बाबा...
याद है मुझे
तुम डाँटकर,डराकर
सिखाते थे मुझे तैरना
और मैं डरता था पानी से
मैं सोचता...
बाबूजी पत्थर हैं!
इसी पानी में तुम्हारी अस्थियाँ बहाईं
तब समझा हूँ...
तैरना ज़रूरी है इस दुनिया में!
बाबा...
मैं तैर नहीं पाता
आ जाओ वापस
सिखा दो मुझे तैरना
वरना दुनिया डुबो देगी मुझे!
बाबा..
अब समझा हूँ मैं
थाली में जूठा छोड़ने पर नाराज़गी,
पेंसिल गुमने पर फटकार,
और इम्तहान के वक़्त
केबल निकलवाने का मतलब!
कुढता था मैं..
बाबूजी गंदे हैं!
मेरी खुशी बर्दाश्त नहीं इनको
अब समझा हूँ तुम्हें
जब नहीं हो तुम!
तुम दोस्त नहीं थे मेरे
माँ की तरह..
पर समझते थे वो सब
जो माँ नहीं समझती
देर रात..दबे पाँव आता था मैं
अपने बिस्तर पर पड़े
छुपकर मुस्कुरा देते थे तुम
तुमसे डरता था मैं!
बाबा..
तुम्हारा नाम लेकर
अब नहीं डराती माँ
नहीं कहती
बाबूजी से बोलूँगी...
बस एक टाइम खाना खाती है!
बाबा..
याद है मुझे
जब सिर में टाँकें आए थे
तुम्हारी हड़बड़ाहट..
पुचकार रहे थे तुम मुझे
तब मैने माँ देखी थी तुममें!
विश्वास हुआ था मुझे
माँ की बात पर
बाबूजी बहुत चाहते हैं तुझे
आकर चूमते हैं तेरा माथा
जब सो जाता है तू!
बाबा..
तुम कहानी क्यों नहीं सुनाते थे?
मैं रोता
माँ के पास सोने को
और तुम करवट लेकर
ज़ोर से आँखें बंद कर लेते!
तुम्हारी चिता को आग दी
तबसे बदली-सी लगती है दुनिया
बाबा..
तुमने हाथ कभी नहीं फेरा
अब समझा हूँ
तुम्हारा हाथ हमेशा था
मेरे सिर पर!
कल रात माँ रो पड़ी
उधेड़ती चली गई ..
तुम्हारे प्रेम की गुदड़ी
यादों की रुई निकाली
फिर धुनककर सिल दी वापस!
बाबा..
तुम्हारा गुनेहगार हूँ मैं
नहीं समझा तुम्हें..
तुमने भी तो नहीं बताया
कैसे भरी थी मेरी फीस!
देखो..
दादी के पुराने कंगन
छुड़वा लिए हैं मैने
जिन्हे गिरवी रखा था तुमने..
मेरे लिए!
बाबा..
मैं रोता था अक्सर
यह सोचकर..
बाबूजी गले नहीं लगाते मुझे
अब समझा हूँ
सिर्फ़ जतलाने से प्यार नहीं होता!
बाबा..
आ जाओ वापस
तुमसे लिपटकर
जी भर के
रोना है मुझे एक बार!
बाबा...
अब समझा हूँ तुम्हें..
जब नहीं हो तुम !
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
बहुत सुन्दर विपुल जबाब नहीं आपका......
बहुत गहराई है दोस्त मैं तो इसे पड़कर अपनी बाल-स्मृति में खो गया,
सचमुच मुझे भी बहुत कुछ याद आ गया, बहुत अच्छा प्रयास है,
और आप बधाई के पात्र है इतनी सुंदर रचना लिखने के लिये.......
वैसे 'बाबूजी' पर आलोक श्रीवास्तव जी ने भी बहुत सुंदर लिखा है.....
-नितिन शर्मा
bhai badi mast hai.........
bhai bahut acchi hai kavita really its amazing bahut emotions hai ...... really i love it........
ri2007विपुल्जी बहुत अच्छा लिखा है आपने बहुत सुंदर ढंग से पिता - पुत्र के प्रेम को अपने रचना के माध्यम दिखाया है
बहुत ही अच्छी रचना है विपुल जी
पढ़ कर खो गया मै ..
विपुल भाई पुरा दर्द का सागर उंडेल दिया / मुझको मेरे बाबूजी याद आ गए / बहुत संवेदनशील रचना है / आपका ; अमित
वाह विपुल जी बहुत अच्छा लिखा है
इस कविता को पड़कर मुझे भी बचपन याद आ गया
अपने बाबा की याद ताज़ा हो जाती है
अब सम्न्झ आता है सच में
तुम्हारे प्रेम की गुदड़ी
यादों की रुई निकाली
फिर धुनककर सिल दी वापस!
बाबा..
विपुल भाई,बेहतरीन,गजब की गहराई है,बधाई
आलोक सिंह "साहिल"
mast hai bhai
Kaha se dimag me ate hai aise idea
PITA k uper rachna maine kabhi nahi padi
इस कविता को पढ़कर ऐसा लगा कि कवि ने यह पहले से ही सोच रखा था उसे क्या-क्या लिखना है। बस उसी के ईर्द-गिर्द बिम्ब इकट्ठा किया है। मुझे इस रचना ने बहुत अधिक प्रभावित नहीं किया।
बहुत भावुक,बहुत मार्मिक,बहुत सुंदर,पिता के प्रति प्यार समर्पित करती कविता,नमी च गई आँखों में.बधाई
बाबा..
अब समझा हूँ मैं
थाली में जूठा छोड़ने पर नाराज़गी,
पेंसिल गुमने पर फटकार,
और इम्तहान के वक़्त
केबल निकलवाने का मतलब
बहुत सुन्दर विपुल जी
सुंदर रचना है विपुल जी यह आपकी ..माँ ,पिता यह दिल से जुड़े हुए होते हैं और इन पर लिखा सब कुछ बहुत ही अच्छा और भावुक कर देने वाला होता है ..आपकी कलम ने पिता विषय को बहुत अच्छे से लिखा है ..बधाई !!
बाबा..
याद है मुझे
जब सिर में टाँकें आए थे
तुम्हारी हड़बड़ाहट..
पुचकार रहे थे तुम मुझे
तब मैने माँ देखी थी तुममें!
विश्वास हुआ था मुझे
माँ की बात पर
बाबूजी बहुत चाहते हैं तुझे
आकर चूमते हैं तेरा माथा
जब सो जाता है तू!
पढ़ते पढ़ते आंसू निकल आए मेरे विपुल.... क्या लिख दिया तुमने ये, सच पिता का प्यार ऐसा ही होता. है.....
तुमने भावों को इतने सुंदर शब्दों में ढाला....बधाई बहुत बहुत....
ऐसे विषय ज़िम्मेदारी को और बढ़ा देते हैं। लेकिन तुम इस दर्द को निभा नहीं पाए विपुल।
एक संवेदनशील विषय पर यांत्रिक सी लगती कविता।
विपुल!
मुझे तो तुम्हारी कविता बेहद अच्छी लगी।मैं पढते समय सारे नियम-कानून भूल गया था और इसलिए पता नहीं कब मेरी आँखें नम हो चलीं।
बधाई स्वीकारो।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
याद है मुझे
जब सिर में टाँकें आए थे
तुम्हारी हड़बड़ाहट..
पुचकार रहे थे तुम मुझे
तब मैने माँ देखी थी तुममें!
विश्वास हुआ था मुझे
माँ की बात पर
बाबूजी बहुत चाहते हैं तुझे
आकर चूमते हैं तेरा माथा
जब सो जाता है तू!
"बहुत ही अच्छी रचना है,अच्छा लिखा है , बहुत गहराई है "
Regards
कल रात माँ रो पड़ी
उधेड़ती चली गई ..
तुम्हारे प्रेम की गुदड़ी
यादों की रुई निकाली
फिर धुनककर सिल दी वापस
विपुल जी दिल को छू लेने वाली कविता।
विपुल,
बहुत संवेदनशील रचना और बहुत गहराई से महसूस कर तुमने शब्द दिये भी हैं, तथापि विवरणात्मकता कविता को मारती है। अनावश्यक शब्द या वाक्य कथ्य को हल्का कर देते हैं।
इस कविता के साथ कुछ और देर बैठो, कुन्दन बन जायेगा।
*** राजीव रंजन प्रसाद
शैलेशजी... आप जैसा कह रहे हैं वैसा नही हैं| आपकी शिकायत के पीछे शायद कुछ और कारण है | मैने जब यह कविता लिखी थी तो इतनी सारे बाते,इतने सारे बिंब इकट्ठे हो गये थे कि कविता लगभग 5 पन्नों में जा रही थी|मैने इसे काट-पीटकर छोटा किया है|समझ नहीं आ रहा था क्या लिखूं क्या छोड़ूँ ! अभी भी इतना कुछ लिखा हुआ है कि एक कविता और बन जाए...यह छोटा करने के चक्कर में शायद कविता क़ी लिंक खराब हो गयी है |
आपने कहा "कवि ने यह पहले से ही सोच रखा था उसे क्या-क्या लिखना है। बस उसी के ईर्द-गिर्द बिम्ब इकट्ठा किया है" ऐसा कतई नहीं है ! हाँ मैं शिल्प को लेकर संघर्ष कर रहा हूँ यह मैं स्वीकार करता हूँ..
और गौरवजी मैने पूरी कोशिश की कि उसी तीव्रता से पाठकों तक आपनी बात पहुँचा पाऊँ पर जैसा मैने ऊपर कहा शायद वही कारण रहा कि आपको
कविता "यांत्रिक-सी" लगी | वस्तुतः ऐसा डूबकर ना लिखने के कारण नहीं बल्कि अधिक डूबकर लिखने के कारण हुआ |
माफी चाहूँगा....
vipul,bahut sundar.
saral shabdon mein rishton ki gahrai ko badi hi kushalta se prastut kiya hai.kavita bahut hi marmik hai har pankti dil tak pahunchti hai.kavita padh kar mai apne ateet mein kho gayi thi mujhe mere pitaji yad a gaye.maine sabhi ke comments padhe mujhe lagta hai ki har cheej ko dekhne ka sabka apna nazariya hota hai isliye tumhara kartavya hai tum likho mujhe to kavita acchi lagi.
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