगत दुख को दुनिया पर थोपना चाहता है।
क्या आप के साथ ऐसा नहीं होता कि कुछ खुशी हो, दुख हो या कुछ खो जाए तो पूरी दुनिया उसी रंग की दिखने लगती है?
कवि ने भी कुछ खो दिया था, इसलिए स्टेशन की हर बात में उसे वही दिख रहा है और जो लिखा है, वह होता भी है। उसमें कहीं झूठ नहीं है।
कला का कोई भी रूप सार्वभौमिक सत्य नहीं होता, केवल एक व्यक्ति का दृष्टिकोण होता है। मैं यदि सुखद पक्ष लिखता, तब भी आप यह सवाल उठाते। इस कविता को स्टेशन की कुछ घटनाओं पर मेरा नज़रिया ही समझिए।
मैं नहीं कहता कि यह सम्पूर्ण है। यह केवल मेरा दृष्टिकोण है।
प्रभात जी को सलाम .... बहुत अर्थपूर्ण विवेचना....
बस स्टेशन हो , रेलवे स्टेशन हो या हवाई अड्डा हो.....
निराशा या उदासी ही नहीं... आशा और खुशी का माहौल भी होता है....
कवि का उत्तरदायित्त्ब हो जाता है.... निराशा और उदासी के पलों के साथ.... किसी के मिलने की आस.... खोए सपनों के पूरा होने का भाव दिखाए
चाय चढ़ाता बच्चा....
नन्हें हाथों से गर्म चाय के कप थमाता
अपनी गुनगुनी मुस्कान से सबका मन भी मोह सकता था....
अंतिम पंक्ति ने कविता पढ़ने का मज़ा थोड़ा खराब कर दिया
दिल्ली से अहमदाबाद तक.... पूरी कविता छायावाद का भाव देती देती....दिल्ली से अहमदाबाद में अटक गई
इस कविता को पढ़कर ...फारसी का एक गीत याद आ गया..जो मुझे बहुत पसन्द है.....
हिन्दी में कह सकते है.... हवाई अड्डा एक अजीब जगह है.....जो आँसू देता है.....
खुशी के भी और गम के भी
कुछ लोग बिछुड़ते हैं ...कुछ लोग लम्बे इंतज़ार के बाद मिलते हैं...दोनो ही पल में आँसू मिलते हैं...
स्टेशन कोई भी हो.... चाहे जीवन के पड़ाव....
सुख और दुख.... आशा और निराशा दोनों ही होते हैं....
वैसे, गौरव कवि के रूप में अपना दृष्टिकोण दे रहे हैं कविता में..
2-3 साल पहले की मेरी कविताएँ अधिकतर निराशा से भरी थी.... मन के किसी कोने में निराश का भाव कविता को जन्म देता था.... आज स्थिति यह है कि.... उस भाव की कविता को मै जन्म लेने नहीं देती.... गद्य रूप में जीवन के सकारात्मक रूप को उभारने की कोशिश मे हूँ
वियोगी होगा पहला कवि ...दर्द और खुशी मानव जीवन के दो पहलू हैं और लिखने वाला कवि दिल इन्ही दो भावों पर ज्यादातर लिखता है ...दर्द निराशा से भरी कविता शायद मानव दिल के उस कोने को सकून देती हैं जहाँ उसको लगता है कि कोई उस के दर्द को शब्द दे रहा है और उसकी बात समझ रहा है ...शायद तभी ज्यादतर कवि इस विषय पर ज्यादा लिखते हैं मैं प्रभात जी की बात से बहुत हद तक सहमत हूँ ..हर वक्त दर्द का ही वर्णन करना कवि की लिखी हर कविता को एक जैसा ही दिखाता है और आज कल मैं गौरव के लेखन वही एकरूपता देख रही हूँ ..माना की दर्द है ,दुःख हैं पर कौन सा दिल ...कौन सा वयक्ति ... कौन सा देश ...इन सबसे नही जूझ रहा है ... उसका दूसरा पहलू देखे तो बहुत कुछ नया ,सकरात्मक भी हो रहा है ....देश आज यदि कहीं भ्रष्टाचार में डूबा है पर एक और वह बहुत तरक्की भी कर रहा है हर जगह नए निर्माण हो रहे हैं ..नई सोच के साथ नई दिशा भी मिल रही है उस पर भी सोच कर उसके बारे में भी लिखा जा सकता है ..वैसे यह लिखने वाला का अपना दृष्टिकोण है कि वह किस बात को किस रूप में ज्यादा आत्मसत करता है ....:)
प्रभात जी का प्रश्न है कि हर कविता मे दर्द क्यों ? तो मैं पहले तो यह कहना चाहूँगा कि , कविता के कई रस होते है , दर्द उसमे से एक रस है. जरुरी नही है कि हर कविता मे खुशी या आशावाद हो . गम, दर्द और निराशा भी जीवन की सच्चाई है हम इससे दूर नही भाग सकते. एक कवि मे ही वो जस्बा होता है कि वो अपने दर्द को निर्भीक रूप से दुनिया के सामने पेश कर सके. और फिर खुशी मे तो सब साथ देते है , खुशी सबको दिखती भी है . गम और दर्द से तो सब दूर ही भागना चाहते है / गम और दर्द का साथी कौन बनेगा ? वो कहते है न सुख के सब साथी दुःख का भया न कोय. तो दुःख का साथी कवि है जो उस मूक व्यक्ति कि पीडा को सबके सामने लता है जो अपनी बात रखने मे सक्षम नही है.
कविता मे बच्चे कि बात की गई है जो चाय बेचता है . कवि ने उसका दर्द बयां किया है. प्रभातजी का तर्क है कि बच्चा कम से कम भीख तो नही मांग रहा ये बात सोचनी चाहिए. परन्तु ये भी सोचने वाली बात है कि वो बच्चा जो इस नन्ही उम्र मे पढ़ लिख कर आगे कोई बेहतर कम कर सकता है , उसे मज़बूरी मे चाय बेचनी पड़ रही है . ये गंभीर सामाजिक समस्या है जिसको कवि ने बयां किया है. वैसे भी जो बच्चा स्टेशन पर मज़बूरी मे चाय बेचता है , उसका दर्द वही जानता है क्योंकि मेरे एक विद्यार्थी को मैंने देखा है स्टेशन पर चाय बेचते हुए और उसकी मज़बूरी भी समझता हू मैं.
खैर प्रभात जी आपके तर्क बहुत अच्छे थे , परन्तु आपने भी सिक्के का एक पहलू ही देखा है. एक कवि जो दर्द लिखता है वो खुशी पर भी कलम चलता है . कभी निराशावादी होता है तो फिर उसके दिल मेर आशावाद भी जगता है . मधुशाला इस बात का अच्छा उदाहरण है. जिसमे बच्चन जी कभी गम मे डूबे हुए दिखते है तो कभी खुशी से नहा रहे होते है . तो प्रभातजी बात ये है कि कवि की एक कविता से आप कोई निर्णय नही ले सकते. ये तो एक रस था जो गम के काढे मे डूबा हुआ था , देखीयेगा अपनी अगली कविता मी गौरवजी जरुर खुशी की चाशनी मे डूबी हुई कोई कविता लेकर आएँगे , तब ये न कहियेगा की इसमे तो दर्द ही नही है.
आपका : अमित
ज्यादातर कविताओं मे दर्द इसलिए होता है क्योंकि पहली कविता दर्द से ही पैदा हुई थी आदिकवि वाल्मीकि ने क्रोंच पक्षी के जोड़े मे से एक की शिकारी द्वारा हत्या पर उसे - माँ निषाद प्रतिष्ठा............. श्लोक के मध्यम से श्राप दिया था , कविवर सुमित्रा नन्दन पन्त ने भी लिखा है - वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा ज्ञान, निकलकर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान. कवि उदयभानु हंस भी लिखतें हैं- कविता पीड़ा की संतान, छिपा हुआ अभिशाप रूप मे ईश्वर का वरदान....... और भी अनेक ऐसे उदाहरण हैं जो यह सिद्ध प्रमाणित करते हैं की कविता का आधारभूत रिश्ता दर्द से ही है. वैसे हर किसी का इस विषय पर अपना व्यक्तिगत मत हो सकता है.
अरुण मित्तल अद्भुत
कविता मे क्या है इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है कि वह कैसे लिखा गया है । अगर आपको कविता के दर्द और टीस को देखकर आशा और खुशी की कमी महसूस हो रही है तो यह भी कवि की सफ़लता है , अगर बाढ़ मे फ़ँसे आदमी को सूखी जमीन की याद आने लगे तो यह बाढ़ की सफ़लता है , सूखे में जब तक आपको पानी की एक बूँद की कीमत पता चल जाए तो यह सूखे की सफ़लता है । यह भी तो देखिये कि कवि दर्द को ही प्रस्तुत करने मे कितना सफ़ल है । आज का जो माहौल है , उसे सही प्रस्तुत करना भी कवि का काम है। अगर सिर्फ़ हँसते मुस्कुराते चेहरों की बातें ही लिखें तो फ़िर उन हँसते चेहरों के पीछे छिपे दर्द को ढाँकते आदमी की कौन सुनेगा ?
प्रभात शारदा जी आपके द्वारा किया गया प्रश्न सोचने पर मजबूर करता है
जानती हैं क्या होता है हम कभी किसी की खुशी में शामिल हो या न हो किंतु दुःख में अपने आप ही हो जाते है
दुःख सब बाँट लेते है तो ज्यादा
नही लगता
दुःख भरी बातें लिखने से मन में एक अलग शक्ति आती है उससे लड़ने की
, उससे उभरने की
येही वजह है
मैंने अपने मत के अनुसार विचार दिए है
सर्वप्रथम तो प्रभात शारदा को इतना सुंदर विमर्श शुरू करने के लिए धन्यवाद। आपने लिखा है कि आप हिन्द-युग्म को गंभीरता से पढ़ रहे हैं, वो भी काफी समय से। फिर आप इतनी देर में विचार लेकर क्यों आये? मान्यवर आपकी बहुत ज़रूरत है, कृपया आगे भी विचार देना ज़ारी रखें।
अभी लगभग १० दिन पहले मैं अपने दो दोस्तों के साथ इसी मुद्दे पर बहस कर रहा था। एक मित्र सुनील जिन्होंने हिन्दी साहित्य को बहुत अधिक पढ़ा है (समकालीन से लेकर प्राचीन तक) तो दूसरे मित्र गौरव उपाध्याय जो हमारी मार्फ़त प्रेमचंद को थोड़ा-बहुत पढ़े हैं और अब हमलोगों को पढ़ रहे हैं। गौरव उपाध्याय ने आरोप लगाया कि हिन्दी साहित्य में केवल दुःख दर्द है, जबकि उन्होंने अंग्रेज़ी लिटरेचर बहुत पढ़ा है, उसमें ऐसा नहीं है। वहाँ खुशी के शब्द ज्यादा हैं।
हमलोगों ने काफी देर तक बहस की और यही निष्कर्ष निकाल पाये कि चूँकि साहित्य समाज का दर्पण होता है, समय का प्रतिबिम्ब होता है। भारत में ग़म, दुःख, पीड़ा, अपराध आदि चीज़ें ज्यादा हैं, इसलिए हमारे में साहित्य में भी ये ही ज्यादा हैं। कुछ हँसी के दायरे भी हैं। विनोद कुमार शुक्ल के तीनों उपन्यासों (दीवार में एक खिड़की रहती थी, नौकर की कमीज़, खिलेगा तो देखेंगे) में आपको सामान्य ज़िंदगी के रंग मिलेंगे, नो ट्रैज़डी। लेकिन जिस प्रकार खुशियाँ लेशमात्र हैं, उसी प्रकार साहित्य में भी वो कम है। काका के हँसगुल्ले लतीफे तो हैं लेकिन उनका स्थायित्व उतना ही देर का है जितनी देर के लिए हिन्दुस्थान में खुशियाँ टिकती हैं। अंग्रेज़ी साहित्य में भी लगभग यही हालत है। आम भारतीय अमूमन वहाँ का बाज़ारू साहित्य पढ़ता है जिसमें केवल फिक्शन होता है, यहाँ भी ऐसा साहित्य है जिसे बाज़ारू कहा जाता है। कुछ नाम तो हरकोई जानता होगा- केशव पंडित, वेद प्रकाश शर्मा, जेम्स हेडली चेइज़, डार्लिंग, रीमा भारती, ओम प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक आदि।
वैसे साहित्यकार कि यह जिम्मेदारी मानी गई है कि वह उसके बारे में सोचे जिसके बारे में हर कोई नहीं सोचता है। उस दिल में झाँककर देखे जिसमें कोई झाँकना पसंद नहीं करता। हम इतने सकारात्मक नहीं हो सकते हैं कि ४ लोगों के घर जलाये जा रहे हों तो भी हम मात्र इसलिए खुश रहें कि पाँच घरों में से एक घर अभी भी बचा हुआ है, नो प्रॉब्लम।
प्रभात जी,
आप एक बार और सोचिएगा।
डा. रमा द्विवेदी said..
प्रभात जी, सृजन का जन्म पीड़ा से होता है ऐसा न होता तो ऐसा न लिखा गया होता ’जाके पैर न फटी बिवाईं , सो का जाने पीर पराई" दर्द को शब्दों में उतारना आसान नहीं क्योंकि कवि सिर्फ़ इसलिये ही नहीं लिखता कि उसकी तारीफ़ ही हो, बल्कि इसलिए भी लिखता है कि वह उस दर्द को गहनता से महसूस कर रहा है और वह दर्द उसे एक अज़ीब छटपटाहट देता है तब अगर वह उसे जब तक शब्दों में नहीं ढ़ालता चैन नहीं आता । यूं तो ज़िन्दगी सिर्फ़ पाने का ही नाम नहीं है और कई बार इंसान खोता ज्यादा है...एक बात और है दर्द में इन्सान दूसरों से जुड़ता है सुख में इंसान आत्मकेन्द्रित हो जाता है और संवेदना का विकास सीमित हो जाता है,,निश्चित ही जीवन के दो पहलू हैं दुख और सुख और कवि को दोंनो का चित्रण करना चाहिए लेकिन यहां कवि के ऊपर भी निर्भर करता कि वह क्या महसूस करता है...वह स्वान्त: सुखाय ही लिखता है अगर वह परहिताय बन जाती है तभी कविता सार्थक मानी जाती है...गौरव जी अपनी पसन्द लिख रहे हैं इसलिए वे अपनी जगह सही हैं......शायद प्रभात जी को यह भाव पसन्द नहीं वे जीवन का दूसरा पक्ष देखना चाहते हैं वे भी सही हैं....एक साथ दो पक्ष नहीं लिखे जा सकते इसलिए कवि को चाहिए कि एकरसता से बचे...और कविता के अन्य पक्ष को भी अपनी कविता में स्थान दे। गौरव की स्तरीय कविता के लिए और प्रभात जी की सारगर्भित विश्लेषण के लिए बधाई और शुभकामनाएं....
प्रभात जी, नमस्ते ..... यही सवाल कुछ दिन पहले किसीने मुझसे पूछा था लिखनेवाले सिर्फ़ दर्द की ही बात क्यों करते हैं, वह रोमांटिक या हँसी पलों की बात बहुत कम करते हैं, मैंने इस बात को महसूस किया दर्द को... दर्द जो दिल में बस जाता है वह कलम के मध्यम से पन्नों पर आ जाता है और जो उसे जीवन में मिलता है वह दूसरों के साथ बांटता है यह भी सत्य है खुशियों के मौके कम ही मिलते हैं ..... झुकाव ग़मों की तरफ़ ज़यादा है - सुरिन्दर रत्ती - मुम्बई
I have just completed 6th thorough reading of my previous post and yet not able to relate the query "प्रभात जी का प्रश्न है कि हर कविता मे दर्द क्यों ?" with it. However, i agreed on most of the points that other respected readers have posted with respect to this query. I do not want to in the debate that "Whether the first poem was written by a sad mind or a happy one?" As first of all, it is a way of expression which is not a whole-sole property of some highly skilled individuals. It can be expressed and feel by a simple common man also, but the real problem is that nothing was documented. It was a part of life and always be a part of life. And secondly, such queries are endless and can only be put in the category where you will like to put this famous English question: "Whichever comes first...a hen or an egg?".
Also, i don't want that Gaurav ji should do something like "अपनी अगली कविता मी गौरवजी जरुर खुशी की चाशनी मे डूबी हुई कोई कविता लेकर आएँगे" just because of making someone happy. My view is that it is a talent which should be sprouted by its own way.
What i want to point is some what pointed out by reader "रंजू" ji in her post as commented below:
"हर वक्त दर्द का ही वर्णन करना कवि की लिखी हर कविता को एक जैसा ही दिखाता है और आज कल मैं गौरव के लेखन वही एकरूपता देख रही हूँ .."
Secondly, i personally feel some flaws this time which normally does not lies in Gaurav ji's creativity. Again, this is my personal opinion only. Thirdly, i was surprised on some readers comment which depicts that this is the truth which always exist and a complete one. On this third point i stated that "This is just the sadness of the narrator eyes which force him to see only the sad happenings" on which Gaurav ji also commented that "यह केवल मेरा दृष्टिकोण है।". All these things motivated me to post the matter, which i was feeling at that time.
I agreed with the statement given by Gaurav ji as commented below:
"क्या आप के साथ ऐसा नहीं होता कि कुछ खुशी हो, दुख हो या कुछ खो जाए तो पूरी दुनिया उसी रंग की दिखने लगती है?"
But at the same time i also agreed with the feelings posted by reader "मीनाक्षी" ji as commented:
"2-3 साल पहले की मेरी कविताएँ अधिकतर निराशा से भरी थी.... मन के किसी कोने में निराश का भाव कविता को जन्म देता था.... आज स्थिति यह है कि.... उस भाव की कविता को मै जन्म लेने नहीं देती.... गद्य रूप में जीवन के सकारात्मक रूप को उभारने की कोशिश मे हूँ".
and agreed to the fact that "डा. रमा द्विवेदी" said: "एक बात और है दर्द में इन्सान दूसरों से जुड़ता है सुख में इंसान आत्मकेन्द्रित हो जाता है और संवेदना का विकास सीमित हो जाता है".
I am not saying that why you do this or that .... its just a person's own view to see, grasp, feel and react according to his own likes/dislikes, nature and perception as stated by "anju" ji: "दुःख भरी बातें लिखने से मन में एक अलग शक्ति आती है उससे लड़ने की, उससे उभरने की" . As on being sad and try to feel and grasp the same thing from your surroundings will finally deepens your sorrow only.
But i am still waiting for something when someone can experiment his ability to express his views in accordance with the famous song "दुनियाँ में कितना गम, मेरा गम कितना कम है...औरौं का गम देखा तो, मैं अपना गम भूल गया।".
Finally, thanks to all readers you give their valuable time for posting their views on my post.
Thanks & Regards,
Prabhat
यदि आपको एकरूपता की शिकायत है तो उसे दूर करने का प्रयास करूंगा। लेकिन यदि दुख लिखने को आप एकरूपता कहते हैं तो मैं जरा मुश्किल में पड़ जाऊंगा क्योंकि वह एक पक्ष लिखना कहा जा सकता है, एकरूपता नहीं।
फिर तो यह शिकायत अमृता प्रीतम से भी की जानी चाहिए, दुनिया के सब ग़ज़लकारों से भी, हरिशंकर परसाई से भी (वे भी सदा व्यंग्य लिखते रहे, जिसे शायद रंजना जी एकरूपता कहें)...और प्रेमचंद से भी, जिन्होंने दुख ही लिखा है।
जैसा शैलेश जी ने उदाहरण दिया, उसमें यदि पाँच में से एक घर भी जलता है तो मैं तो चारों घरों के उत्सवों के बारे में नहीं लिख पाऊंगा।
और प्रभात जी, औरों के ग़म को अपने दुख से ही तो जोड़ा है यहाँ भी, जो आप चाहते हैं।
फिर से पढ़िएगा- यही सारांश है...दुनिया में कितना ग़म है...
कविता फरमाइश से नहीं पैदा होती। खुशी के गीत भी होते हैं लेकिन कवि को बाध्य तो नहीं कर सकते कि आप खुशी के गीत ही लिखें। कविता की अर्थवत्ता पर ध्यान दें। कविता ने आपको कितना टच किया यह महत्वपूर्ण है। दूसरी बात की कवि कैसे जान गया कि पति ने जो थाली फेंकी थी वह पहले से ही टूटी थी। तो कहते हैं कि 'जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंच गए कवि'। कल्पना का यही विस्तार ही तो उसे महत्वपूर्ण बनाता है।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)