सो रही हो अबोली ?
सो जाओ ...
थोड़ा-सा आराम कर लो
थक गई होगी न ...?
ख़त्म कर आती हूँ मैं
यहाँ का अधूरा काम
चारे के अन्दर
इतिहास की चप्पल छिपाकर
फ़िर निकल पडूँगी चुपचाप
जिस ओर ले जाएगी कविता ....
पर
कहाँ ले गई मुझे यह कविता ...?
बीच राह में क्या करती
गर चांदनी में
वह बन जाती थी सुंदर नारी
या काली- कलूटी डायन ...?
सीने पर बोझ लिए
गिर गई मैं ...
नाटी होने के साथ -साथ
अंधी और लंगडी भी हूँ न ....
दिल में सूरज,
आँखों में अमावास लिए
बार- बार गढे-टूटे आहत स्वप्न को भी
प्रतीक्षा के उत्कंठ नृत्य में
उसका चेहरा अब नजर नहीं आता..
फ़िर
मैं ढूँढने लगी धुएँ में ,धूंध में
कम्पकम्पाती ताल में ,
जब तक टटोलती
वह अदृश्य !
और
क्षणिक असाबधानी ..
मेरी अमानत
गई मछली की " आँ " में !
और
हिसाबियों का षड़यंत्र ...
जबरदस्त अधिकार
चूसने मेरे शब्द -छाती के रक्त को ?
अबोली
ए अबोली !
अबोली ...सुन रही हो ..?
कुछ कहने से पहले
कैंची -सी जीभ पत्थर बन गई
मन करता है
निगल जाऊं आग की कलियों को
भर दूँ जीभ में
गति तीव्रता का ...
मन करता है
यह पथरीलापन संक्रमित हो
हाबी होने से पहले
इशारा कर दूँ उस पृथ्वी की तरफ़
जो प्राण संचित कर दे उस पत्थर में
जो जीभ से लेकर शरीर तक
अधिकार करने चला था ...
अबोली...!
बस तुम और मैं
वीणा के दो तार
अनछुए होने के बावजूद
बज उठेंगे एक तान से
और इस व्यथा को
उछाल देंगे आकाश गंगा में
हल्का हो जाएगा सीना ..........
सुनीता यादव
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
अबोली...!
बस तुम और मैं
वीणा के दो तार
अनछुए होने के बावजूद
बज उठेंगे एक तान से
और इस व्यथा को
उछाल देंगे आकाश गंगा में
हल्का हो जाएगा सीना ..........
वाह और कितना मधुर होगा वो गीत.....बहुत सुंदर सुनीता...
दिल में सूरज,
आँखों में अमावास लिए
बार- बार गढे-टूटे आहत स्वप्न को भी
प्रतीक्षा के उत्कंठ नृत्य में
-
सुंदर!सुनीता जी आप की कवितायें हर बार मेरे हिन्दी ज्ञान का इम्तिहान लेती हैं!लेकिन इस कविता ने मुझे थोडी छूट दे दी है.
मन करता है
निगल जाऊं आग की कलियों को
भर दूँ जीभ में
गति तीव्रता का ...
..वाह वाह... .बहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति है.बहुत अच्छी कविता है.बधाई.
धन्यवाद.
बहुत सुंदर सुनीता जी। हर बार की तरह।
पर एक बात बताइये, आप की सभी कविताओं के शीर्षक "अ" अक्षर से क्यों शुरू होते हैं? ऐसा आप जानबूझ कर करती हैं?
"इतिहास की चप्पल छिपाकर
फ़िर निकल पडूँगी चुपचाप
जिस ओर ले जाएगी कविता .... "
सुनीता जी, अच्छा लिखा है मगर अब कविताओं के रुख बदलिए...आपकी कविताओं के किरदार अंत में थके, लुटे-पिटे से क्यों रह जाते हैं...समयको शब्द बदलेंगे..कम से कम हम तो अपने हारते किरदारों को आशा दे सकते हैं....अगली बार अपने किरदार को एक जीत की खुशबू दीजियेगा, फ़िर देखियेगा कितनी राहत मिलेगी..
निखिल
"इतिहास की चप्पल छिपाकर
फ़िर निकल पडूँगी चुपचाप
जिस ओर ले जाएगी कविता .... "
सुनीता जी, अच्छा लिखा है मगर अब कविताओं के रुख बदलिए...आपकी कविताओं के किरदार अंत में थके, लुटे-पिटे से क्यों रह जाते हैं...समयको शब्द बदलेंगे..कम से कम हम तो अपने हारते किरदारों को आशा दे सकते हैं....अगली बार अपने किरदार को एक जीत की खुशबू दीजियेगा, फ़िर देखियेगा कितनी राहत मिलेगी..
निखिल
"इतिहास की चप्पल छिपाकर
फ़िर निकल पडूँगी चुपचाप
जिस ओर ले जाएगी कविता .... "
सुनीता जी, अच्छा लिखा है मगर अब कविताओं के रुख बदलिए...आपकी कविताओं के किरदार अंत में थके, लुटे-पिटे से क्यों रह जाते हैं...समयको शब्द बदलेंगे..कम से कम हम तो अपने हारते किरदारों को आशा दे सकते हैं....अगली बार अपने किरदार को एक जीत की खुशबू दीजियेगा, फ़िर देखियेगा कितनी राहत मिलेगी..
निखिल
बहुत सुंदर भाव हैं , बहुत अच्छी कविता है ,शुभकामनाएं (सच कहूं तो कुछ समझी और कुछ नहीं समझी )
पूजा अनिल
दिल में सूरज,
आँखों में अमावास लिए
बार- बार गढे-टूटे आहत स्वप्न को भी
प्रतीक्षा के उत्कंठ नृत्य में
उसका चेहरा अब नजर नहीं आता..
फ़िर
मैं ढूँढने लगी धुएँ में ,धूंध में
कम्पकम्पाती ताल में ,
जब तक टटोलती
वह अदृश्य
अच्छी रचना badhayi
सुनीता जी,
अबोली के बारे में आपसे सुन कर इस कविता का मह्त्व और बढ गया... जो दर्द और चित्कार इस कविता में छुपी है... ईश्वर अबोली को स्वस्थ कर के हास्य में बदल दें ऐसी मेरी ईश्वर से प्रार्धना है...
भावपूर्ण कविता के लिये बधाई
अबोली...!
बस तुम और मैं
वीणा के दो तार
अनछुए होने के बावजूद
बज उठेंगे एक तान से
और इस व्यथा को
उछाल देंगे आकाश गंगा में
हल्का हो जाएगा सीना ..........
यही तो उपजता है मधुर संगीत ,वो अहसास जो आंदोलित करता है मन
अरे अभी तो संगीत शुरू होना था और आपकी कविता पहले ही ख़त्म हो गयी , चलो अब नया संगीत लेकर आओ :)
सुनीता जी!
अबोली के बारे में मुझे जानकारी न होने के कारण कविता पूरी तरह से समझ नहीं पाया हूँ। हाँ, लेकिन जितना भी समझा हूँ, उससे लगा कि दु:ख और वेदना की बातें की गई हैं। कविता सुग्राह्य होत-होते रह गई है, ऎसा मुझे लगता है,क्योंकि शब्द कठिन न होने के बावजूद भाव पूरी तरह से ज़ेहन में नहीं उतरते। हो सकता है कि यह केवल मेरा ख़्याल हो।
कुछ बिंब बेहद सराहनीय हैं और यह तो आपकी खासियत भी हो चुकी है। ऎसे हीं लिखती रहें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
अबोली....अब नहीं रही ....जो लगातार छह साल तक मेरी इर्द गिर्द घूमती रही ...कभी मुझसे चोटी बंधवाती तो कभी स्कर्ट में पिन ....कभी बच्चों की तरह जिद पे अड़ जाती ..उसे हमेशा प्यार और अपनापन की जरुरत थी ..हर बात कहने के बाद प्यारी-सी मुस्कान के साथ ...क्यों ...? पूछती थी ..बहुत साहसी भी थी तभी तो पिछले डेढ़ महीनों से लड़ती रही अपनी बीमारियों से ...कहती थी मैंम ...आप मुझसे मिलने क्यों नहीं आये ....?मैं भागकर चली जाती ...उसके दोनों किडनी फ़ैल हो चुके थे ...फेफडे निमोनिया के शिकार थे ...इन्फेक्शन बुरी तरह से घर कर गया था ..मेरा मन करता था कब ये लड़की यहाँ से उठकर भाग आए और हम देर तक बैडमिनटन खेलें ...नहीं अब शायद कुछ और न लिख सकूं ..अबोली ...शायद कविता नहीं थी ... कुछ भाव थे ...जीवन में इससे अधिक निराश कभी न हुई ....ईश्वर उसकी आत्मा को शांति प्रदान करें ...
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