उन्होंने कहा है-
"एक बिहारी - सौ बीमारी!"
इसलिए जाओ!
देश के हर कोने में
सड़कों पर,
खेत-खलिहानों में,
उद्योगों में,
यहाँ तक कि
संसद में
डी०डी०टी० का छिड़काव कर दो,
निकाल फेंको, मार डालो
इन्हें
इन बिहारियों को
किसी "डेंगु"
या "मादा एनोफेलिज"-सा।
देखो!
ये निकृष्ट बिहारी
बिहार में नहीं है-
सत्रह सालों तक
हमारे कुछ अपनों ने
इन बिहारियों के बिहार को
डी०डी०टी० डाल "लाल" रखा है,
अब
वहाँ से कुछ बचे-खुचे बिहारी
हमारे बीच हमारी गलियों में हैं।
ये
कामगर हैं,
कारीगर हैं,
खेतिहर हैं,
कम मजूरी में हीं
सड़कों पर ,
किसी फैक्ट्री में
या किसी कंपनी में
बीस-बीस घंटे खटते हैं;
ये मेहनती
मेहनत के रोग फैलाते हैं,
इसलिए त्याज्य हैं ये,
स्वीकार्य नहीं।
जाओ,
इन्हें पूरे देश से भगाओ।
वहीं कुछ दूसरे बिहारी
"राजेन्द्र प्रसाद"
"लोकनायक जे०पी०",
"कुँवर सिंह"
और कई अन्य चेहरों में
करोड़ों बैक्टीरिया , वायरस लिए
संक्रमित करते हैं
हम "महान""राष्ट्र"-वासियों के
"महान" मस्तिष्क को।
ये
किसी "भारत" की बात करते हैं,
हम जैसे
"आमचा .... " , "जय ......" की नहीं,
जो हमारा घर है,
कोई "भारत" नहीं।
इसलिए
इन बीमारियों से बचाव हेतु
सभी को
"स्पेशल बी०सी०जी० (बिहारी क्रशिंग गैंग)"
के टीके लगवाओं।
ये बिहारी
मूर्ख-से
बड़े सपने पालते हैं,
कीड़े-मकौड़ों की तरह
रह लेते कहीं भी ,
हम जैसे "स्टेटस सिंबल" नहीं रखते।
ये
मिट्टी के पिल्लु
किन्हीं तुच्छ
मर्योदाओं ,तहजीबों की
बातें करते हैं,
माँ-बाप, बहन-बेटियों के लिए
खुद को गिरवी रख देते हैं।
ये
बच्चों में हमारे
"भाईचारे" का कैंसर डालते हैं,
सो,
इनसे इनके जीने का हक़ हटाओ।
हाँ, सुनो!
ये बिहारी
कभी हमला नहीं करते,
शांत रहते हैं,
लेकिन
इन्हें कुचलते , छलते वक्त
फासला रखना,
"सामना" नहीं करना,
क्योंकि
"एक बिहारी, सौ बीमारी"
अपभ्रंश है,
"एक बिहारी ,सब पर भारी" का.............
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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29 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह तन्हाजी , बहुत गहरा व्यंग्य है।
जब हम आस्ट्रेलियावासी बहुसांस्कृतिकवाद की तहत
यहां की जनता से हर तरह का सहयोग
व सरकार से हर तरह के अनुदान का उपभोग करते हैं - भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिये - तब बड़ी शर्म आती है हमारे ही देशवासी अपने ही भाई बहनों को अपने ही देश में पराया कर देते हैं।
तनहा भाई क्या जबरदस्त वार किया है, "सामना" की यह एक कॉपी अवश्य ही मनानिये ठाकरे साहब तक पहुँचनी ही चाहिए, आप ने जबरदस्त लिखा है, शीर्षक से लेकर अंत तक ...... बहुत बहुत बधाई....देश को तोड़ने वाली ताक़तों को हर कवि से इसी तरह की कड़वी गोलियां मिलनी चाहिए
waah tanha ji..waah...BCG aurDDT...
itna achha likha hai ki mere paas prashnsha ke liye shabd hi nahin hain....wakai mein zabardast...
वहीं कुछ दूसरे बिहारी
"राजेन्द्र प्रसाद"
"लोकनायक जे०पी०",
"कुँवर सिंह"
और कई अन्य चेहरों में
करोड़ों बैक्टीरिया , वायरस लिए
संक्रमित करते हैं
हम "महान""राष्ट्र"-वासियों के
"महान" मस्तिष्क को।
बहुत खूब दीपक जी शुरू से अंत तक इस रचना में एक एक बात बहुत अच्छे ढंग से कही है .कमाल की रचना लिखी है आपने .
व्यंग्यात्मक कविता पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ,एक अच्छी और सच्ची रचना के लिए बधाई .......सीमा सचदेव
विश्वदीपक भाई की रचना वर्त्तमान परिस्थिति में एक गर्वान्वित भारतीय का राष्ट्रद्रोही तत्त्वों केविरूद्ध खुला युद्धामंत्रण है.
tuchha arajak rashtradrohi tattwon (jiska naam lena bhi mujhe mere aham ko chot karta hai ) .ke viruddha shnakhnad ka samay aa gay ahai ..humari shanti ko kamzori samajhkar ye bakwad karne lage hain .bihar ke log bihar ke under kabhi bhi apne ko bihari nahi mante,kintu jab wo bihar se bahar jate hain to ek rashtrawad ki unki dharna ko dhoomil kar diya jaata hai .bharat ek rashtra hai .har bhartiya ko kahin bhi kisi bhi jagah basne ka adhikar hai ..kapurush thakrey humare is adhikar ka hanan karne ki kuchesta karega karta a raha hai .. maharashtra ki janta ko is tathakathit marathi me chhupe swarthi rashtradroh ko pehchan sakne ka vivek utpanna karna hoga .yadi Maharashtra bharat ka hriday hai to BIHAR BHARAT KA MASTISHK.mastishka aur hriday ke madhya awarodh utpanna kar samast bharatwarsha me rugnta utpanaa kiya ja raha hai .
atah sheeghratisheeghra in chacha bhatija ko ASAP maharshtra se bahar nikal fenkana chahiye ..sahi hi kaha gaya hai " Chacha chor Bhatija PAJI dono milkar ho gaye raji"
Bihar ka apna gauravshali ateet raha hai ,jispar bharat warsha ki neew tiki hai ..atah apne mata ek anchal ka anadar karna jaghanya apradh hai .. bala thakrey ki is agyanta aur tuchchhta per itihas sada use dhikkarega ..ye aise tatwa hain jo negtive kaam hi kar sakte hain .
kuchh bihare kalakar thakrey ke mayajal se darkar uski adheenta sweeekar kar li hai .isme shtrughna sinha jaise awasarwadi tatwa sabse aage hain .ye bala thakrey se kam khatarnak nahi ..ye kahin usse jyada doshi hai .aise kayar kupooton ke liy ebharat bhoomi me inka kahin sthan nahi .. agli bar bharat mata inko sthan dene ke pehle sochegi jaroor!!!!!!!
अच्छा व्यग्य है तन्हा जी.. आज की रष्ट्र विरोधी देश की अखंण्डता में सेंध लगाते आस्तीन के साँपों को ललकारती आपकी रचना
बहुत बहुत बधाई
अच्छा व्यंग्य है तन्हा जी। ठाकरे परिवार बीमार है। उन तक आपकी कविता के ये पुष्प पहुँचाने चाहियें।
Get well Soon ठाकरे जी.
गंदी विचाराधारा के जनक इन लोगों को और क्या कहा जा सकता है |
मेरा समर्थन है आपको
अवनीश तिवारी
तनहा जी,
आपकी इस कविता पर किसी भी टिपण्णी की बजाय मैं बिहार में पैदा हुए एक भारतीय के नाते आपका आभार व्यक्त करना चाहूँगा !
विश्व दीपक जी वाह बहुत खूब लिखा आपने .
वर्तमान स्थिति को आपने बखूबी दर्शाया है
एक सुंदर और सटीक रचना के लिए बधाई
वैसे मैं एक मामूली सी पाठक हूँ येही कहना चाहूंगी की क्या इसका शीर्षक कुछ बदल कर अच्छा सा रखा जाए टू केसा रहेगा
सामना शब्द उतना असर नही कर पायेगा
कोई अच्छा सा शीर्षक रखा जाए
और डीटीसी और बी एच सी की बात भी अच्छी कही
लिखते रहिये
हरिहर जी, सजीव जी,मीनू जी,रंजू जी, सीमा जी,अजीत जी, राघव जी, तपन जी, करण जी,अवनीश जी एवं अंजु जी, आप सब का टिप्पणी देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद।
अंजु जी,
मैने कविता का शीर्षक "सामना" क्यों रखा है, लगता है वह सही से convey नहीं हुआ। दर-असल "सामना" एक मराठी समाचार पत्र है, जो माननीय बाल ठाकरे जी द्वारा संपादित होता है।
आगे आप खुद समझ जाएँगी।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
Well said VD. This poem is a compelling read which highlights a burning issue with clever use of irony.
Unfortunately there seems to be no dearth of individuals and groups in our country with massive chips on their shoulders. They have no compunctions about resorting to violence to enforce their narrow-minded views on everyone else. The state seems to be helpless and almost afraid to have any kind of a response.
बहुत अच्छी तरह तुमने एक पूरे समुदाय की बात कही है विश्वदीपक भाई।
पढ़ते हुए मेरी आँखें नम हो गईं।
तुम्हारी सोच और आत्म-सम्मान की भावना को नमन।
एक बिहारी ,सब पर भारी
kavi hone ka farj ada kiya hai aapne
is kavita par main koi bhi sameeksha nahi karoonga .
मजा आ गया पढ़्कर
सामयिक प्रसंग पर तीव्र कटाक्ष भरी गहरी रचना के लिये बधाई
तन्हा जी बहुत अच्छा लिखा है आपने ...करारा व्यंग्य ....! मुंबई में जो हो रहा है शर्मनाक है | अनेकता में एकता की बातें करने वाले भारत में ऐसी घटनाएँ शर्म से सर नीचा कर देतीं हैं |
वैसे मुझे इस पंक्ति पर थोड़ी आपत्ति है..
"एक बिहारी, सौ बीमारी"
अपभ्रंश है,
"एक बिहारी ,सब पर भारी" का
देखिए .. वहाँ ,मुंबई में जो हुआ ग़लत था पर फिर भी संवेदनशील परिस्थितियों में ऐसी पंक्तियाँ उचित नहीं कहीं जा सकतीं| क्षेत्रीय श्रेष्ठता की भावना
ही तो सारे विवाद का मूल है तन्हा जी और ऐसी बातें लिखना आग में घी डालने के समान है |
भावावेश में अधिक लिख जाने की बजाय हमें ऐसे तर्क प्रस्तुत करना होगा की विरोधी निरुत्तर हो जाएँ |उनकी सोच पर तो देश का सारा प्रबुद्ध वर्ग हंस रहा है पर अगर हम भी उन्हीं के अंदाज़ में उन्हे जवाब दें तो यह समझदारी वाला काम ना होगा| भड़कीली बातों से किसी का भला नहीं होने वाला.. हमें यह बात समझनी होगी|
बाकी रचना में बहुत अच्छा व्यंग्य था | अच्छी रचना के लिए बधाई !
तुम्हारी सोच और आत्म-सम्मान की भावना को नमन।
एक बिहारी ,सब पर भारी
बहुत बहुत बधाई
एक जागरूक और बेहद संवेदनशील कवि होने का दायित्व निभा रहे हैं तनहा जी आप.
*इस सामयिक प्रसंग पर प्रस्तुत कविता तीखे व्यंग्य का कडा प्रहार कर रही है.
**परन्तु विपुल की कही इस बात का में भी समर्थन करती हूँ-----:
''उनकी सोच पर तो देश का सारा प्रबुद्ध वर्ग हंस रहा है पर अगर हम भी उन्हीं के अंदाज़ में उन्हे जवाब दें तो यह समझदारी वाला काम ना होगा| भड़कीली बातों से किसी का भला नहीं होने वाला.. हमें यह बात समझनी होगी|बाकी रचना में बहुत अच्छा व्यंग्य था |''
dhnywaad.
तन्हा भाई, नमन है आपको,खुदा आपके विचारों और शब्दों को और बरकत दे
आलोक सिंह "साहिल"
विश्व दीपक ’तन्हा’ जी आपका कथन सत्य है लेकिन हम जैसे बुधिजीविवर्ग के लोगों को इसे बधवा नही देना चाहिए बल्कि आधुनिक समाज मी आने वाली इन समस्त गतिविधियों को बधवा देने वाले लोगों को किस्प्रकर स्थिति से अवगत कार्य जाए इसपर विचर करना चाहिए
विश्व दीपक जी! बहुत देर में टिप्पणी कर पा रहा हूँ और अब लगता है कि सब कुछ तो अन्य मित्रों ने कह ही दिया.
मैं विपुल और अल्पना जी से सहमत रहते हुये, तपन जी की तरह ठाकरे परिवार के मानसिक स्वास्थ्य-लाभ की कामना करता हूँ.
*सामना* के कवि श्री विश्वदीपकजी तनहा
आपको साधुवाद है इतना करारा व्यंग लिखने के लिए आपकी रचना वास्तव मे दिल के उस कोने से प्रस्फुटित हुई है जहा से अभिव्यक्ति के लिए कितने सुंदर भाव उपजे है. बिहारी तो केवल एक सांकेतिक शब्द है. अनेकता मे एकता को प्रगट करनेवाली हमारी उत्कृष्ट भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को क्या कुछ लोग कम कर सकते है ,कभी नही. उनको जानना चाहिए की ऐसी बातो का उल्लेख करके वे तो समस्त भारतीयों को एक-दूसरे से और जोड़ रहे है.
कहाँ तो हम विश्व शान्ति की बात करना चाहते है और कहाँ----? असरदार कविता की पुनः बधाई.
अलका मधुसूदन पटेल
ये बिहारी
मूर्ख-से
बड़े सपने पालते हैं,
कीड़े-मकौड़ों की तरह
रह लेते कहीं भी ,
हम जैसे "स्टेटस सिंबल" नहीं रखते।
ये
मिट्टी के पिल्लु
किन्हीं तुच्छ
मर्योदाओं ,तहजीबों की
बातें करते हैं,
माँ-बाप, बहन-बेटियों के लिए
खुद को गिरवी रख देते हैं।
ये
बच्चों में हमारे
"भाईचारे" का कैंसर डालते हैं,
सो,
इनसे इनके जीने का हक़ हटाओ।
*******
"एक बिहारी, सौ बीमारी"
अपभ्रंश है,
"एक बिहारी ,सब पर भारी" का..
वाह तन्हा जी, तगड़ी चोट की है आपने। बेहद सटीक।
sabse pehle main aapko pichhli kavita ke liye bahut bahut mubarakbad dena chahunga jo ki mujhe aapki sarvsreshth rachna lagi.
yah vyangya bhi mujhe bahut acha laga. khaskar kuch panktiyaan bahut hi sarahniya hain jaise ki
लेकिन
इन्हें कुचलते , छलते वक्त
फासला रखना,
"सामना" नहीं करना,
क्योंकि
"एक बिहारी, सौ बीमारी"
अपभ्रंश है,
"एक बिहारी ,सब पर भारी" का.............
ye ek kavi ki kalpana ki udaan ko darshata hai.
ये
कामगर हैं,
कारीगर हैं,
खेतिहर हैं,
कम मजूरी में हीं
सड़कों पर ,
किसी फैक्ट्री में
या किसी कंपनी में
बीस-बीस घंटे खटते हैं;
ye panktiyaan kitni aasani se hamare bihari majduron ki sachai ko dikhati hain. aur itne mehnat ke baad bhi unhe thakre parivar jaise
swarthi logon ka aatank jhelna padta hai.
bahut badhai...
bahut hi satik vyangya kiya hai....vakai aapki kavitayen sahity ko samaj ke darpan ke roop me pesh karti hain..[:)]
तनहा जी,
बहुत अच्छी रचना है और अपने आक्रोश को संयमित लेकिन सटीक और पैने शब्द दिये हैं आपने, और रचना का अंत तो बहुत सशक्त है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
तन्हा जी,
आपकी बेहतरीन १० कविताओं में मैं इसे भी शामिल करूँगा। यदि आखिरी पंक्तियों में आप आक्रोश को कोई और रूप देते ('वाद' से बचते) तो इस रचना को आप कालजयी कर जाते। ज़रा सोचिएगा और पुनः संपादित कीजिएगा, क्योंकि आक्रोश में लिखी गईं कविताओं की उम्र लम्बी नहीं होती।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)