पथिक अकेला हुआ अब मनवा
गहरा हुआ कुछ और जीवन का अंधियारा
चुभे रोम रोम में शूल कुछ ऐसे
पतझर सा यह लगे जग सारा,
ढलती संध्या कुछ याद दिलाती
टसक टीस सी उर में चुभ जाती
दूर कहीं चलती पुरवाई
चिर खुमारी सी दे जाती
जाने कब बरसेगी प्रीत की अमृत धारा
गहरा हुआ कुछ और जीवन का अंधियारा
जब साथ थे निशि दिन दोनों उज्जवल
तब छाया भी साथी थी प्रतिपल
चल पड़ता था पागल मनवा..
बीहड़ कंटीले से भी पथ पर..
हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला
पथिक अकेला हुआ अब मनवा
गहरा हुआ कुछ और जीवन का अंधियारा
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28 कविताप्रेमियों का कहना है :
रंजू जी अच्छी है
हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला
जब साथ थे निशि दिन दोनों उज्जवल
तब छाया भी साथी थी प्रतिपल
चल पड़ता था पागल मनवा..
बीहड़ कंटीले से भी पथ पर..
हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला
पथिक अकेला हुआ अब मनवा
गहरा हुआ कुछ और जीवन का अंधियारा
अच्छी लगी पंक्तियाँ | जब जीवन मी अँधेरा हो टू अपनी परछाई भी साथ छोड़ जाती है |सुंदर भाव .......सीमा सचदेव
जीवन पथ पर अकेले पथिक के दर्द का सुन्दर चित्रण किया है आपने अपनी रचना में... बधाई
ढलती संध्या कुछ याद दिलाती
टसक टीस सी उर में चुभ जाती
जब साथ थे निशि दिन दोनों उज्जवल
तब छाया भी साथी थी प्रतिपल
चल पड़ता था पागल मनवा..
बीहड़ कंटीले से भी पथ पर..
"हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला
पथिक अकेला हुआ अब मनवा
गहरा हुआ कुछ और जीवन का अंधियारा"
जीवन के उतार-चढाव से गुजरती आपकी रचना फिर एक बार सहयात्री की परछाई में चलना चाहती है ...
बहुत कसक है आपकी लेखनी में...
ढलती संध्या कुछ याद दिलाती
टसक टीस सी उर में चुभ जाती
दूर कहीं चलती पुरवाई
चिर खुमारी सी दे जाती
रंजूजी बहुत अच्छी लगी कविता
जब साथ थे निशि दिन दोनों उज्जवल
तब छाया भी साथी थी प्रतिपल
चल पड़ता था पागल मनवा..
बीहड़ कंटीले से भी पथ पर..
हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला
पथिक अकेला हुआ अब मनवा
गहरा हुआ कुछ और जीवन का अंधियारा
" बहुत भावपूर्ण रचना, जीवन के उतार चढाव और एक साथी को तलाशती सी एक कसक भरी पंक्तीयाँ , बहुत अच्छी लगीं.
Regards
कविता अच्छी लगी रंजना जी।
रंजना जी,
इस रचना से शिकायत है "देशज सब्दों का प्रयोग"। सही स्थल पर सही देशज शब्द रचना में चमक बढाते हैं तो वहीं उन्हें अपने सहयोगी शब्दों या परिवेश की भी आवश्यकता होती है कि अट्पटे न लगें। "मनवा" का विकल्प तलाशें...
*** राजीव रंजन प्रसाद
Bahut khoobsurat.. bahut achhi lagi..badhayee..
बहुत सुंदर रचना है |
बधाई स्वीकारें |
अवनीश तिवारी
अकेलेपन के भाव को अत्यंत गहराई से
दशा को स्पष्ट रूप देते हुए
दिल के आईने में आपने उकेरा है.........
हृदयस्पर्शी रचना ,आपकी प्रतिभा मुखर है
रंजू जी,
मैं भी राजीव जी से सहमत हूँ। प्रतीत होता है कि आपने "मनवा" का प्रयोग "अंधियारा" से तुक मिलाने के लिए किया है। लेकिन पहले छंद की दूसरी पंक्ति पहले से बड़ी हो गई है और कविता की शुरूआत में हीं यह खटक जाता है।
बाकी पंक्तियाँ काबिले-तारीफ हैं। हाँ, कविता कुछ और बड़ी होती तो और मज़ा आता।
लेकिन निराश न हों,रचना ऎसी नहीं कि सिरे से खारिज हो सके। बस "मनवा" का ख्याल रखियेगा :)
-विश्व दीपक ’तन्हा’
रंजना जी, यों तो लिखा है कि वियोगी होगा पहला कवि ............
लेकिन ये आपकी पंक्तियाँ किन्ही उदासी के पलों में लिखी हुई पंक्तियाँ हैं,
जो कि काफी गहरी हो गई हैं
साधुवाद.
Naresh Bhatt
हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला..
सुंदर है..
बहुत सुंदर कविता है रंजू जी..... हर मानव के जीवन में कुछ एसे ही पल आते है जब हर तरफ़ अँधियारा दिखता हैं.... आपकी कविता उन पलों के भावों को प्रस्तुत कराने कामयाब रहीं है....... आपकी कविता में universal appeal हैं..... बधाई....
रंजू जी
रचना मैं ह्रदय की पीडा उभर कर सामने आयी है.-
ढलती संध्या कुछ याद दिलाती
टसक टीस सी उर में चुभ जाती
दूर कहीं चलती पुरवाई
चिर खुमारी सी दे जाती
जाने कब बरसेगी प्रीत की अमृत धारा
अच्छे प्रयोग किए हैं. बधाई
फिर एक प्रयोग,
बढ़िया, जारी रहें ऐसे ही प्रयोग
रंजना जी !
ढलती संध्या कुछ याद दिलाती
...........
दूर कहीं चलती पुरवाई
.............
जब साथ थे निशि दिन दोनों उज्जवल
तब छाया भी साथी थी प्रतिपल
...............
हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला
अच्छा लगा आपके नवीन बिम्ब देखकर .... कविता पिछली कुछ रचनाओं की तुलना में कुछ ढीली है परन्तु यह स्वाभाविक भी है कई बार सभी के साथ ... शुभकामना
जब साथ थे निशि दिन दोनों उज्जवल
तब छाया भी साथी थी प्रतिपल
चल पड़ता था पागल मनवा..
बीहड़ कंटीले से भी पथ पर..
हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला
पथिक अकेला हुआ अब मनवा
बहुत अच्छी लगीं,सुंदर, बधाई
दर्द की बहुत सुंदर अभिव्यक्ति । और प्रेम की सुखद स्मृति भी ।
चल पड़ता था पागल मनवा..
बीहड़ कंटीले से भी पथ पर..
हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला
अकेला मन क्या विचार दे?
यूँ ही भटकता हैं,जाने कब तक एक आस के सहारे चलता जाता हैं
बहुत सुन्दर वर्णन.......
ek jeevant kavita thi ranju jee ye
kaafi acha tha pad kar acha laga
सजीव जी!
चलिए देर आये दुरूस्त आये।
पर.......
धुवें के छल्ले जैसे,
कुछ दर्द भी बाँध ले जाते थे, साथ अपने,
तो भईया जो सिगरेट आपका कुछ दर्द मिटा देने के लिए खुद मिट जाती थी,
वो क्या सोचेगी आपके बारे में............
खैर.....
दुआ करूंगा आप अपने फैसले पर मजबूत रहें और बाकी भाई लोग भी आपसे सीखें।
ढलती संध्या कुछ याद दिलाती
टसक टीस सी उर में चुभ जाती
दूर कहीं चलती पुरवाई
चिर खुमारी सी दे जाती
जाने कब बरसेगी प्रीत की अमृत धारा
गहरा हुआ कुछ और जीवन का अंधियारा
बहुत ही प्यारी पंक्तियाँ लगीं,अकेलेपन के दर्द को उभरती अच्छी कविता,बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
जब साथ थे निशि दिन दोनों उज्जवल
तब छाया भी साथी थी प्रतिपल
चल पड़ता था पागल मनवा..
बीहड़ कंटीले से भी पथ पर..
हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला
जब दिन था तब दीपक भी थे
संध्या मेम कोई साथ नहीं
अब तो तुमने भी कह डाला
मेरे बस की बात नहीं
बिखर गया टूटे मोती सा
माला का अब हर इक मनका
पथिक अकेला है जीवन का
जिस पथिक के साथ कविता हो, वह भला अकेला कैसे हो सकता है....
पथिक अकेला हुआ अब मनवा
गहरा हुआ कुछ और जीवन का अंधियारा
चुभे रोम रोम में शूल कुछ ऐसे
पतझर सा यह लगे जग सारा,
जब साथ थे निशि दिन दोनों उज्जवल
तब छाया भी साथी थी प्रतिपल
चल पड़ता था पागल मनवा..
बीहड़ कंटीले से भी पथ पर..
हर टीस भी तब लगती थी
जैसे जीवन की मधुशाला
पथिक अकेला हुआ अब मनवा
गहरा हुआ कुछ और जीवन का अंधियारा
ढलती संध्या कुछ याद दिलाती
टसक टीस सी उर में चुभ जाती
दूर कहीं चलती पुरवाई
चिर खुमारी सी दे जाती
जाने कब बरसेगी प्रीत की अमृत धारा
गहरा हुआ कुछ और जीवन का अंधियारा
अगर इस क्रम में कविता चले तो ज्यादा प्रभावी लगेगी|
अच्छी रचना है| सुंदर शुरू किया गया है, अकेलापन, अँधेरा, चुभती हुई शूल और पतझर भाव को बहाव देते है| बढ़ती उम्र और अकेलापन को बढ़ते अंधियारे के उदाहरण से आबाद चित्रित किया गया है|
Girish Joshi
बहुत कमज़ोर कविता। शिल्प पर भी ध्यान देने की ज़रूरत थी और कथ्य पर भी।
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