हमारा एक बाग था
अमियों, जामुनों, पपीतों, शहतूतों का
घर के आँगन में हमने
लगाए थे फूलों के पौधे
सदाबहार, रात की रानी, गेंदा, गुलाब
हम पढ़ते थे
चंपक, नंदन, लोटपोट
और खेलते थे
अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो
पोशम्पा भई पोशम्पा
या कंचे।
हमें भूख लगती थी
तो खीर-हलवे
या गर्मियों में हद से हद
घंटी बजाने वाले की
मलाईदार कुल्फियों के लिए
रोते थे।
लम्बे-चौड़े
ऊबड़ खाबड़
झाड़-झंखाड़ों के मैदानों में
खेलते थे लंगड़ी टाँग
या सरकंडों से खोदते थे
जमीन के ऊपर सुरंगें।
रात को जब
बिजली अचानक गुल हो जाती थी
तो कनस्तरों पर पैर रखकर
टाँड पर चढ़कर
हम तेल की डिबिया
ढूंढ़कर लाते थे।
रात को छतों पर
कतार में बिछी
खाटों पर लेटकर
हम देखा करते थे
तीन तारों वाली हिरणी
और उत्तर में सप्तऋषि
और देर तक
कठफोड़वे, तोते, बुलबुल
और सियार, बारहसिंगे, दरियाई घोड़े भी
अपनी उंगलियों से
उड़ाते रहते थे।
उन दिनों,
जब हमारा स्कूल
एट थर्टी टू वन थर्टी नहीं
साढ़े आठ से डेढ़ तक खुलता था
तो आधी छुट्टी में
हम झूम जाते थे
बुढ़िया के गुलाबी बालों पर,
ट्यूजडेज़ नहीं
मंगलवार की शाम के
बाज़ार से खरीद लाते थे
आमपाचक की ढेरों पुड़ियाएँ।
फिर हम बड़े हुए
और हमने इन्हीं गोल-गोल
ढिबरी जैसी आँखों से देखा
एक बूढ़े देश का
जवान होना।
उनकी दुनिया सिकुड़ी
तो हमारे कनस्तर
पहले डिब्बे,
फिर बॉक्स बन गए।
जुगनुओं जैसे प्यारे तारे
ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार हो गए।
बच्चे पैर पटककर
चिप्स की ज़िद करने लगे,
मैगी खाने लगे।
हमारे देखते देखते
खट्टे अंगूर
मीठे ग्रेप्स कहकर
बेचे जाने लगे।
कुछ हुआ अचानक
और हम समझ भी न पाए
कि हमारे बुढ़िया के बाल,
खाटें, तेल की डिबिया,
कठफोड़वे, बारहसिंगे और सप्तऋषि
हमसे नाराज़ होकर जाने लगे।
हमने देखा
एक समृद्ध भाषा के
शब्दकोष का
आश्चर्यजनक ढंग से
छोटा और अपर्याप्त हो जाना।
हमने देखा एक संक्रमण
जिसमें एक बहुत मीठी भाषा
और उसकी संस्कृति,
फूल, पत्ते, फल, पेड़, जानवर
समय, दिन, त्योहार, दिशाएं
बर्तन, पकवान, किताबें
आँसू, मुस्कुराहटें, शिकायतें, उलाहने
मेले, गीत, खेल-तमाशे
अदरक, तुलसी, चूर्ण, मसाले
पगडंडियाँ, बस्तियाँ, मोहल्ले
भरे बाज़ार लुट गए
और मज़ाक बन गए।
हमने देखा है
अपने अपमान का
भूमण्डलीकरण।
हमने मुस्कुराकर
देखा है चीरहरण
बीच बाज़ार।
अभी होना है बलात्कार,
हमें देखनी है हत्या भी फिर।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
29 कविताप्रेमियों का कहना है :
waah gaurav.....bachpan yad dila diya aapne...bahut achchi aur sachchi rachna hai..beautiful.
गोरव जी मै तो केवल इतना कह सकता हू कि परिवरतन पिरकिरती का नियम है, वैसे भी हमारी गीता कहती है कि क्यो व्यर्थ चिन्ता करते हो जो हुआ अच्चा हुआ और जो हो रहा है वो भी अच्चा हो ---------
think globally.
वाह गौरव जी ! आपकी कविता तीर की तरह
सीधी दिल में घुस जाती है
हमने देखा है
अपने अपमान का
भूमण्डलीकरण।
हमने मुस्कुराकर
देखा है चीरहरण
बीच बाज़ार।
अभी होना है बलात्कार,
हमें देखनी है हत्या भी फिर।
" वाह , भोले से बचपन का इतना सुंदर चित्रण और अंत मे फ़िर एक जीवन की कड़वी सच्चाई का वर्णन , बहुत खूब "
Regards
गौरव नतमस्तक हूँ तुम्हारी इस रचना पर, क्या लिखा है मेरे भाई, मेरे लिए यह एक सम्पूर्ण कविता है, कोई एक या दो पंक्तियाँ नही वरन सारी की सारी कविता एक भोगा हुआ अनुभव सा लगा...मेरे पास और शब्द नही हैं तारीफ के लिए, बस... अफरीन... अफरीन .....
हमेशा की तरह बहुत ही सार्थक सच को कहती है आपकी यह रचना भी गौरव जी ..अच्छा लगा इस को पढ़ना !!
"हमने देखा है
अपने अपमान का
भूमण्डलीकरण।"
बहुत ही सशक्त अंदाज़ में आपने आज के तथाकथित प्रगतिशील समाज की विडंबनाओं को उभारा है...
गौरव, मैंने आपकी पूरी कविता पढ़ी, एक एक शब्द वही है जो मेरे मन में चल रही बात बयान कर रहा है। अभी कल ही मैंने एक गेम देखा जिसमें ११ साल के बच्चे को कम्प्यूटर की C भाषा सिखाने के लिये बनाया गया है।११ साल..ये पढ़कर मैं हैरान रह गया। दोस्तों से जिक्र किया तो उन्होंने कहा कि देश एडवांस हो रहा है। और ये सही है।
मेरे कुछ साथी ऐसे हैं जो बिना ए.सी के रह ही नहीं सकते। मेरे साथ काम करने वाले एक सर हैं जिनका बच्चा छोटा है और घर से बाहर निकलने पर रोता है। कारणः घर में ए.सी है और बाहर नहीं। ये जवान भारत की तस्वीर है।
मैं अक्सर एक सवाल कभी कभी सोचता हूँ और अपने आप से पूछता हूँ, आज वही आपके समक्ष रख रहा हूँ। क्या हम पागल हैं और दुनिया को समझ नहीं पा रहे हैं इसलिये हम ऐसा सोचते हैं, या फिर दुनिया हमें समझ पाने में भूल कर रही है???
गौरव ,हमारा बचपन याद दिला दिया साथ ही अब बडे हो रहे बच्चों का भी- साफ परिवर्तन दिखता है। भागने-दौडने वाले खेल तो भूली-बिसरी बातें हो गये हैं। कई बार अफसोस होता है।रचना सार्थक है।
जाने क्यों "अतीत का गुणगान और वर्त्तमान की निंदा" कवियों को अत्यंत प्रिय है। और कल्पना के प्रवाह में वे कब सत्य से विमुख हो जाते हैं पता नहीं चल पाता। चंपक, नंदन और लोटपोट इस गरीब देश में कितने बच्चे पढ़ पाते रहे होंगे यह विचारणीय है। जबकि सबको रहने को जमीन भी दूभर हो वैसे में बाग लगाने की बात......
रविकांत जी, बाग लगाने का अर्थ सच में बाग लगाना नहीं था। कविता कुछ भुला दिए गए शब्दों और एक तहज़ीब की याद में है।
रही बात कवियों की इस बेकार की आदत की तो मैं कुछ कहना नहीं चाहता। आप जैसा चाहें, वैसा सोचें।
रविकांत जी, जितने बच्चे पहले चंपक, नंदन, बालहंस, चंदामामा जैसी पत्रिकायें पढ़ते थे उसका दसवां हिस्सा भी आज की तारीख में नहीं पढ़ रहे हैं। और जहाँ तक मैं समझ रहा हूँ कि अरबपतियों की तादाद इस देश में बढ़ रही है, तो क्यों आज इनका खरीददार नहीं है। आपके मुताबिक जब पहले देश गरीब था तब ये ज्यादा लोग नहीं पढ़ते थे तो अब जब so called Young और अमीर देश हो रहा है तब पैसे नहीं हैं ये पढ़ने के? चंदामामा तो बंद हो गई थी अभी फिर हाल ही में दोबारा शुरू हुई है और ये सीना चौड़ा करने वाली बात नहीं है ये शर्म आने वाली बात है।
और आप इसे यदि वर्तमान की निंदा कहते हैं तो यही सही। लेकिन एक बात पक्की है ये अमीर होता देश मन, व्यवहार और नैतिकता से गरीब होता जा रहा है।
गौरव जी, कविता का मूल समझ रहा हूँ मेरे लिखने का कुल कारण इतना था कि आपकी अन्य रचनाओं में जो धार दिखती है उसका इसमे अभाव है। क्योंकि आपकी रचनाएँ जमीनी हकीकत से जुड़ी होती हैं बाग का नंबर तो उसके बाद आता है। शब्द तो केवल साधन मात्र हैं उनमें निहित भाव ही प्रमुख है। इन सब तथ्यों के आलोक में आपसे कवियों की इस आदत से कुछ अलग की अपेक्षा स्वाभाविक है।
तपन जी, बात यहाँ साधन और साध्य की है। तो साधन तो बदल सकता है इससे ऐतराज़ क्यों?? जो काम ये पत्रिकाएँ तब करती थीं वो आज अन्य साधनों से संभव है तब पूराने की ज़िद क्यों। उचित होगा की द्रूष्टि साध्य पर हो। और मैं ये नहीं कहता कि सारा अतीत गलत था या सारा वर्त्तमान स्तुत्य है। मेरे कहने का आशय सिर्फ़ यह था कि तथ्यों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है आजकल और ये बात केवल इस कविता के लिए नहीं कही थी। और जो कुछ आज आप देख रहे हैं इस्का बीज तो अतीत में ही था आज तो सिर्फ़ इसमे अँकुरण हो रहा है। क्या वॄक्ष बिना बीज के हो सकता है?? लेकिन जब आप सारे अतीत को सुखद मानते हैं तब आप बीज को ही इनकार कर रह्हे हैं फ़िर यह बीज विकसित हो और पुष्पित-पल्लवित हो तो इसमे आश्चर्य ही क्या है?? नहीं ,इनकार समस्या का हल नहीं है वरन इसका स्वीकार इसे नष्ट करने की दिशा में उठाय गया पहला कदम होगा।
पेड़ पौधे फल फूल भी यदि ज़मीनी हक़ीकत नहीं हैं, तो क्या है?
बालहंस चार रुपए में आया करती थी। उसे खरीदने के लिए करोड़पति होने की जरुरत नहीं थी और सब सरकारी स्कूलों के पुस्तकालयों में मुफ़्त में मिलती थी। आप पता नहीं अमीर गरीब कहाँ से ले आए!!
मैंने जितनी चीज लिखी हैं, उनमें बहुत पैसे की जरूरत नहीं थी।
हाँ, जिन वर्तमान के साधनों से आपको वे जरूरतें पूरी होती दिख रही हैं, उनमें पैसे की बहुत जरूरत है।
आपको ऐसा लगता है कि कार्टून नेटवर्क वही पत्रिकाओं वाला काम कर रहा है तो बढ़िया है।
संतुष्ट रहिए, प्रसन्न रहिए।
behad achchha hai bhai hamesha ki tarah.
or haan main kahna chahungi ki privartan prakarti ka niyam hai lekin achchha bura hame khud hi chunna hota hai aaj agar ham dekhe to har ek desh parivartit ho raha hai lekin vo apne purane muliyo se juda hua hai, apni sanskrti ko sahej kar aage badh rahe lekin purani chijo ko pichhe chhod kar nahi balki unhi ke saath or sahi artho me aage badhna tabhi saarthak hai jab hum apne muliyo or sanskarti ko saath le kar chale
vaise mujhe aaj bhi campak nandan achchhi lagti hai
रविकांत जी, क्या आपने चंपक व चंदामामा कभी पढ़ी हैं??? यदि हाँ, तो मैं आपको एक कार्टून चैनल का नाम बताता हूँ "जैटिक्स"। इस पर आप रेसलिंग देख सकते हैं (खली वाली)। और हर चैनल पर आपको मारधाड़ वाले कार्टून मिल जायेंगे। मुझे, आपके वर्तमान के साधन और पहले के साधन में जमीन और आसमान का अंतर नज़र आता है। क्या आप नहीं देख पा रहे हैं??
दूसरी बात, आपका साधन १५००० (अगर कम्प्यूटर पर वीडियो गेम्स की बात करें) और २५०-३०० प्रतिमाह (केबल) की खर्च पर मिलता है। और ऊपर दी हुईं यदि सारी पत्रिकायें भी खरीदें तो भी ३० प्रतिमाह से फालतू नहीं बैठेंगी।
एक बात और आजकल झुग्गियों में आपको केबल मिल जायेगा लेकिन अरबपतियों के यहाँ चंपक नहीं।
इस देश की विडम्बना है।
अच्छी रचना गौरव जी
बधाई आपको
मुझे मेरा बचपन याद आ गया किंतु अब उन सब चीजों के लिए तरसना पड़ता है
बहुत खूब
I am fully agreed to the statement given by Mr. Ravi Kant ji:
"जो कुछ आज आप देख रहे हैं इस्का बीज तो अतीत में ही था आज तो सिर्फ़ इसमे अँकुरण हो रहा है। क्या वॄक्ष बिना बीज के हो सकता है?? लेकिन जब आप सारे अतीत को सुखद मानते हैं तब आप बीज को ही इनकार कर रह्हे हैं फ़िर यह बीज विकसित हो और पुष्पित-पल्लवित हो तो इसमे आश्चर्य ही क्या है?? नहीं ,इनकार समस्या का हल नहीं है वरन इसका स्वीकार इसे नष्ट करने की दिशा में उठाय गया पहला कदम होगा।"
You can not blindly blame to all the things. Here, Gaurav ji is trying to bring some old glory in our notification and feels that they are more quality materials than the present available ones. And he succeeds in his effort and i also agreed to that. However, i personally can not compare the present situation as worse as depicts here:
हमने मुस्कुराकर
देखा है चीरहरण
बीच बाज़ार।
अभी होना है बलात्कार,
हमें देखनी है हत्या भी फिर।
We can not run away with the responsibilities of preserving such things.Thats not important who, how and when the seeds of such things sprouted, the main point is that we allowed them to grow and make them a plant. Have you ever done gardening? So many unwanted plants sprouted here and there, and when you see them, you dig them out so that your garden will remain beautiful. Here you never know how they come and also thats not important. What the important is, they come and you did not allow them to grow. We are now living in a global environment where you can never set an entry point for each and every thing. Its own consciousness that what you like to do and what you want to avoid.
When i was the child, my grandfather had set up a free library. The library was updated with the books ranging from children level (Champak, Suman Saurabh, Chanda Mana etc) to old level (like Kalayan etc) every month. One day he gave me a book to read and i liked it. Soon my interest goes up in reading such type of books and i used to go every week and gets a new copy to read. At that time, Comics were very much popular like Nagaraj, Super Commando Dhruv etc. My father and my grandfather saw them as bad things and never allowed to enter such thing in his own maintained library. Whole society was benefited by this move and he also loves to see that people are getting some good stuff to read.
Simply crying is not a solution. You can not stop a person to introduce a new thing. Every person has his own definition of good and bad. The main thing is what are your efforts to come out from this situation. Here also, you can take the example of "Hind Yugm". Some good people feels that "Hindi" is loosing his ground and charm. A person sprouted a seed of Hind-Yugm and devoted his time and efforts for providing him the same status. Soon some others who wanted to do something joins his effort.
I fully agreed with the below statement :
"ये अमीर होता देश मन, व्यवहार और नैतिकता से गरीब होता जा रहा है।"
Thats the reason we are here and trying to light a candle of such sensitive issues in the readers mind. Thats the reason we all are here to build a platform which bring back life to all old good things. Thats the reason we are here to force the reader to think on such issues or i love to say treasures which he is losing in his fast and busy lifestyle.
Agreed with the statement:
"जितने बच्चे पहले चंपक, नंदन, बालहंस, चंदामामा जैसी पत्रिकायें पढ़ते थे उसका दसवां हिस्सा भी आज की तारीख में नहीं पढ़ रहे हैं।"
But are not we responsible for such situation. We all are responsible. We are so busy in ours life that we forget about every thing. After my grandfather' death....the same library is no more. I liked those books but i have no shame to say that i have never again bought any such book either for me or for a known person. Not because i am lack of money...but because i feel that i was so busy either through studies, TV etc...that forget about such these. Its not i am bad enough for these treasures and a cause for their present status?
"आपको ऐसा लगता है कि कार्टून नेटवर्क वही पत्रिकाओं वाला काम कर रहा है तो बढ़िया है।"
and
"एक कार्टून चैनल का नाम बताता हूँ "जैटिक्स""
If you feel that the above channels are bad for your child's growth, just stop viewing. There are many others which are more worse that these but people view them happily with all their family members. Is this fair? So many channels still to come .... are you going to kill those persons? How many people you kill? What can you do...is to decide what is good for you, your family and also for your society.
गौरव..
पूरे दिन की व्यस्तता के बाद जैसे ही हिन्द युग्म खोला और तुम्हारी रचना पढी थकान काफुर हो गयी। तुम्हारी प्रशंसा करने के लिये अब शब्द कम पडने लगे हैं..तुम्हारा लेखन परिपक्व है और गहरा है।
एक और बेहतरीन कविता तुम्हारी कलम से..
*** राजीव रंजन प्रसाद
वाह गौरव भाई ! बधाई हो !
क्या बात है, " बदले-बदले से सरकार नजर आते हैं ! बहुत सुंदर रचना है ! विशेष धन्यवाद इस लिए कि इस में आपने अपनी गरिमामयी लेखिनी को एक नया आयाम दिया है !
प्रभात शारदा जी, You have very good understanding...it must be appreciated.
गौरव जी, यदि जमीन न रही तो पेड़, फूल, फल क्या हवा में टिकेंगे?? और सरकारी विद्यालयों के पुस्तकालय की स्थिति यह है कि बच्चों को किताबें नसीब नहीं होती, उनपर शिक्षकों का एकाधिकार होता है।
तपन जी, आप जो पैसेवाली बात कर रहे हैं जरा सोचें इसपर....फ़िर तो आपके हिसाब से दुनिया में वायुयान पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए क्योंकि इस्में बैलगाड़ी, बस या ट्रेन से ज्यादा खर्च है!! मेरे देखे तो यह सिर्फ़ मानवीय प्रतिभा का अनादर है और कुछ नहीं।
साधन के प्रति कोई भी दुर्भावना उचित नहीं है। हाँ इतना अवश्य होना चाहिए ्कि जो इतने संपन्न नहीं है कि इनका खर्च वहन कर सकें उनकी स्थिति को सुधारा जाए।
गौरव !
कुछ हुआ अचानक
और हम समझ भी न पाए
कि हमारे बुढ़िया के बाल,
.......... और सप्तऋषि
हमसे नाराज़ होकर...
जाने लगे।
हमने देखा
एक समृद्ध भाषा के
शब्दकोष का
आश्चर्यजनक ढंग से
छोटा और अपर्याप्त हो जाना।
हमने देखा एक संक्रमण
जिसमें एक बहुत मीठी भाषा
और उसकी संस्कृति,
फूल, पत्ते, ....
पकवान, किताबें
आँसू, मुस्कुराहटें, शिकायतें, उलाहने
मेले, गीत, खेल-तमाशे
अदरक, तुलसी, चूर्ण, मसाले
पगडंडियाँ, बस्तियाँ, मोहल्ले
.....मज़ाक बन गए।
हमने देखा है
अपने अपमान का
भूमण्डलीकरण।
हमने मुस्कुराकर
देखा है चीरहरण
बीच बाज़ार।
अभी होना है बलात्कार,
हमें देखनी है हत्या भी फिर।
सीधे मर्म पर प्रहार करते हुये .......
बहुत ही सुंदर रचना है, कवि जो कहना चाहता है वो स्पष्ट तौर पर दृष्टिगत होता है,पड़ने के लिए एक लय है जो कविता मे अंत तक बनी हुयी है , कविता पड़कर और बीता हुआ कल याद करके एक स्वाभाविक मुस्कान आती है . हिन्दी को जीवित रखने के लिए सभी को मिल जुल कर ही प्रयास करना होगा,बूँद-बूँद से सागर बनता है और यहाँ तो मुझे बहुत सी बूँदें दिख रही हैं ,गौरव जी और हिंद युग्म को शुभकामनाएं
पूजा अनिल
अच्छी रचना है, लेकिन तुम्हारी पुरानी रचनाओं की तरह की धार बस अंतिम पंक्तियों में नज़र आई है...बाकी में लगा है कि मानो एक हीं बात को लंबा खींचा गया हो। ध्यान रखना आगे से :)
-विश्व दीपक ’तन्हा’
गौरव जी आपकी कविता ने बचपन याद दिला दिया , पर आगे के लिए मई बहुत हद तक रवि कान्त जी से सहमत हू और मेरा ख़ुद का अनुभव भी है और मानना भी "ज़माना अब भी वही है , कुछ बदला है टू केवल हम ,कभी पीछे मुड़कर देखा ही नही , की हमारे पीछे एक लम्बी पंक्ति है जो उसी पथ के पथिक है जिस पर चलकर हम आगे बढे है , आपकी कविता से विपरीत भाव व्यक्त करती मैंने भी एक कविता लिखी थी , अप्रकाशित है ... इस लिए हिंद-युगम मी आज ही भेजती हूँ , शायद पसंद आए और प्रकाशित भी हो ......सीमा सचदेव
एक अच्छी रचना| बचपन याद आ गया |
अच्छी कविता है गौरव.
' एक बूढ़े देश का
जवान होना।
उनकी दुनिया सिकुड़ी
तो हमारे कनस्तर
पहले डिब्बे,
फिर बॉक्स बन गए।'
बहुत अच्छी तरीके से बदलती स्थिति की और ध्यान खींचा है.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)