देवता !
यह तुम्हारा
अदभूत दीप्तिमान मुखमंडल
लकदक वेशभूषा
अस्त्र-शस्त्रों से सज्जित
तुम्हारे इस जादुई रूप का आकर्षण
भयानक है
जो निठल्लों को लुभाता है
डराता है कायरों को
और उससे भी भयानक है
तुम्हारी यह झूठी और मादक महिमा
जो मतवाला बना बना देता है
जिसके बूते तुम बिराजते हो
बडे ही ठाठ-बाट के साथ
जगह-जगह नाना रूपों में
लोग करते हैं मनमानी
तुम्हारा ही नाम ले-लेकर
छीन ले रहे हो हमारी धरती
हमारी शांति हमारी एकता
तुम्हें, शर्म नही आती ?
*****
डॉ.नंदन ,बचेली , बस्तर (छ.ग.)
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
डराता है कायरों को
और उससे भी भयानक है
तुम्हारी यह झूठी और मादक महिमा
जो मतवाला बना बना देता है
जिसके बूते तुम बिराजते हो
बडे ही ठाठ-बाट के साथ
जगह-जगह नाना रूपों में
लोग करते हैं मनमानी
तुम्हारा ही नाम ले-लेकर
छीन ले रहे हो हमारी धरती
हमारी शांति हमारी एकता
तुम्हें, शर्म नही आती ?
" क्षमा करें, मगर समझ नही आया की क्या ये पंक्तियाँ देवता यानी भगवान पर लिखी गईं है, देवता तो सर्वव्यापी है, और सब उनको मानते है, तो फ़िर इन पंक्तियों का क्या अर्थ है .............खास कर आखरी पंक्ती का ???????
Regards
देवता को ललकारना भी पढ़ लिया,अज तक बस पुकारा ही था,
अगर कविता किसी सत्ता धरी के खिलाफ है तो शायद हम आपसे सहमत है,अगर विश्वास की मूरत भगवन से सिद्ध सवाल है ,तो तरीका ग़लत है ,आखरी सवाल अच्छा नही लगा, पत्थर में कितना विश्वास करना है ये हर इन्सान का निजी मामला है,मगर ,पत्र से गंगा का उगम होता है,और उससे ही जीवन का.
तुम्हारे इस जादुई रूप का आकर्षण
भयानक है
जो निठल्लों को लुभाता है
डराता है कायरों को
और उससे भी भयानक है
तुम्हारी यह झूठी और मादक महिमा
जो मतवाला बना बना देता है
तुम्हारा ही नाम ले-लेकर
छीन ले रहे हो हमारी धरती
हमारी शांति हमारी एकता
तुम्हें, शर्म नही आती ?
बेहतरीन रचना..गंभीर प्रश्न के साथ।
बधाई स्वीकारें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
नंदन जी, यह कविता उलझन में डालती हैं .. देवता !यह तुम्हारा ... से लेकर ..जगह-जगह नाना रूपों में ... तक का भाग ठीक लगा उसके बाद
लोग करते हैं मनमानी
तुम्हारा ही नाम ले-लेकर
छीन ले रहे हो हमारी धरती
हमारी शांति हमारी एकता
तुम्हें, शर्म नही आती ?
कहीं कोई पंक्ति छूट तो नहीं गयी ..सुरिंदर रत्ती
नंदन जी, यह कविता उलझन में डालती हैं .. देवता !यह तुम्हारा ... से लेकर ..जगह-जगह नाना रूपों में ... तक का भाग ठीक लगा उसके बाद
लोग करते हैं मनमानी
तुम्हारा ही नाम ले-लेकर
छीन ले रहे हो हमारी धरती
हमारी शांति हमारी एकता
तुम्हें, शर्म नही आती ?
कहीं कोई पंक्ति छूट तो नहीं गयी ..सुरिंदर रत्ती
नन्दन जी,
कविता में यदि 'देवता' व्यग्यात्मक दृष्टिकोण से किसी विषेश को इंगित करता है तब कविता सटीक व्यग्य बन जाती है, मगर देवता यहाँ पर देवता के लिये ही प्रयुक्त है तो वास्तव में उलझन भरी रचना है..
कृपया स्पष्ट करें..
नही समझा ????
अवनीश तिवारी
लोग करते हैं मनमानी
तुम्हारा ही नाम ले-लेकर
छीन ले रहे हो हमारी धरती
हमारी शांति हमारी एकता
तुम्हें, शर्म नही आती
इन पंक्तियों का क्या अर्थ है ?
क्यों और किसलिए लिखा है स्पष्ट करें
आपकी कविता बड़ी उलझी हुई लगी | काफ़ी कोशिश करने के बाद भी इसका ठीक अर्थ नहीं निकाल पा रहा हूँ |
अगर ईश्वर के सन्दर्भ में ही देखें तो आपकी बात मुझे कुछ उचित नहीं लगती !
आक्रोश कविता में उभरकर आया है, प्रार्थना आडम्बर बन गई है, और धार्मिक होना फैशन हो गया है, लेकिन फ़िर भी यदि पाखंडों से इंसान नही बदलते तो दोष देवता का नही है.... अपनी करनी के लिए जिम्मेदार हम ख़ुद हैं...
आती है भाई ... आती है .. .
पर कर भी क्या सकते हैं .... ये अस्त्र-शस्त्र , वेशभूषा ... वगेराह वगेराह ... किसी कायर को डराने के लिए नही हैं ...न ही निठल्लों को लुभाने के लिये है .... ये तो बस एक स्वरुप है .. क्यूंकि आम आदमी फटी हुई धोती पहने भगवन की पूजा नही करता ... वो तो भगवन से कुछ मांगने आता है ... अगर उसने भगवन को ही फटी धोती मे देख लिया तो बेचारे का दिल नही टूट जाएगा.. ??
और जो लोग अपनी मनमानी करते हैं वो इसलिये क्यूंकि तुम लोग उनको मनमानी करने देते हो ... तुम लोग कायर हो जो प्रथाओं को बदलना नही चाहते ... सब सहते हो ... क्यूंकि तुम लोग कायर हो ... डरते हो समाज से ... डरते हो ... मुझसे ???? क्या मैं डरावना हूँ ??
देखो .... जो लोग मुझसे नहीं डरते .... वो कितने आराम से जीते हैं .........
नंदन जी,
आप बहुत सफल कवि हैं। आपने जो आवाज़ उठाई है वो हर तरफ से उठनी चाहिए। मान्याताओं की पुनर्समीक्षा होनी ही चाहिए।
नंदन जी आप्की कविता पर नि:संदेह प्रश्न उटायेजा सकते है पर जो भाव आपने प्रस्तुत किये है वो वर्तमान परीवेश मे बिल्कुल सटीक है इसलिये आपको इस रचना के लिये बधाई
बेहतरीन रचना है नंदन जी। कुछ हीं कवि ऎसे प्रश्न उठा पाते हैं और वो भी बिना किसी मर्यादा को पार किये हुए। आपकी रचना सफल है।
आपका स्पष्टीकरण पढ चुका हूँ, इसलिए बाकी मित्रों की तरह अंतिम पंक्ति में मुझे कोई उलझन नज़र नहीं आई। इसमें बाकी मित्रों का कोई दोष नहीं है :),बस मैं कुछ लेट आया, इसी का फायदा मिला मुझे ।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
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