ईंट-पत्थरों के दीवारों में भी
कई बार...
कुछ दिल-सा धड़कता है...
कुछ साँसों-सा उफनता है
तभी तो
हालात की मार से
कई बार...
बिखर जाते हैं...तिनकों-सरीखे
भू्लकर कि ....
ये आशियां भी हैं किसी के
दफन कर देते हैं
मोहताजों को
इन्हीं की रूहें
कई बार समा जाती हैं
इंसानों में
तभी तो...
कई बार...
इंसान भी...पत्थरों-सा निर्मोही हो
तज देता है...इंसानियत
बेचता है...ईमान-जज्बात
और पैदा करता है ऐसे हालात
जिनमें बिखरते हैं...पत्थरों के मकां
और उनकी रूहें
समाती रहती हैं
उन जैसे इंसानों में
ये शहर इसलिए भी
इंसानों के शहर नहीं कहलाए
हर बार ये कहे जाते हैं
पत्थरों के शहर...
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
तभी तो...
कई बार...
इंसान भी...पत््थरों-सा िनर्मोही हो
तज देता है...इंसािनयत
बेचता है...ईमान-जज््बात
और पैदा करता है ऐसे हालात
िजनमें िबखरते हैं...पत््थरों के मकां
और उनकी रूहें
समाती रहती हैं
aapne bahut sahi likha hai
regards
sumit bhardwaj
आपके कुछ शब्द प्राचीन सभ्यताओं ki तरह गायब हो गए हैं...दिख नहीं रहे..
कविता बहुत सटीक है,...
निखिल
रचना सही है |
प्रश्न आ रहा कि यह विवशता है या पतन ?
-- अवनीश तिवारी
तज देता है...इंसानियत
सही कहा अभिषेक जी , अच्छी कविता है
पूजा अनिल
अच्छी कविता
इंसान भी...पत्थरों-सा निर्मोही हो
तज देता है...इंसानियत
बेचता है...ईमान-जज्बात
और पैदा करता है ऐसे हालात
जिनमें बिखरते हैं...पत्थरों के मकां
और उनकी रूहें
समाती रहती हैं
उन जैसे इंसानों में
ये शहर इसलिए भी
इंसानों के शहर नहीं कहलाए
हर बार ये कहे जाते हैं
पत्थरों के शहर...
अच्छी कविता है
वाह अभिषेक भाई.... बहुत सुंदर
बहुत हीं गहरी बात कह डाली है आपने, अभिषेक जी!
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
अभिषेक जी 'पत्थर के शहर' पसन्द आई।
बहुत खूब
अति सुंदर अभिषेक जी
हाड -मास के पुतले मी निवास करते है पत्थर के दिल .......
सच कहा आपने पत्थरो के ही तो है यह....शरीर हो या शहर ....सीमा सचदेव
वाह कितना बढ़िया तरीके से आपने मनुष्य के बदलते व्यव्हार तथा उसकी प्रविरती को पत्रों से जोडा है बहुत बढिया .....
Well written poem about how the humans are turning into stones....not caring for the feelings and sentiments of fellow human beings.
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