सुमिरन कर तेरा पूर्व तन
बरबस भीगे मेरे नयन
अरे तरुवर ! कल्पयोगी सम तेरा कलेवर !
अस्थि-चर्म है ,बहता न रुधिर
सोच तेरी स्थिति मन है अस्थिर ........
मनोविद किसलय से शोभित,
अनुरंजित हर भावुक चित्त
देकर कोमल छाया सुपक्व फल
करता रहा दग्ध प्राण को शीतल
पर क्यों ....?
वैशाख ने चुराया तेरा यौवन
किया श्वास अवरुद्ध धूल -धूसरित गगन
मीटी भरी जवानी उम्र के सीने में
फूलों की सुगंध में
व हवा की चंचलता में .............
मूहूर्त भर मोहित विहग ,पथिक,भँवर
पसारते जब अपना क्लांत शरीर
तब तूने अपना बनाया,सीने से लगाया
आतिथ्य से उनका मन हरषाया
बूझा न कोई तेरे दुखी मन को
व्यथातूर आत्मा के मूक क्रंदन को ......
अब तो
दावाग्नि जलता है चतुर्दिशा में
अनल-कुंड ज्यों तपस्या स्थल में
प्रखर रवि के ताप में उठाए यूं माथा
तप के प्रभाव में ज्यों हो रही न व्यथा
देख कर तेरा यह स्थविर मन
भय-भक्ति उपजाए मेरा अंतर्मन
जीवन -वसंत में किया प्राणी का मंगल
अंत समय में भी किया जीवन सफल
अनुनय है मानुष से
रोक दो ,रोक दो यह भीषण तरु -संहार
वरना हहरा उठेगा यह सारा संसार
हहरा उठेगा यह सारा संसार .....
सुनीता यादव
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
सुनीता जी !
क्या क्या और किसे उधृत करूं ...!! प्रतीक्षा की परिणति यदि ऐसी है तो किसी की नजर ना लगे प्रतीक्षित और परिणति को ... वैसे एक दो स्थानों पर संभवतः इससे भी बेहतर कुछ और है आपके लिए ... स्नेह शुभकामना
रचना के लिए अच्छी मेहनत हुयी है |
लेकिन पाठक के नज़र से ज्यादा नयी या गहरी बात नही मिली |
अवनीश तिवारी
श्रीकांत जी ! मैं समझ गई थी ..इसलिए सुधारने की कोशिश में ...लिटा दिया की जगह पसराकर कर दिया है....आप की शुभ कामना हमेशा बना रहे ..
अवनीश जी !नई बात न होने पर भी प्रकृति से लगाव के कारण कुछ नया सीख जाते हैं ..सब कुछ तो पुराना ही होता है ..बस कहने का ढंग अलग होता है :-)..वेसे आप कि बात पर मैं गौर करुँगी ...
सुनीता यादव
सुनीता जी,
इस निर्मोह जगत से तरूओं की रक्षा के लिए आपका अनुनय, आपका आग्रह प्रशंसनीय है। शब्दों का सुंदर जाल बुना है आपने। प्रथम एवं द्वितीय छंद बेहद प्रभावी लगें , परंतु अंतिम पंक्तियों में आपकी रचनाशीलता कुछ कमजोर-सी लगी है। ध्यान देंगे।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
अच्छी रचना
शब्द बहुत ही सुंदर,सुंदर कविता के लिए बहुत बधाई
बाप रे ... कहाँ से शब्द चुन लाती हैं आप इतने भारी भरकम.....कभी तो आम आदमी की भाषा में भी कहा करो न कुछ.....इस बार बहुत ही बढ़िया विषय उठाया आपने, और शब्द संयोजन भी जबरदस्त.... पर मेरे मानना यह है की जब आप कोई ऐसी बात कह रही हैं जिससे समाज का हित जुडा हो तो भाषा सरल रखें ताकि जिन तक आप पहुँचाना चाहें उस कविता को उन तक आसानी से पहुँच सकें.... आप से ऐसे उम्मीद मैं रखता हूँ.....
पर क्यों ....?
वैशाख ने चुराया तेरा यौवन
किया श्वास अवरुद्ध धूल -धूसरित गगन
मीटी भरी जवानी उम्र के सीने में
फूलों की सुगंध में
व हवा की चंचलता में .............
मूहूर्त भर मोहित विहग ,पथिक,भँवर
पसारते जब अपना क्लांत शरीर
तब तूने अपना बनाया,सीने से लगाया
आतिथ्य से उनका मन हरषाया
बूझा न कोई तेरे दुखी मन को
व्यथातूर आत्मा के मूक क्रंदन को ......
" अच्छे भाव, सुंदर रचना केलिए बधाई"
Regards
कुछ अच्छा कहने की कोशिश.. बधाई..
काफी प्रासंगिक मूल्यों को स्थापित करती है आपकी रचना...
पर भाषा अगर सरल हो तो ज्यादा सफल होगी अपनी बात लोगों तक पहुचाने में..
कविता बहुत सुंदर है पर सरल नही है .. :) अच्छा लगा इसको पढ़ना :)
सुनीता जी,
शब्द क्रीडा निहितार्थ से पाठक को जोडती ही नहीं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सुनीता जी
कविता इतनी सुन्दर है कि क्या कहूँ ? शब्द ही नहीं हैं मेरे पास किन्तु भाषा को अकारण दुरूह बनाना कुछ खलता है। भाव यदि पूर्ण रूप से पाठकों तक ना पहुँच सके तो कवि का कर्म अधूरा ही रह जाता है। जैसे-
दावाग्नि जलता है चतुर्दिशा में
अनल-कुंड ज्यों तपस्या स्थल में
प्रखर रवि के ताप में उठाए यूं माथा
तप के प्रभाव में ज्यों हो रही न व्यथा
देख कर तेरा यह स्थविर मन
भय-भक्ति उपजाए मेरा अंतर्मन
सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई
एक क्लिश्ट रचना, आपके शब्द भंडार की गहराई को दर्शाती हुई उत्तम रचना है आप इसके लिए यकीनन बधाई की पात्र है
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