मैं दिखती हूं शान्त
किन्तु अन्तर्द्वन्द से घिरी मैं
एक असाहयता का अनुभव करती हूं
जब-तब पढ़ती हूं -
समाचार पत्रों में
दहेज की बलिवेदी पर
एक और जान-कुर्बान
या
लड़के की चाह में कन्या भ्रूण हत्या
सोच नहीं पाती
कैसे एक नारी दूसरी को जलाती है
क्यों एक मां अपने ही अंश को त्याग देती है
दोषी कौन?
मानसिकता ,समाज या खुद
कोई भी
पर दंश देती भी नारी है
सहती भी नारी है
शतरंज की बिसात पर
मोहरा बनती भी नारी है
और तुम-
मूक दर्शक से देखते हो तमाशा
संचालन तुम्हारा है
पर
कठपुतलियां तो नारी हैं।
मैं अब भी नहीं सोच पाती
हमारी नियती तय करना
क्यों हमारे ही हाथ नहीं
प्रगतिशील बनने का दावा
करते हो तुम
पर मानसिकता के धरातल पर
अब भी हो सामन्तवादी।
पुरूषवादी सोच से विरत ना होकर
दिखावा करते हो-
मुलम्मा चढ़ाते हो
पर फिर भी
हकीकत सामने आ ही जाती है।
मैं अब भी अन्तर्द्वन्द से घिरी हूं।
कवयित्री- अनुराधा श्रीवास्तव
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45 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह क्या बात है, कविता तो प्यारी है पर इसे लिखने वाली सिर्फ एक नारी है.
जैसे दुनिया में केवल दो ही जात ऊपर वाले ने बनाकर भेजा है, एक को दिए हथियार मजबूत बाजू के कमजोरों पर बरसाओ कोडे और खास तोर पर ये हिदायत दी, के कभी अपनी जात(पुरुष) पर हाथ मत उठाना, वो जो दूसरी प्रजाति है न, महिलाओं की उनको मत छोड़ना. और वही हम कर रहें हैं, उन्होने तो हमसे यह तक कह दीया की तुम्हारी ज़िंदगी में अगर सबसे ज्यादा इत्ज़त तुम्हें करना है तो बाप की करना, मा क्या चीज़ होती है, बहन भी तो एक नारी है उसका ख्याल भी मत रखो, भुआ, नानी, मौसी, मामी, चाची, दादी, सब के खिलाफ हो जाओ.
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खैर आपको जानकार आश्चर्य नहीं होगा के दुनिया में बुखार केवल नारी को होता है, मरती भी नारी है, शेर भी नारी को ही खा सकता है, क़र्ज़ के बोझ तले नारी ही दबी रहती है, स्कूल कोलेजों में दादागिरी का शिकार भी नारी ही होती है- गुंडे भी केवल नारी को ही पीटते हैं, नेता भी केवल नारी का शोषण करने गद्दी हथियाते हैं, मासूमियत और भोलेपन के अलावा कमज़ोर होना नारी की नियति है जो की एक बच्चे से भी ज्यादा कमज़ोर होती है,
आदमी चाहे कितना भी पतला हो वो औरत से ज्यादा भारी होगा इसकी तो भगवान गेरेंटी देता है ____________
दुनिया भर की आत्महत्या, मौते, कत्ल सिर्फ नारी ने ही देखि है, नारी की मासूमियत देखिये की जब- मिसेज शर्मा ने अपने पति का खून कर दिया। अदालत में जज ने उसे फाँसी की सजा सुनाई, तो मिसेज शर्मा रुआंसी होकर बोली हुजुर! रहम कीजिए, मैं विधवा हूँ।
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आज जबकि ज़माना आगे बढ़ता जा रहा है तब हम यह नहीं कह सकते की नारी शोषित हो रही है , या हरिजन शोषित हो रहा है, या अल्पसंख्यक शोषित हो रहे हैं. जबकि चिंता है पूरी धरती की सुरक्षा की. आज की तारिख में अगर २७००० महिलाएं दुनिया भर में सताई गई तो हम ये नहीं कह सकते की दुनिया की ७ अरब नारीं आज सताई गयी गई है, और पूरे दिन भी एक आदमी परेशान या कत्ल नहीं किया गया. याने पूरे ९ अरब आदमी सम्पूर्ण सुरक्षा और खुशी से हैं. हिसाब लगाएं दुनिया भर में हर दिन आदमी ओरतों से ज्यादा कत्ल किये जाते हैं. आप तो शोषित ओरतों की तरफ से आदमी को कठघरे में खडा कर सकती हैं , पर हम कत्ल किये गए आदमियों की तरफ से किसको कठघरे में खडा करें. बात मानवता की है, गुटबाजी की नहीं. पर अगर आपको नारी-नारी-नारी-नारी कहना ही अच्छा लगता है, तो क्या किया जा सकता है. अगर कुछ गाओं, कुछ शहरी घरों, या पुराना अनपद भारत के हिसाब से आपने ये कविता बनाई है तो ज़रा फिर से आज की समस्या पर गौर करें के जब ईराक पर हमला हुआ तो लाख कोशी के बाद भी काफी निर्दोष लोग मरे गए. अब आप जैसे लोग उन लाशों में भी बच्चों-बूढों की लाश के ढेर को भूलकर ओरतों की लाश की संख्या गिनने लगेंगे. और सिर्फ उनके लिए ही छाती पीटकर हाय-हाय चिल्लायेंगे.
चाहे कोई कुछ भी कहे,आज भी नारी शोषण चल रहा है इस बात से कोई मुह नही मोड़ सकता ,एक नारी दूजी की दुश्मन भी उस अहंकारी जाती पुरूष की पैसे की लालच से ही बनती ही ,बहुत अच्छी रचना है,बधाई
anonymous bhai sahab lamba chuda bhashan dena bandh karein,kehna hai to apne naam se kahiyega,ye benami kyun,?,aaj bhi padhi likhi aurat ka bura haal hai,gaon ki ladki ka kya hota hoga.
आप दूसरों की तरफ से क्यों बोलती हैं. आप अपनी बताइए आपका कैसे शोषण हुआ, इसी तरह क्या में भी अपनी प्रजाति पर ज़ुल्म का झंडा लिए फिरूं, जागृति का मौका मिले तो अपनी प्रजाति की ही समस्याएँ याद रखूं. रहने दीजिये गाओं हमने आपसे ज्यादा देखें हैं, प्रचारित छवि से बाहर निकालिए, रही बात अख़बारों, टीवी की तो उनको बस मौका चाहिऐ पर फिर भी क्यों नहीं छपती रोज़ १०-१२ खबरें ऐसी. क्योंकि ऐसा बहोत ही कम होता है जिसके खिलाफ आप(नारी) हैं और हम(नारा) भी. आप तो ऐसे कहते हैं जैसे आपके घरों में बाप-भाई नहीं हैं. क्या कभी वो किसी का शोषण करते पाए गए. जो आप पूरी प्रजाति को बदनाम कर रहीं हैं.
बचपन से सुनते आ रहे हैं, की नारी की बहोत कमज़ोर हालत के जिम्मेदार पुरुष हैं, तब मुझे याद है, में पापा की तरफ शक की निगाह से देखता था. सही दुनिया के सम्पर्क में आने से पहले में अपने आप को भी शक की निगाह से देखता था की में भी शायद बडा होकर बुरा बन जाने वाला हूँ और यह सोचकर मे ओरतों-लड़कियों से नज़र चुराने लगा था, क्योंकि मुझे लगता था की ये भी मुझे बडे आदमियों जैसा बुरा समझकर मुझ पर शक कर रहे होंगे. जब भी टीवी पर नारी शोषण की खबर आती तो मेरी धड़कने बढ़ जाती में अपने दादी-मम्मी-दीदी से नज़र नहीं मिला पाता था जैसे की में मुजरिम हूँ. जानते हें मेरी उम्र उस वक्त कितनी थी ९-१० साल की. उसपर मेरी भुआ, बुजुर्ग मा-बाप पर ज़ुल्म करते बेटा-बहु की फिल्म देखते हुए मुझे बार-बार तोंट करती 'की देख लो तुम बडे होकर ऐसा मत करना' मुझे लगता था की मेरे मम्मी-पापा मेरे बडे होने के बारे में सोच रहे होंगे की में भी शादी के बाद ऐसा हो जाऊंगा, मुझे पक्का यकीन हो चूका था की लड़कों का शरीर उसका दिमाग ऐसा ही होता है. में ऐसा ही होने वाला हूँ. तब से मेरी पूरी लाइफ स्टायल बदल गयी. में दब्बू और घुटा-घुटा सा रहता रहा, जब तक की मैनें असली ज़िंदगी के असली पात्र नहीं देख लिए पर जब देखे तो यकीं नहीं हुआ, कई बार होने के बाद मेने पाया के न लड़के इतने बुरे होते हैं ना लड़कियां इतनी पवित्र जैसा की दूरदर्शन प्रचारित करता था. मुझे नहीं याद की में बचपन में कभी इस चिंता से मुक्त रहा होंगा "की में बडा होकर बुरा बन जाऊंगा जो अपने मा-बाप को परेशान करेगा, औरतों को अकेला पाकर उन्हें परेशान करेगा. पर अब जब की सालों गुज़र चुके हैं और मेने अपने आप में ऐसी कोई बुराई नहीं देखी जो लड़कियों में नहीं होती. "कहने का मतलब यह है की में पक गया हूँ ये सब फिजूल की बात सुनकर देखकर-पढ़कर. में ऐसी बातें करने वालों को अपने बचपन खराब करने वाला दुश्मन समझता हूँ और अगर ये कुछ साल और चला तो में इस मानसिकता को मिटाने का ठेका ले लूँगा. भई किसी को खबर भी है की आपस में ऐसी बातें करने वाली आप अनजाने में बेफिक्री से अपने मासूम बेटे तक ये नस्ल भेद पहुंचा रही हैं जिससे वो बचपन से ही लड़की लड़कों को अलग-अलग खास नज़रों से देखना शुरू कर देता है. और मेरे ख्याल से ये प्रवत्ति एक नया संघर्ष शुरू कर सकती है.
भेदभाव कई जगह है और कई जगह नहीं भी है, लेकिन मैं कुछ हद तक 'बेनाम' भाईसाहब से भी सहमत हूं..खासकर इस अंतिम टिप्पणी से।
जितनी स्त्रियाँ लिखती हैं, उसका कम से कम 80% इसी एक विषय पर लिखा जाता है। लेकिन एक बात को बार बार लिखने से तो कोई लाभ नहीं है।
नारी की हालत इतनी भी बुरी नहीं है।
हम सबको एक नया समाज बनाना है तो उस आधे हिस्से को भी स्वयं को एक मनुष्य मानकर आगे बढ़ना होगा, न कि एक शोषित नारी मानकर बैठे रहना होगा। नारी होने की समस्या से भी इतर बहुत कुछ बुरा बुरा हो रहा है। मेरा सब लेखिकाओं से अनुरोध है कि कभी वह भी देखें। इस दर्द के अलावा भी दूसरों के दर्द को महसूस कीजिए, तब कोई इस तरह से शायद 'अनाम' कमेंट करके आप पर छद्म नारीवादी होने का आरोप न लगा पाए।
नारियों का शोषण कम हुया है लेकिन बंद नही |
अवनीश तिवारी
अनुराधा जी ! आपकी कविता बहुत अच्छी है
सोंचने को मजबूर करते है आपके भाव!
अब anonymous जी ! बात दोषारोपण तक सीमित न हो। सही विश्लेषण व सूझबूझ की
आवश्यकता है
इस बदलते युग में ’काला या सफेद’ बस एक निर्णय नहीं होता । हर मसले पर अलग अलग
परिस्थिति में अलग २ कार्य प्रणाली बनानी होती है
" रचना अच्छी है, कोई शक नही , मगर मुझे समझ नही आता हम लोग क्यों किसी के भी भाव या उसके लेखन पर बहस करने लगते हैं. आज के युग मे कोई भी कमजोर नही है, न नारी और ना ही पुरूष दोनों ही बराबर हैं, हाँ नारी पर शोषण तो होत्ता ही है कम या ज्यादा ये फ़िर एक बहस का विषय हो जाता है. बेहतर यही है दोनों एक दुसरे का सम्मान करते हुए अनुराधा जी की रचना को सकारात्मक रूप से देखें "
Regards
इतनी नाराज़गी पुरूष समाज से..... लगभग सभी कवियित्रियाँ इस विषय को इसी तरह से प्रस्तुत करती है.... आपस मुझे नयेपन की उम्मीद है .....
कविता भी पढी और उस पर आए कमेंट्स भी ...बहुत आक्रोश दिखा दोनों में :) शायद यही स्त्री पुरूष को पूरक करती भाषा है :) कितनी अजब बात है की दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ..फ़िर भी इसी विषय पर खूब जम के बहस होती है ...कविता में जो विचार व्यक्त किए गए वह ग़लत नही है क्यूंकि आज भी स्त्री का शोषण तो होता ही है ..हाँ पर सर्फ़ पुरूष वर्ग को इस के लिए दोषी मान लिया जाए वह भी ठीक नही है ...मेरे ख्याल से एक दूसरे के दृष्टि कोण को समझने और एक दूसरे के विचारों को मान देने की आवश्यकता है ..बाकी सबकी अपनी अपनी सोच है और उसको व्यक्त करने के लिए हर कोई यहाँ आज़ाद है !!
अनुराधा जी, नारी शोषण आज भी जारी है, समाज सुधार की बातें, नारी शिक्षा की बातें केवल पन्नों में ही पढ़ने को मिलती हैं, असल ज़िंदगी की सच्चाई इसके विपरीत है, लचीली क़ानून व्यवस्था भी दोषी है, आपकी ये रचना नारी की पीडा को व्यक्त करती है .....
लड़के की चाह में कन्या भ्रूण हत्या
सोच नहीं पाती
कैसे एक नारी दूसरी को जलाती है
क्यों एक मां अपने ही अंश को त्याग देती है
दोषी कौन?
मानसिकता ,समाज या खुद
कोई भी
पर दंश देती भी नारी है ..
सही चित्रण किया आपने भ्रूण हत्या का ...
सुरिन्दर रत्ती
सबसे पहली बात की समाचार पत्रों में छपी हर खबर सच नहीं होती खासकर दहेज संबंधी। दूसरे शोषण नारी क होता है ऐसा नहीं है ज्यदा सही होगा अगर यों कहें-शोषण हमेंशा असहाय एवं कमजोर का होता है। आप देखें और पाएँगे कि जहाँ नारी कम्जोर है वहाँ नारी का, जहाँ पुरूष कमजोर है वहाँ पुरूष का या जहाँ समाज का एक व्र्ग कमजोर है वहाँ उस व्र्ग विशेष का शोषण होता है। अतः इस पूर्वाग्रह पीड़ा से मुक्त होना जरूरी है कि पुरूष इन सब चईजों के लिए दोषी है।
ऐसा मेने तो नहीं देखा, शायद आप पर बीती हो. मेरी मा-बहन के साथ तो ऐसा कुछ नहीं हुआ. में और मेरे परिवार में लड़का होने पर जो खुशी मनाई जाती उससे ज्यादा खुशी लड़की होने पर मनाई गई. भ्रूण हत्या के बारे में आपको जानकारी है तो पुलिस को क्यों नहीं बताते कविता में चुगली क्यों कर रहे हो. दहेज़ पर सीधे हमला करो, यूं रोकर अपने साथ होने वाले अन्याय की बात कुछ जमी नहीं. दहेज़ है तो शादी मत कीजिए. भगवान ने लड़कियों को ज़िंदगी सिर्फ शादी के लिए तो नहीं दी. और अगर आपको ईर्ष्या होती है हमारी स्वर्ग सी बीत रही ज़िंदगी पर तो इसका राज़ जानने के लिए अगली बार भगवान से कहकर पुरुष योनी में जन्म ले लीजिये. और तब गिनियेगा लड़के होने के फायदे या लड़की होने के नुकसान. में आपका क्रेडिट कम नहीं कर रहा हूँ, पर आप लगातार हमें नीचा दिखा रहें हैं ये उसकी प्रतिक्रिया है. इसके लिए हमारे बुजुर्ग पुरुष कहते हैं की एक मछली पूरे तालाब को गन्दा करती है, पर आपकी एक गन्दी मछली अपवाद होती है और हमारी गन्दी मछली पर पूरी प्रजाति का प्रतिनिधित्व थोप दिया जाता है " ये तो शुद्ध पक्षपात है"
कविता अच्छी है पर बेनामी बंधुओं के कथन को नज़र-अंदाज़ नही किया जा सकता!
बिल्कुल ठीक कहा आपने अनुराधा जी
सही रूप में नारी पुरूष और समाज के हाथों कठपुतली बन जाती है
itne sare comments padne par mujhe apne vichar badlne pad rahe hai
dekhiye anonymous ji nari ke piche hi sara sansaar hai
agr aap ghar ko khushhaal dekhne chahte hai to nari se hi shuraat hoti hai
mai yeh nhi kehti ki dard sirf nari ko hai jitna dard nari ko hai usse jada purush jhelta hai kintu woh apni manmarzi to kar sakta hai samaj to nhi use kehta kuch
dono ko barabar ka adhikar mile
aur is duniya ko khushhaal banaya ja sake
मैने अपने सभी नाराज मित्रों की बात ध्यान से पढ़ी औरसमझी भी। मैं आपके मत का पूर्ण आदर करते हुए एक प्रश्न पूछना चाहती हूँ कि आपको यह सब सुनना या पढ़ना बुरा क्यों लगता है? जबकि नारी तो यह सब सहन करती है। कुछ आधुनिक परिवारों की बात यदि भूल जाइए अधिकतर जगहों में नारी का शोषण ही होता है।
मेरे एक मित्र का मानना है कि आज ऐसा नहीं होता। मेरे भाई आज अधिक होता है। चलिए मैं आपको एक उदाहरण दूँ- जहाँ पुरूष और महिलाएँ दोनो काम करती हैं वहाँ क्या वो दोहरी भूमिका नहीं निभाती?
जहाँ काम करती हैं वहाँ के पुरूष उनसे क्या आशा करते हैं? एक महिला की उन्नति पर एक पुरूष का मुसकुरान क्या उसके अस्तित्व पर प्रश्न नहीं लगाता?
और सुनिए- पढ़ी- लिखी होने पर भी परिवार में उसकी स्थिति कया है? बच्चे माँ से प्यार तो करते है किन्तु उसकी बौद्धिक क्षमता को कभी आदर नहीं देते।
नारी यदि काम करती है तो पुरूष वर्ग उसपर फब्तियाँ कसता है, हँसता है।और पढा लिखा होने पर भी बसों में, या अकेले स्थानों में अभद्र व्यवहार करता है। एक छोटी बच्ची भी जब बाहर जाती है तो दादा की उम्र के लोगों की अशिष्ट हरकतों का शिकार होती है। यह पढ़े लिखे समाज का हाल है बन्धु। जो सहता है वही जानता है।
अतः मैं अपने सभी मित्रों से अनुरोध करूँगी कि इस विषय पर इतनी प्रतिक्रिया ना दिखाएँ। हाँ हर पुरूष एक सा नहीं। आप सब भी यही सोच कर इतनी टिप्पणी दे रहें हैं कि एक नारी है( पागल है, इनको आता ही क्या है)
अगर नहीं तो नाराज़ मत होइए आप भी कहिए कि जहाँ भी गलत होता है वो नहीं होना चाहिए। सस्नेह
अनुराधा जी,
जब रचना चर्चा का केन्द्र बने तो समझ लीजिये आपकी कलम नें अपना काम कर दिया। बधाई स्वीकारें...
*** राजीव रंजन प्रसाद
मित्रो
पिछले दिनों मैंने किसी महिला से यह कह दिया कि नारी शोषण किसी न किसी रूप में सभी जगह होता ही है, उन्होंने मेरी ऐसी तैसी इसी बात पर करते हुये मुझे यह तर्क मानने पर विवश कर दिया कि जब तक कोई महिला स्वयम नहीं चाहती तब तक कोई भी उसका शोषण नहीं कर सकता और यह कुछ हद तक सही भी है
मूलतः मैं बन्धु राजीव जी की टिपण्णी से सहमत हूँ कि कविता अपना काम कर चुकी है बाकी काम तो समाज के तथाकथित अलमबारदारों को ही करना है जिसमें घर से प्रारम्भ होती है .... 'सास जो कभी बहू भी थी' ....... अनुराधा जी शुभकामनाएं आगामी रचनाओं के लिये
दोनों पक्षों की बातों में दम है, जरूरत है एक-दूसरे को समझने की। कमियाँ हर जगह हैं, अन्याय हर जगह है, इसे किसी वर्ग, जाति या लिंग में बाँध नहीं सकते। हाँ यह अलग बात है कि ज्यादातर घटनाएँ महिलाओं के साथ हीं होती हैं। लेकिन इसमें जैसा मुझे लगता है , अब पुरूष वर्ग के साथ-साथ महिला वर्ग का भी बराबर दोष है। "क्योंकि बहू हीं सास बनती है" इसलिए वही सहती है और आगे चलकर वह शोषण भी करती है। अत: जरूरत है कि समस्या की जड़ तक जाया जाए और आरोप-प्रत्यारोप के दौर से बचा जाए।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
अनुराधा जी अच्छी रचना के लिए बधाई | मैंने बहुत देर से आपकी रचना पढी और सभी टिप्पणिया भी | इस बात को नकारा नही जा सकता की नारी पर जुल्म होता है , कोई माने या न माने , नारी जुल्म सहती है ,कई बार मजबूरी मे तो कई बार कमजोर होने से , हम मे से कितनी नारिया है जिन्होंने सहन नही किया | दिनेश जी से कहना चाहूंगी कि यह केवल उनका मानना है कि उनकी माँ ,बहन के साथ ऐसा कुछ नही हुआ ,क्योंकि आपने कभी उनके अन्दर की पीड़ा को कभी महसूस ही नही किया ,यही तो नारी की खासियत है ,अपने दर्द को पी जाने की शक्ति है उसमे |क्षमा कीजियेगा क्या एक पुरूष एक बच्चे को भी संभाल सकता है |हम भी देखते है .....पढे लिखे समाज मे ही लीजिए ...एक बच्चे का पालन-पोषण कराने के लिए नारी को ही काम छोड़ कर घर मे बैठना पङता है ,क्यो नारी की योग्यता को नही पहिचाना जाता , परिवार मे रहते हुए भी उसपर कितने बन्धन होते है , नारी ही त्याग करती है |माना पुरूष भी त्याग करते है .....पर उतना सहनशीलता से नही ....अगर कुछ अपवादों को छोड़ दे तो नारी आज भी शोषण का शिकार होती है |यह अलग बात है कि उसके लिए हम केवल पुरूष को दोषी नही मान सकते |इस विषय पर बहुत बहस हो चुकी है ,और जितनी चाहो हो सकती है , लेकिन इन बातो से निकल कर वास्तविकता को समझाना होगा.......सीमा सचदेव
पहली बात की सच मे मै यहा कुछ कहना ही नही चाहती थी... लेकिन कुछ निजी कारणो से बोल रही हूँ।
१. कविता सशक्त है... इस बात से इनकार नही
वो इसलिये की इस कविता पर अपनी राय देने के लिये अनाम आना पड रह रहा है।
नारीवाद पर हम कई नारियाँ लिखती हैं लेकिन इस तरह से बहस उनकी लेखनी पर नही हूई।
इन दो कारणो से मै यह मानती हूं कि यह कविता नारीवाद पर लिखी आज तक की कविताओ मे सबसे अच्छी है।
२. अब बात यह रह गयी कि जब हम कोई कविता पढते हैं तो उसे सिर्फ़ कविता मानकर अपनी प्रतिक्रिया क्यूं नही देते... इस तरह तो कई ऐसी कविताये हैं जो खुन के आँसु रुलाते हैं... क्या कभी हम उन लेखको से बोलते हैं कि भाई आप ऐसा ना लिखा करो... हास्य कविता या व्यंग कविता लिखो। ऐसा नही बोलते ना.... ?
३. इस कविता पर तीखी टिप्पणी नही होनी चाहिये थी... वैसे तो नरवाद पर नही लिखा जाता... लेकिन हाँ अधिकतर कवितायें नारी को बेवफ़ा बना कर लिखी जाती हैं... मुझे नही पता कि उन कविताओ पर इस तरह की टिप्पणिया आती होंगी???
४. अब अनामदास जी आप खुद स्वीकार कर रहे हैं कि "उसपर मेरी भुआ, बुजुर्ग मा-बाप पर ज़ुल्म करते बेटा-बहु की फिल्म देखते हुए मुझे बार-बार तोंट करती 'की देख लो तुम बडे होकर ऐसा मत करना' " कुछ समझे नही आप... यानि उनको कही ना कही यह डर सता रहा होगा... वो कोई कल्पना नही थे, आपकी बुआ जीती जागती इन्सान थीं।
हाँ यह अलग बात है कि आपको खुदपर शर्म आती थी.. १० साल का बच्चा यह नही सोच पाया कि मै ऐसा नही करूँगा।
हम लडकियाँ तो बचपन से यह सुनती आती हैं कि "तुम लडकी हो, तुम ये नही कर सकती.. वो नही कर सकती... ब्ला ब्ला ब्ला" तो क्या हमने जीना छोड दिया? ऐसा नही है.. ना हमने मौत को गले लगाया... ना हमने सपने देखने छोडे... ना ही अपने अधिकार से लडना छोडा... क्यूँकि अगर यह छोड दिया होता तो... शायद नारीवाद पर लिखने के लिये कोई बचा ही नही होता।
नारीवाद पर लिखना तो तभी बन्द होगा या तो जब नारी अपने आपको पूर्ण समझ ले या फ़िर अपने लिये जीना छोड दे... पर अभी दोनो मे से कोई बात सच नही है।
४. हाँ मै नारीवाद पर घिसी पिटी राय नही रखती हूँ कि सारी समस्या की जड पूरूष ही हैं... ऐसा कभी नही हो सकता... लेकिन मै यह मानने से इन्कार भी नही करती कि जो अनुराधा जी ने लिखा है वो पूरी तरह गलत है।
हर सिक्के के दो पहलू हैं... जब तक दोनो पहलू बराबर नही होते सिक्का सामान्य नही होता... हाँ आप इस बात को नजर अन्दाज कर दे तो कोई क्या कहे
आपने साबित कर दिया नारी केवल नारीवादी होती है, उसे अपने मुह मियां मिठ्ठू(शेखचिल्ली) बनने मे मज़ा आता है, अपने को दबा कुचला कहलवाना भाता है, सहानभूति की भूख टीस मारती है, तथ्य नहीं मिलते तो भावनाएं पेश कर देती हैं. शोभा जी कहती हैं की माँ की बोधिक क्षमता पर बच्चे भरोसा नहीं करते. अब मेरी सुनिए मेरी ९ साल की बेटी भी मेरे बोधिक अक्षम्यता पर हस्ती है पर में इसमें गर्व महसूस करता हूँ. मेरे ऑफिस में ऐसा नहीं होता किसी ने फब्तियाँ कसी हों. कहने सुनाने की बातों को आप अनिवार्य बता रही हैं. जिस समाज की आप बात कर रही हैं उसमें में भी रहता हूँ और मेरी भी आँखें और एक छोटा सा दिमाग है, और समझ सकता हूँ जहाँ ग़लत हो रहा है अगर मुझे दिखाई देता तो में उसका विरोध करने की दम रखता हूँ पर मेरे सामने आज तक एसी नौबत नहीं आयी. फ़िर में कैसे मान लूँ के बस में हर दूसरा मर्द महिलाओं को परेशान करता है. जिस तरह के घिनौने बुड्ढों का जिक्र अनुराधा जी ने किया है तो उनका पता बता दें मुझे या अपने पति को, पडोसियों को, या अपने भाई बंध या रिश्तेदार को और फ़िर देखें उनकी हड्डियाँ सलामत नहीं रहेंगी. जिस समाज को आप दोषी बताते हैं उसमें मेरे पिताजी भी हैं, मेरा छोटा भाई है, मेरे दोस्त हैं, और में भी हूँ, मेरा बेटा भी है, जब हमने कुछ नहीं किया तो हम क्यों सुने किसी के भी ताने. पुरूष-पुरूष-पुरूष. अभी महक जी ने हम सब पुरुषों को घमंडी कह दिया. आप सब ने मिलकर अप्रत्यक्ष रूप से पापी और राक्षस कह दिया. क्या हम यही सुनाने के लिए पैदा हुए हैं, आप सहती हैं तो हम भी सह रहें हैं आपके ये ताने. जो आपको नहीं करना मत कीजिये जो रोके उसका विरोध कीजिये, इसके लिए आने वाली परेशानी का सामना करना पड़े तो कीजिये. पर हमें सामुहिक रूप से आप तोहमत नहीं लगा सकते. आप अपने आपको कमज़ोर कहती हैं ज़रा अपने वज़न के आदमी से पंजा लड़ा लीजिये पर अगर आप कोमल और कमज़ोर दिखना ही चाहें तो बेशक जान बूझकर हार जाइयेगा. आप कहते हैं पर ऐसा तो आपके घर में नहीं होता होगा की आप लड़कियों को टोकती होंगी, अगर टोकती हैं तो ये आप है जो उन्हें आज़ादी नहीं देती. किस समाज की बात करती हैं कितने हैं जो आपको या आपकी बेटी को रोकेंगे या टोकेंगे कोई भी नहीं ये आप और आपके घरवाले रोका टोकी करें तो इसमें हमारा क्या दोष हैं पहले आप अपने आप को बदलें, कहने में अच्छा लगता होगा आपको पर जब आपकी बेटी की आज़ादी की बात आयेगी तो आपके पति से ज़्यादा आप उसे टोकेंगी.
aapka mahila aayog itna takatwar hai ki main unse darkar apne apko anam rakh raha hun, or aap kahti hain aap asahay hain,
अपने को अबला नारी कहकर आप अभी सहानभूति इकठ्ठा कर रही हैं, जब बुजुर्ग हो जाएँगी तब बुजुर्गियत पर सहानभूति इकठ्ठी करेंगी, दयाद्रष्टि से आपको घिन नहीं आती, आप अल्प संख्यक तो है नहीं आधी आबादी हैं दुनिया की. अब जैसे पाकिस्तानी बोलते हैं ना की पूरी दुनिया में हमारी कौम पर ज़ुल्म होते हैं, बाकि धर्म काफिर(राक्षस) हैं. तब आप ये सुनकर बौखला जायेंगे के भाई कहाँ कर रही है दूसरी कोम आपकी आबादी पर ज़ुल्म, तो वो नहीं मानेगें बस कह देंगे के "हम पर ज़ुल्म तो हो रहा है" पर कहाँ ये उन्हें भी ठीक से नहीं मालूम, क्या वैसा ही हाल नहीं है आज की आप जैसी महिलाओं का आप भी यही कह देते हैं के ज़ुल्म हो रहा है हम पर, लेकिन अपनी पूरी ज़िंदगी में आंखों देखे १०० मामले नहीं गिना पाएंगे आप.
ankhon dekhe 100 zyada ho gaya, kewal 10 hi gina den.?
sari samasya ki jad naar hi hai...
जिस सभ्य और आधुनिक समाज को आप कुछ और अपवाद कह रहे हैं वो दुनिया का 65% हिस्सा है.
मतलब आप मानती हैं की आप १००% शुद्ध और दया की पात्र हैं.
अगर एक औरत को डायन बनाकर पीटा जाता हैं तो उतने ही आदमी पेड़ से बाँधकर पीटे और घसीटे जाते हैं, राह चलता उनपर हाथ साफ कर देता है. मतलब साफ है की यहाँ ज़ुल्म कमजोरों पर किया जाता है. वो भी कुछ मौकापरस्त लोग ही ऐसा करते हैं. उनपर तो हमें भी गुस्सा आता है पर इसके लिए हम दोषी क्यों कहलायें. कभी कभी लड़कियां भी अपने कानूनी उपहारों का उपयोग डराने धमकाने में या खीज निकालने में करती हैं. आज की लड़कियां मजाक में ही सही पर अपने पुरूष मित्रों से कहकर पढाकू और सीधे साधे या ख़ुद पर ध्यान ना देने वाले लड़कों को पिटवा देती हैं. अगर आप बच्चों के लिए काम छोड़ती हैं तो ये आपका फैसला होता है ना की आपके पति का. और रही बात कामकाजी महिलाओं की दोहरी भूमिकाओं की तो वे अगर कमाती हैं तो सर्वेंट क्यों नहीं रख लेती. अगर आपके पति जिम्मेदारियों में हाथ नहीं बटाते तो आप भी जिम्मेदारियों का ठेका लेना छोड़ दें, इससे कोई दिवोर्से तो हो नहीं जाएगा. बुरा मत मानिएगा घर की जिम्मेदारी उठाना आपका फ़र्ज़ नहीं आपका शोक भी है, पर आप इसे मजबूरी कह देती हैं. पुरूष नहीं उठाता तो उसे तलाक़ दे दीजिये और जैसे चाहे मनमानी कीजिये. अगर नहीं कर सकते तो आप इसे मजबूरी या लालच या ज़िम्मेदारी कह सकती हैं.
अनुराधा जी , आपकी कविता उत्तम है, किंतु इसके बाद छिड़ी हुई बहस को देखकर लगा की नारी व्यर्थ ही ख़ुद को कमजोर समझ रही है ,यहाँ तो पुरूष अपना नाम तक बताने से डरते हैं !!!!!!!!समस्त विश्व की नारियों से यह कहना चाहूंगी कि ख़ुद पर और इश्वर पर हमेशा विश्वास रखें,नारी पर ज़ुल्म होता है यह सोच कर कभी भी अपने आप को नीचा न दिखाएँ , न ही ख़ुद को कमजोर समझें , जो भी करें पूरे आत्म विश्वास के साथ करें .
पूजा अनिल
मैं अपने अनाम मित्र का नाम जानना चाहती हूँ। ः)
Rahul khanna
vikas sharma
Arvind ghoshal
Saurabh Malviya (23)
धन्यवाद मित्रों
आगे से जो भी कहें डंके की चोट से कहें.
Pankaj goyal
Anubhav Puri
santa se lekar banta tak
fir bhi na samajh aaye to aap apni class ke bachchon ka register se naam likh len
hahaahhaahahahahahahhahaahahah
yugm par waise bhi kafi purush kavi hain unke nam ka upyog apni samajh ke liye kar lein. kintu aap naam ke bajay point par dhyaan den wahi aaapke liye discuss ka focus hona thik hai naa
अंजान जी, चलिए माना की पुरुष भी बहुत सताए हुए हैं. लेकिन किसी भी पुरुष पर कोई भी अत्याचार इसलिए नहीं होता क्यूंकी वो पुरुष है. वे कारण अलग होते हैं और समस्याएं भी अलग होती हैं. उनका समाधान करने की कोशिश भी की जाती है. वहीं यदि कोई स्त्री सताई जाती है तो उसका मुख्य कारण ही उसका स्त्री होना होता है. मैने तो कभी "मेल टीज़िंग" नहीं सुना. सड़कों पर, बसों में, दफ़्तरों में, कहीं भी औरत को ही छेडा जाता है, पुरुष को नहीं. आपके किए बड़ी मामूली सी बात होगी, और आप कहेंगे "अरे क्या हुआ अगर एक सीटी बजा भी दी उस लफंगे ने... तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है", "अरे कहने दो जो कहते हैं लोग सड़क पे, आप क्यूँ ध्यान देती हैं". किंतु आप यह कभी समझ नहीं पाएँगे, क्यूंकी यह आपके साथ यह ना हुआ है.. ना कभी होगा, क्यूंकी आप पुरुष हैं स्त्री नहीं.
जब पुरुष होना किसी समस्या का कारण नहीं तो स्त्री होना क्यूँ है..
बलात्कार स्त्रियों का होता है, ग़लत तरीकों से लड़कियाँ अरब देशों में ग़लत काम के लिए बेची जाती हैं, और उन्हें खरीदने वाले पुरुष होते हैं, खुद औरतें नहीं.
इस कविता का माध्यम से शोभा जी यह नहीं कहना चाहती थी की सारी समस्याएं सिर्फ़ औरतों की ही हैं और उनका कारण सभी पुरुष हैं. बल्कि संदेश यह था की आज भी हर औरत को किसी ना किसी रूप में अपने औरत होने की कीमत चुकानी पड़ती है. मात्र इतना ही.
आशा है 'श्रीमान अंजान जी' समझ सकेंगे की हम हर पुरुष को दोषी नहीं कह रहे हैं, किंतु मुद्दा है स्त्री की मुश्किलें, आप नहीं. आप अवश्य ही बहुत अच्छे इंसान होंगे, सभी नहीं होते. यॅ कविता उन लोगों की ही ओर संकेत करती है. आप इसे दिल पर ना लें.
धन्यवाद.
गरिमा सिंह.
मुझे अनुराधा जी की खानाबदोश बच्चों की कविता बहोत- बहोत प्यारी लगी थी.
ये भी अच्छी है पर शायद मेरे थोडा ऊपर से निकल गई, मेने जो समझा में उसपर भड़क गया. माफ़ कीजियेगा अनुराधा जी....
गरिमा जी, सहमति व्यक्त करता हूँ. पर जिन बातों से में असहमत हूँ उनका जवाब देने की गुस्ताखी कर रहा हूँ. पहली बात जिससे में सहमत नहीं हूँ क्योंकि देश में समाधान केवल महिलाओं के लिए ही हैं. पुरुष संबधी किसी भी समस्या का समाधान नहीं किया जाता. महिला पक्ष से परेशान किये जाने पर पुरुष को तलाक लेने में परेशानी, किसी भी स्थति में आधी कमाई देने के लिए मजबूर किया जाना, पति की म्रत्यु हो जाने पर उसकी सम्पत्ति खून पसीने बहाकर पालने वाले बुजुर्ग हो चुके मा-बाप को नज़रंदाज़ कर पत्नी को दे दी जाती है. अगर औरत मेरी चाची की तरह हुयी तो उन्हें फूटी कौडी के लिए मोहताज करकर अपनी दूसरी शादी कर लेती है. पति का बीमा, पेंशन, सारी जमा पूंजी और उनके घर पर कानून से एकाधिकार पाकर चाची ने अपने एक्स हसबेंड के मा-बाप को घर से बेदखल करकर उन्हें भूको मरने छोड़ दिया. अपना एक लोता बेटा गवा चुके बुढे मा-बाप जब तक काम करकर पेट पाल सके पाला. आखिरकार कानून और बहु से शिकायत लिए दुनिया से रुखसत हो गए. इस तरह के बुजुर्गों का बुढापे में इस हाल का कारण कानून का केवल महिलाओं को नज़र में रखना है.
--- दूसरी समस्या लड़कियों संबधी है ना की नारी संबंधी जो कभी कभार गलत वक्त पर गलत लोगों के सामने से गुजरने पर उत्पन्न हो जाती है, हाँ इसको रोकने के लिए पुलिस थोडा ढीला रवैया अपना रही है क्योंकी इन लोगों का कोई ठोरठिकाना नहीं होता. यही वो लोग हैं जो लूटा-पाटी में लिप्त रहते हैं. बलात्कार, बच्चों का अपहरण के दोषी इस तरह के लोगों का दिन में निशाना राह चलती लड़कियां बनती हैं और रात में राहगीरों की धुनाई, उनके पैसे और गाडियाँ छीन लेना इनका काम है. इनसे निपटने के लिए पुलिस थोडी मुस्तैद हो तो आपको हमको सबको इनसे निजात मिलेगी. पर इलेक्शन और राजनीतिक उपद्रव में काम आने वाले ऐसे लफंगे कई बार पुलिस को अपनी नेतागिरी से धमका देते हैं. जिससे पुलिस भी उनपर हाथ रखने से पहले सोचती है. गलत तरीके से अरब देशों में भेजी जाने वाली लड़कियों को देखकर किसी की भीई आँखें भीग जाएँगी... माना इनके खरीदार और लाने-ले-जाने वाले मर्द ही हैं पर भूलिए मत इनको अगवा करवाने वाली, इनकी सप्लाई का ठेका और डिमांड पूरी करने वाली अधिकांश ठेकेदार औरतें ही है. जबरन या बहला फुसलाकर या लालच देकर नई लड़कियों को धंडे के लिए कन्वेंस करने वाली यही हैं, ये भी माना की इन्हें भी कभी इस धंडे में जबरन लाया गया हो, पर अब जबकि ये चाहें तो यह धंदा छोड़ छोड़कर लाखों लड़कियों की ज़िंदगी खराब करने से बच सकती हैं, चाहे तो एक झटके में पूरी दुनिया के एसे सारे रेकेट का पर्दा फाश करकर मासूम लड़कियों की ज़िंदगी बचा सकती हैं, पर ये लालच ही है जो सब जानते हुए भी उन्हें ऐसा करने से मना कर रहा है. बाकि आपकी बातों से से में सहमत हूँ बस सामुहिक रूप से सारे पुरुषों को समस्याओं की जड़ मनाने वालों से मुझे एतराज़ है. आप-सभी से इस उग्र भाषा के लिए क्षमा मांगता हूँ.
किसी घर में कितने बच्चों की संख्या को सही कहा जा सकता है ? " मेरे ख्याल से सिर्फ दो" अगर में और पूरा भारत चाहे के उसके घर में एक लड़का और एक लड़की पैदा हो, तो हमारा और सबका परिवार खुशहाल हो जायेगा, पोपुलेशन नहीं बढेगा, लड़के-लड़कियों की संख्या देश में बेलेंस हो जायेगी. पर अगर दोनों लड़के या दोनों लड़की हो जाएं तो,.... मेरे ख्याल से घर में हमेशा रक्षाबंधन खलेगा, घर सूना-सूना लगेगा, परिवार कम्पलीट नहीं लगेगा, इसका समाधान विज्ञान के पास है ... पर सरकार इसको इसलिए प्रतिबंधित कर चुकी है की कहीं गवांर इसकी सहायता से दहेज़ के लिए लड़कों की झड़ी ना लगा दें,.. अगर सरकार चाहे तो इसे आबादी कंट्रोल करने वाली मशीन की तरह उपयोग कर सकती है, क्योंकी अगर मुझे मेरे घर में बेटी चाहिऐ तो में तब तक उसका इंतजार करूंगा जब तक की बेटी नहीं हो जाती भले ही इसके एवज घर में लड़कों की लाइन लग जाये, और अगर फिर भी नहीं हुई तो मेरी किस्मत फूटी है,.. तब सरकारी मुसीबत ने मेरे घर को अफेक्ट किया,... अगर लिंग संतुलन की बात है, तो इसका उपयोग प्रतिबंधित करने के बजाये उतनी ही सख्ती और इस शर्त के साथ किया जाये की हर देशवासी इसका मुफ्त उपयोग करकर सिर्फ एक लड़का और एक लड़की की सुनिश्चितता तय करें..... ये क्रांतिकारी मशीन है जिसका उपयोग किया जाता है बच्चों में जन्म से पूर्व जेनेटिक प्रोब्लम का पता लगाने के लिए, की कहीं बच्चा मन्दबुद्धी तो नहीं होगा. कहीं थेलासीमिया से ग्रसित तो नहीं है, हाईट हेल्थ या शारीरिक विकृति तो नहीं है. अगर पाई जाती है तो उन्हें जेनेटिक इन्जीनिअरिंग से ठीक किया जा सकता है अपितु भ्रूण नष्ट कर दिया जाता है, ताकी बच्चा इतनी बुरी विकृतियों के साथ पूरे जीवन को शूल की तरह भुगतने के लिए मजबूर न हो,... आज सरकार की इतनी कड़ी पहरेदारी के बीच इसका उपयोग, जन्मपूर्व बच्चे में विकृति जानने तक के लिए भी जनसामान्य मुसीबत और डर या जानकारी के आभाव में इसका उपयोग नहीं करता... खैर ये तो प्रतिबंधित नहीं है पर सरकार इसकी इस सुविधा का प्रचार नहीं करती और इसे छुपा कर रखती है. इससे होता क्या है?.. स्पेशल स्कूल में भर्ती कितने ही बच्चे इसके उपयोग से इस जालिम जीवन को भोगने के लिए इस दुनिया में नहीं आते या सामान्य होकर सामान्य बच्चों की तरह सामान्य जीवन जीते. इसकी जिम्मेदार, सरकार की संकुचित सोच है.... क्या आप में से कोई भी ऐसा चाहेगा की आपके घर में केवल लड़के हो? " मेरे ख्याल से कोई भी नहीं." क्या आप में से कोई भी चाहेगा की आपके घर के आँगन में सिर्फ एक लड़की और एक लड़का हो ? " मेरे ख्याल से आप सभी बल्कि पूरा देश ऐसा ही चाहता है.... तो फिर ये लागू होना चाहिऐ, भले ही सख्ती के साथ पर ये कम्पलसरी हो तो स्पेशल स्कूल की ज़रूरत नहीं पड़ेगी... बेटा या बेटी की चाह में बच्चों की लाइन नहीं लगेगी. सम्भावना है आबादी कंट्रोल होने की, नारी-नारा संतुलन की.
इस भ्रूण हत्या की मशीन कही जाने वाली यह मशीन जनसामान्य की ज़रूरत भी है और हर भ्रूण का हक़ भी ताकी वो सही रूप से जीवन का आनंद लेने की गेरेंटी के साथ धरती पर कदम रखे,
वैसे भी जहाँ तक में जनता हूँ बनना शुरू हुए भ्रूण में जान(लाइफ) नहीं होती उसे दर्द नहीं होता. इसलिए हत्या शब्द सही नहीं है.
मुझे दूसरों की बात तो नहीं पता.. पर मैंने अपने आस-पास कभी किसी नारी पर जुल्म होते नहीं देखा और ना किया है ना अपने घर में और ना ही कहीं और.... बस अखबारों में पढा है.. न्यूज चैनलों में देखा है.. हाँ छेड़खानी होते जरूर देखा है.. और यकीं मानिए मुझे भी उतना ही बुरा लगता है तब जितना की उसे लगता होगा जिसे छेड़ा गया है..
जो भी कहिये.. मैंने तो बहुत आनंद उठाया है इस कविता का भी और बहस का भी.. दोनों ही पक्ष के सवाल और दलील मजेदार हैं.. :)
आपको अच्छी कविता के लिए बधाई और मेरी बात को बहस से दूर समझियेगा.. मेरी मम्मी ने हमेशा सिखाया है की बडों से बहस नहीं करते.. :D
क्या कहा गरिमा जी ने के आपने मेल टीसिंग नहीं सूनी - हमने देखि है और कई बार झेली है, अगर कहने वाले कहें की मुझे तो मज़ा आया होगा सीनिअर लड़कियों के झुंड में हँसी का पात्र बनने में और ज़बरदस्ती की टच थेरपी लेने में, तो कभी किसी कुत्ते की पूंछ खेचना, किसी भी जानवर को छेड़ना चाहे प्यार से ही छेडो घेरकर इस तरह तो जानवर प्रतिक्रिया में आपका मुह नोच लेगा या भाग जाएगा, भले ही मैं बड़ा जानवर हूँ पर न भाग सकने पर अगर में उनका मुह नोच लेता तो मेरा क्या हाल होता, ये तो आप सब जानते हैं... पुलिस से पिटाई, उनके घरवालों से पिटाई, कोलेज से रस्तिगेशन, हम अपने मामले बताएं तो आप जैसे अपने वर्ग के सो-काल्ड ठेकेदार उसे मानने से साफ इंकार कर देंगे, और आधे से ज़्यादा मर्द जो की आड़े-टेड़े मुखौटों को लिए पैदा हुए थे वो इसपर विश्वास नहीं करेंगे और बात हँसी खेल बन जायेगी, ये लिखने के लिए मुझे कल की एक घटना ने प्रेरित किया जो ऊपर लिखी देवी जी के कमेन्ट का सिरे से खंडन करती है की "शहर में नारियों का यह हाल है तो गांव में क्या होता होगा... " खेर में अपने घर वालों की नज़र में ना आ जाऊँ ये सोचकर रात को करीब १.५ घंटे इधर से उधर भागता रहा, गावं की उस हमउम्र रिश्तेदार से ऐसी उम्मीद नहीं थी, ना में घर का रहता ना घांट का अगर उसकी हरकतों से भनक पाकर घर वालों की आँख खुल जाती, वो तो फटाक से दल बदल लेती, अगर कुछ भी ना कहती तो भी मुझ पर ही शक किया जाता, मैंने अपने घर में अपना सम्मान बचाया सेल्फ पर सोकर...
साल में १० की दर से चारो तरफ़ दिखाई देती ऐसी घटनाएँ हमारे लिए तो कहने वाली बात भी नहीं होती है पर आप.. नारियों के लिए बात कुछ और हो जाती है, सहेलियों में ऐसे मुद्दे पर तो बड़ा खिलखिला कर चटखारे लिए जाते हैं. एक दूसरे के साथ घटित होती ऐसी घटनाओं पर दूसरी की किस्मत पर इर्ष्या भरे ठहाके लगते हैं, लेकिन समाज में एक दम सीधे खड़े होकर एक्सप्रेशन लेस चहरा ताने एक तरफा उंगली दिखाए बिना आपसे रहा नहीं जाता.... ये तो दोगलापन है... कमसकम हम जो हैं वो दुनिया के सामने स्वीकारते तो हैं. आप को झुंड के सामने स्वीकारने में असहज लगता है तो खोखले इल्जाम तो मत थोपो दूसरों के माथे पर...
मैं तो शायद बहुत ही लेट हो गयी इस कविता और टिप्पणियों को पढने में.पर अच्छा ही हुआ की इस सब चर्चा का सम्पूरण आनंद तो ले पाई ...वाकई इस मुद्दे को अपने तार तार कर के विश्लेषण कर दिया..निसंदेह कविता सशक्त थी ...मेरा इस बारे में एक न्यूट्रल पक्ष ये है की हर व्यक्ति स्वयं को व्यक्ति?इन्दिविदुअल पहले समझे स्त्री या पुरुष बाद में .तो शायद आने वाले कुछ सो सालों में ..आदर्श स्तिथि आ सकती है...पर फिलहाल तो सभी नारीवादी कवियों-कवित्रियों को एक सुर में बात करनी ज़रूरी है..ताकि स्त्री पुरुष के ध्रुव न रहकर मानवतावादी और गैर मानवतावादी ध्रुव बन सकें...बाकि सच तो यह है की घायल की गति घायल जाने. keep it up anuradha
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