एक मजबूर बाप विक्षिप्त था
उसका बेटा चोरी में लिप्त था
गुनाहों के दलदल में था वह धंसा
एक दिन आके कानून के चंगुल में फंसा
यह देख बाप रोता है गिड़गिड़ाता है
छोड़ दो मेरे बुढ़ापे के सहारे को चिल्लाता है
वह क्या समझे जो था प्रतीक पाप का
औरों का क्या सोचता, सोचा नहीं बाप का
हैरानी होती है देखकर अपराध शाखा के सूत्रों को
अब भला कौन सीख दे इन कलयुगी पुत्रों को
यही है पाश्चात्य सभ्यता के अपनाने का हाल
किस दिशा में जा रहे हैं हम रहता नहीं ख़याल
जाग नहीं रहा है कोई सभी हैं सोये
अपनी संस्कृति को छोड़ कर अंधी दौड़ में हैं खोये
जाग्रत होना है सबको किसी को सोना नहीं है
इस अनमोल देह को व्यर्थ खोना नहीं है
ऐ देश के युवाओं यही अर्थ है मेरे संदेश का
कार्य करो ऐसा जो भला हो परिवार, समाज व देश का
यूनिकवयित्री- किरणबाला
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
जाग्रत होना है सबको किसी को सोना नहीं है
इस अनमोल देह को व्यर्थ खोना नहीं है
ऐ देश के युवाओं यही अर्थ है मेरे संदेश का
कार्य करो ऐसा जो भला हो परिवार, समाज व देश का
"बहुत खूब , एक अच्छा संदेश , काश आज की युवा पीढी इसको समझ पाती "
Regards
किरणबाला जी,
आपकी कविता में पहले जैसी बात नहीं है। बहुत साधारण है। शायद पहले की लिखी हुई कविता हो। खैर उसमें मैं नहीं जाऊँगा। पर मुद्दा जो आपने उठाया है, उस पर जरूर कहना चाहूँगा।
मैं भी पहले आप ही की तरह सोचता था। पर मुझे लगता है कि सारा ठीकरा पाश्चाचात्य संस्कृति पर फोड़ देना अनुचित होगा। चोरी, डकैती, लूटपाट ये हमारे देश में पहले से ही है। रही बात बच्चों के बिगड़ने की तो मुझे लगता है इसमें कम से कम ७० फीसदी गलती बड़ों की है जो अपने काम में इतने व्यस्त हैं कि बच्चों की तरफ उनका ध्यान ही नहीं है। तो गलत राह पर बड़े चल रहे हैं। जिसकी वजह से ही आज की तारीख में बच्चों के मन में हिंसा का जन्म हो रहा है। हमें चाहिये हम पश्चिम की अच्छी बातें ले और बुरी न लें। वे भी ऐसे ही करते हैं और इसलिये उन्होंने हमारे योग, वेद वगैरह में दिलचस्पी दिखाई है। तो मैं आपके संदेश समझ रहा हूँ किन्तु सारी गलती छोटों पर और पश्चिम सभ्यता पर मढ़ देने के मैं खिलाफ हूँ।
कुछ नया कहने की कोशिश..
प्रश्न ये है कि युवा पीढ़ी को समझायें कैसे?
एक तरीका तो आपने कर ही दिया , इसे इंटरनेट में रखकर
गुनाहों के दलदल में था वह धंसा
एक दिन आके कानून के चंगुल में फंसा
यह देख बाप रोता है गिड़गिड़ाता है
छोड़ दो मेरे बुढ़ापे के सहारे को चिल्लाता है
किरण जी, सत्य है आज की युवा पीढ़ी भटक गई है ....इसका खामियाजा माता पिता को भोगना पड़ता है .....अच्छा विषय है - सुरिंदर रत्ती
सुंदर संदेशात्मक रचना |
आपने यूनी कवियत्री की सक्रियता को निभाने का संकेत दिया है, इसलिए धन्यवाद |
अवनीश तिवारी
अवनीश तिवारी
संदेश अच्छा है
इस देश के सभी युवा पीड़ी तक पहुँचाया जाए
उनको इस बात से अवगत कराया जाए
बहुत अच्छे किरण जी
अच्छी लगी आपकी कविता ....सीमा सचदेव
किरण जी,आप सही कह रही हैं पर इसकी जिम्मेदार केवल पाश्चात्य संस्कृति ही नहीं है ,सबसे बड़े कारण टी.वी , सिनेमा और मोबाइल भी हैं...आधुनिकता की अंधी दौड़ में कोई पिछड़ना नहीं चाहता....चाहे उससे भला हो न हो....इसमें मांओं की भागीदारी भी है...चाहे जो भी हो समस्या तो है ही....पर नई नहीं है,अनुपात कम ज्यादा हो सकता है.....शुभकामनाओं सहित....
डा. रमा द्विवेदी
किरण जी,
सन्देशात्मक शैली में अच्छी कविता है..
परंतु सभी को अपनी अपनी जिम्मेदारियों को निभाना है तभी सम्भव है एक अच्छे समाज का निर्माण
कथ्य तो रचियता की अनुभूति का विषय होता है इसलिए इस पर टिपण्णी नही करूँगा. कविता के संदेश अवश्य ही ग्राह्य हैं. किंतु शिल्प में कशिश का अभाव दृष्टिगोचर होता है. तुकबंदी का निर्वाह किया गया है किंतु छंद में एकरूपता नही है. कही-कही मात्रा दोष भी है. लेकिन एक गुजारिश और कि आलोचनाओं को अन्यथा न लें व रचनात्मकता को उत्कृष्ट बनाने की कोशिश करें !
धन्यवाद !!
मार्च महीने की अब तक की प्रकाशित सबसे कमज़ोर कविता। इसे पढ़कर तब और असंतोष होता है जब यह पता चलता है कि कविता किसी और की नहीं बल्कि फरवरी माह की यूनिकवयित्री की है। इसे बचकानी कविता की संज्ञा दी जा सकती है। कवयित्री न तो वर्तमान भारत को साफ़ नज़रों से देख पा रही है ना ही इसके अतीत को। ऊपर से अंत में आते-आते प्रवचन भी करने लगती है। अभी भी दो सोमवार है, उम्मीद के साथ इंतज़ार कर लेते हैं।
औरों का क्या सोचता, सोचा नहीं बाप का
हैरानी होती है देखकर अपराध शाखा के सूत्रों को
अब भला कौन सीख दे इन कलयुगी पुत्रों को
यही है पाश्चात्य सभ्यता के अपनाने का हाल
बहुत खूब
किरंबाला जी थोड़ा और दम लगाना चाहिए था,खैर,नए संदर्भो मे अच्छा ही कहेंगे
उम्मीद है अगली प्रस्तुति सारे गिले शिकवे दूर कर देगी
शुभकामनाओं सहित
आलोक सिंह "साहिल"
बहुत अच्छा लिखा है देश के युवानो को एक अच्छा संदेश देने का प्रयाश किया है
किरणबाला जी! कथ्य के विषय में यद्यपि मैं तपन जी से सहमत हूँ पर अभी उस बारे में कुछ नहीं कहूँगा. परंतु आपकी पिछली कविता को पढ़ने के बाद आपसे जो उम्मीद की जाती है, उस पर शिल्प की दृष्टि से यह रचना निश्चय ही खरी नहीं उतरती. आशा है कि अगली बार आप अपनी क्षमता के अनुरूप रचना पढ़ाकर हमारी ये शिकायत दूर कर देंगीं.
युनिकवियित्री ने निराश किया मुझे इस बार.... शयाद मेरी उम्मीदें कुछ ज्यादा थी....... चिकनी किताब बिना कुछ कहे भी बहुत कुछ कह जाती है, पर यहाँ आप बहुत कुछ (उपदेश ) कह कर भी प्रभावित नही कर पायी, पर पहली रचना का असर इतना जबरदस्त था की आगे के लिए उम्मीदें फ़िर भी रहेंगी...
रचना प्रभावित नही करती। उम्मीद है आगे कुछ पढ़ने को मिलेगा।
किरणबाला जी,
यह रचना सच में बेहद कमजोर है। महसूस होता है कि बस तुकबंदी की गई है, शब्दों को निरर्थक तरीके से भरा गया है।
आपके अगली कविता का इंतजार है।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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