किस भाँति तुम्हें पूजूँ प्रस्तर! कुछ प्राण धरा पर भी बरसे
कब तक पीयूष रहे अम्बर में धरा बूँद भर को तरसे
नयनों में पलते सुखद लोक , जीवन की कुत्सित नश्वरता
यह हर्ष , प्रमाद , भावनाएँ ,मानव की लोलुप निर्भरता
सबकी हिम्मत से दूर खड़े , तेरे घर के निस्पंद द्वार
जिनतक न डूबती आँखों की पहुँची कोई कातर पुकार
किस तरह करूँ आहूत किसे, तेरी करूणा थोड़ी बरसे
किस भाँति तुम्हें पूजूँ प्रस्तर! कुछ प्राण धरा पर भी बरसे
धरती की नित बढ़ रही प्यास , झरते निर्झर से आश्वासन
देवत्त्व रिझाने हेतु त्याग , दुख के ये बेमन आलिंगन
धरती के सारे स्वार्थ त्याज्य, अम्बर को पर है प्यास बड़ी
दुख सह कर , बलि दे मिटे धरा ,ऊपर लहराती जीभ खड़ी
धरती भी कब तक यज्ञ करे, जब झरे कृपणता ऊपर से
किस भाँति तुम्हें पूजूँ प्रस्तर! कुछ प्राण धरा पर भी बरसे
- आलोक शंकर
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24 कविताप्रेमियों का कहना है :
अभिव्यक्ति अत्यन्त सुंदर है !
Aalok ji aap to shabdo ke jadugar hain...bas...aur main sammhohit...kya pratikriya dun...?
Bas kalam ki dhar mat rokiyega....aur aapni nai -2 rachanaye jaroor preshit karen....!
Intejaar rahta hai kuch nayepan ka....Thanks.....Thanks a lot....with best compliments...
is kavita ka pratham aakarshan iski bhasha hi hai isme sandeh nahi parantu iska yah arth nahi ki iska bhav paksh kahin bhi doyam hai. kavita ko pahli bar padhte huye iska jo aik arth mere man mein aaya wah bhakt aur bhagvan se hi sambandhit tha paratu dubara padhne per laga ki yah to gahre samajik sarokar se judi kavita hai jiska mukhya swar varg vishamta ka chitran karna hai.
kavi ko anek badhaayee.
हर शब्द जैसे मोति,बहुत ही सुंदर
सुंदर रचना
धरती भी कब तक यज्ञ करे, जब झरे कृपणता ऊपर से
किस भाँति तुम्हें पूजूँ प्रस्तर! कुछ प्राण धरा पर भी बरसे
शब्दों का चयन अच्छा है
adbhut likha hai aapne..shabdon ka chayan bahut hi badhiya hai...aur bhaav shreshth
avinash chandra
आलोक जी किन शब्दों मी तारीफ करूँ इस कविता की सोच रहा हूँ ...........बहुत ही शानदार रचना है.......
उच्चस्तरीय लयबद्ध इस कविता के लिए आपको बहुत बहुत बधाई ....एवम शुभकामनाएं.............
धरती भी कब तक यज्ञ करे, जब झरे कृपणता ऊपर से
किस भाँति तुम्हें पूजूँ प्रस्तर! कुछ प्राण धरा पर भी बरसे
वाह ! क्या बात है. ग़ज़ब की रचना.
धरती के सारे स्वार्थ त्याज्य, अम्बर को पर है प्यास बड़ी
दुख सह कर , बलि दे मिटे धरा ,ऊपर लहराती जीभ खड़ी
धरती भी कब तक यज्ञ करे, जब झरे कृपणता ऊपर से
मन को छू गयी ये पंक्तियाँ ....सीमा सचदेव
किस भाँति तुम्हें पूजूँ ...
पीयूष रहे अम्बर में ......धरा बूँद भर को तरसे
कवि एक प्रश्न उठा रहे है कि किस तरह पूजू, ओ अमृत के अधिकारी देव?
जीवन की कुत्सित नश्वरता-मानव की लोलुप निर्भरता
और तेरे घर के निस्पंद द्वार, जिनतक न डूबती आँखों की पहुँची कोई कातर पुकार,
किस तरह करूणा थोड़ी बरसे
मानवीय भावो को बखूबी व्यक्त किया है यहाँ पर| देव होना कितना आसान और मानव होना कितना मुश्किल, है ना?
बढ़ती प्यास के सामने सिर्फ आश्वासन| कवि को प्रश्न हो रहा है कि ऊपर वाले को रिजाना आसान है क्या?
देवत्त्व रिझाने हेतु क्या बलि दे ?
.....अम्बर को पर है प्यास बड़ी
..........ऊपर लहराती जीभ खड़ी|
और जवाब में झरे कृपणता ऊपर से|
कुल मिलाके एक सुंदर रचना हमें मिलती है आलोक से|
गिरीश जोशी
सुन्दर रचना!!
किस तरह करूँ आहूत किसे, तेरी करूणा थोड़ी बरसे
किस भाँति तुम्हें पूजूँ प्रस्तर! कुछ प्राण धरा पर भी बरसे
इसमें ’किस तरह करूँ आहूत किसे’ यहाँ किसे का प्रयोग थोड़ा ठीक नही लगा। सौन्दर्य बाधित हो रहा है। बाकी रचना प्रीतिकर है।
धरती भी कब तक यज्ञ करे, जब झरे कृपणता ऊपर से
किस भाँति तुम्हें पूजूँ प्रस्तर! कुछ प्राण धरा पर भी बरसे
वाह आलोक जी पढ़ कर मजा आ गया
बधाई ...
कविता बहुत सुन्दर .. है !
रिपुदमन पचौरी
अच्छी अभिव्यक्ती , सुंदर रचना |
अवनीश तिवारी
बहुत ही सुंदर.....
शानदार रचना है.......
आलोक जी,
आप सच में शब्द-शिल्पी हैं। रचना पढकर मज़ा आ गया और इसके माध्यम से आप जो संदेश देना चाह रहे थे वह भी सहजता से समझ आया।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
किस भाँति तुम्हें पूजूँ प्रस्तर! कुछ प्राण धरा पर भी बरसे
कब तक पीयूष रहे अम्बर में धरा बूँद भर को तरसे
"सुंदर अभिव्यक्ति, ग़ज़ब की रचना"
Regards
आलोक जी बधाई..सुंदर रचना...पूर्णता को प्राप्त कर्ती हुई..
आलोक जी,
सोभन शिल्प में सुंदर अभिव्यक्ति !
Hi! Alok,
I think after such a long time I read any touching creation form a new comer, Congrats......
I will say Hindi kavita needs you....
Wishing a very bright and creative future to you.....
Parthiv
आलोक जी,
हिन्द युग्म पर बकवास पढ पढ कर तंग आ चुका था, आपने पुनर्जीवन दे दिया। कोई त्रुटि नहीं, लेशमात्र भी प्रवाह में अवरोध नहीं..कवि का नाम न भी पढा होता तो स्पष्ट थी कि आलोक जी की कलम में एसा अध्भुत सौन्दर्य और भाव-प्रवणता है।
बधाई स्वीकारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आलोक जी...आपको बधाई और आपसे भी ज़्यादा बधाई आपके शब्दकोष को उसकी समृद्धता के लिए | मज़ा आ गया आपकी रचना पढ़कर...
"धरती के सारे स्वार्थ त्याज्य, अम्बर को पर है प्यास बड़ी
दुख सह कर , बलि दे मिटे धरा ,ऊपर लहराती जीभ खड़ी"
लय बहुत सुंदर है!
किस तरह करूँ आहूत किसे, तेरी करूणा थोड़ी बरसे
किस भाँति तुम्हें पूजूँ प्रस्तर! कुछ प्राण धरा पर भी बरसे
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धरती भी कब तक यज्ञ करे, जब झरे कृपणता ऊपर से
किस भाँति तुम्हें पूजूँ प्रस्तर! कुछ प्राण धरा पर भी बरसे
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अलोक जी ....बहुत ही गहन अर्थ लिए अभिमान है जिस प्रस्तर से ..उस प्रस्तर से अनुरोध है कि कुछ प्राण बरसा दे ...:-)
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