बोझिल हवा,
हाथ को हाथ न सूझता था
साँस किरकिरी हो चली थी
कोई अदृश्य राख
खूब बरसी थी उस दिन,
जहाँ भी वह राख गिरी
उपजीं वहाँ वहाँ
विषैली अमरबेल की जात !
जड़ें बोईं गयीं हर जगह
चुपके से
जमीन में
कि उपजती रहे सदा यह कँटीली फ़सल
युगांत तक ।
सकल धरा पर
घातक
विष का रक्त बहा था
नये उदय के सूर्य
तथा उसकी नव
द्युति की सहज छाँव में ।
शांत ! अरे , खामोश !!
डपटकर कहते हैं
मुझसे
अंगारों भरी दहकती
आंखों वाले पन्ने वे
जिनमें लिखा है
सुबह हुई थी
उस दिन
कोई
सच्चाई की जीत हुई थी
और किसी रावण की
शायद-
मौत हुई थी ।
पापी था,
आततायी, दुष्ट राक्षस !
प्रतीक एक
बर्बर , आदिम और नृशंस जाति का !!
राक्षस
जिसने
माँगी सहमति
अपहृता एक वनिता से,
अपने ही परिणय की
मैं तो पन्ने घूम घूम कर
हार चुका
है मिलता नहीं एक राक्षस
ऐसा कोई भी ।
उस दिन
किसी विभीषण के हाथों
कहीं चुपके से बोया गया
था अनश्वर बीज कोई
कि जिससे सारी धरा
में
जड़ें पैठ गयीं
दूर तक ,
भीतर तक
आत्मा तक
जो अनश्वर, अकाट्य
अशोष्य, अजर
अलिप्त है
उस अनश्वर की मौत हुई
जड़ों के हाथों
नहीं आश्चर्य
कि अग्नि को सौंपी गयी
उद्भिजा नारी
कि जिसे उस
'राक्षस '
ने छुआ तक न था ।
उफ़!पन्नों के डर से
मस्तिष्क सहमा हुआ है
उन हब्शी पन्नों के डर से-
कि पता नहीं कब
फ़ाड़ दिया जाये उसका
पन्ना
डरता है
उतारते हुए परतें
उन पन्नों से
हर शब्द में जिनके शायद
परतें हैं
कुरूप दर कुरूप
उन्हीं किन्हीं परतों
से
निकलते राजमुकुट
और सिंहासन
जयघोष,
नाद,
कि जबतक रहेगा
सत्य का पक्षधर कोई
एक रावण तो
बनना ही पड़ेगा
किसी न किसी को।
देना पड़ेगा
रात्रि को जन्म
कि सूर्य आराधना हो सके !
और मेरे
ही कान खराब हैं
कि हर जयघोष ,स्तुति में
मुझे सुनाई देती है
एक आदिवासी , आदिम महक
जिसके फ़ूलों के बीज
सदियों पहले सारी धरती में
बोये गये ।
जिसके उद्भव का
दिव्य भस्म
बरसा था अधित्यका पर
उस दिन शायद
रावण मरा था कोई ।
उसी दिन
पत्थर पर लिखे गये थे
नायकत्व के उद्भव के
सभी अभियान वे !
और आश्चर्य!
कि खेतों में,
जंगलों में
लाल झंडे
और बर्फ़ को बारूद से
सोंधा करने वाले
यत्न देख कर
चौंक जाती है
पन्ने पढ़ने वालों
की मति -
जैसे कोई घृणित
त्याज्य और
भयावह पशु देख लिया हो
कि जैसे ये
किसी और
धरा की हो
फ़सल !!
कि जैसे इन
शांतिप्रिय पुष्पों ने
किसी
अंधेरे, काले कोने में
नहीं किये
तेज नाखून अपने -
और नहीं किटकिटाये
नुकीले दाँत
सभ्यता के ।
फ़िर डराते हैं मुझे
अंगारे जैसी आँखों वाले
पन्ने वे
पार की मैंने
किताबों वाली रेखा जब
जब भी
उठाया प्रश्न
रेखा खींचने वाली
कलम
की विश्वसनीयता पर !
जब भी मारनी चाही
छलाँग -
कुतर डाले मेरे
मानस पंख उन
पन्नों में लिखी हुई
बड़ी बड़ी कैंचियों ने
अधिकार की सीमा का
तब तब हुआ जन्म
उसी आदिम चिल्ल-पों के बीच
मेरे अंत के
नायाब तरीके ईजाद हुए
और आग के
चारों तरफ़
झूमती नाचती
डरावनी आवाज़ें निकालती
अंधेरे की लिखावट में
लील लिया
उन पन्नों नें मुझे
और उन
पन्नों में लिखे
मुझको पढ़ती हुई
आवाजों नें कहा-
एक और रावण का
वध हुआ ।
- आलोक शंकर
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29 कविताप्रेमियों का कहना है :
बोझिल हवा,
हाथ को हाथ न सूझता था
साँस किरकिरी हो चली थी
कोई अदृश्य राख
खूब बरसी थी उस दिन,
जहाँ भी वह राख गिरी
उपजीं वहाँ वहाँ
विषैली अमरबेल की जात !
alok ji....bahut khoob....badhai sweekar karein...
कि जबतक रहेगा
सत्य का पक्षधर कोई
एक रावण तो
बनना ही पड़ेगा
किसी न किसी को।
देना पड़ेगा
रात्रि को जन्म
कि सूर्य आराधना हो सके !
सही कहा आपने अलोक जी, इस लम्बी कविता में कहीं दूर बहा ले जाते हैं ....पता नहीं....सतयुग था या.....
बहुत बढ़िया बधाई ,अलग युग में पहुँचा दिया .
रावण के माध्यम से बहुत कुछ इन्गीत करने की कोशिश हुयी है |
रचना बहुत बड़ी हुयी है | पढ़ते समय मज़ा ज्यादा नही आता |
अवनीश तिवारी
आलोक जी !
कविता ऊपर से नीचे पढ़ते हुए ही लगा की यह आपकी कविता ही हो सकती है
धन्यवाद शुभकामनाएं
कि जबतक रहेगा
सत्य का पक्षधर कोई
एक रावण तो
बनना ही पड़ेगा
किसी न किसी को।
देना पड़ेगा
रात्रि को जन्म
कि सूर्य आराधना हो सके !
आलोक जी जब जब रावण आता है राम साथ मे आता है
जब जब होई धर्म की हानि
बाधाही मूर महा अभिमानी
तब तब धरी प्रभु विविध सरीरा
हरही सकल सज्जन भाव पीरा(तुलसीदास)
और रावण अभी मरा कहा है ,वो टू अभी भी जिंदा है ,हम सबमे किसी न किसी रूप मे छिपा हुआ है , बस फरक सिर्फ इतना है की किसी मे सोया है टू किसी मे जगता , आज आवश्यकता है अपने अन्दर के रावण को मारने की
आपकी कविता पढ़ के मजा आया | वैसे मैंने भी रावण पर लिखा है अपनी पुस्तक "मानस
की पीडा" मे " दुविधा मे रावण " जिसमे रावण का अलग ही रूप है , रावण को अपने किए पर पश्चताप होता है लेकिन वह एक राजा होकर फ़र्ज़ के हाथो बंधा है , अगर आप पढ़ना चाहे टू रचनाकार पर पढ़ सकते है |
आपकी कविता बहुत अच्छी है, एक अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकार करे .....सीमा सचदेव
अलोक जी आपने बखूबी इतिहास को अपने काव्य से प्रदर्शित किया है
बस कविता बड़ी थी जिसके कारन पाठक बोरियत महसूस करने लगता है कभी कभी
एक और रावन का वध पदकर अच्छा लगा
बहुत अच्छे
अच्छी रचना रची है आपने अलोक जी पर कुछ लम्बी थी :) फ़िर भी इसको नए अंदाज़ से पढ़ना अच्छा लगा :)
आलोक जी
आपकी काव्य प्रतिभा की मैं काफी कायल हूँ किन\तू आज कविता कुछ अधिक लम्बी हो गई है इसलिए पाठक उतना आनंद नहीं उठा पा रहे हैं.
यद्यपि कविता का अपना स्तर है . सस्नेह
alok jee....aap to machaye hue hain.
रावण के बाद॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ बहुत ही शानदार रचना है॰॰॰॰॰॰
मन की व्यथा वर्तमान का सच इस कविता का उदगम द्वार है, कविता कि एक एक पंक्ति मन मे अनेकों प्रश्न खड़ा करती है और सच्ची कड़वाई का अहसास कराती है॰॰॰॰॰॰॰॰॰ आलोक जी आपने अपनी कलम के साथ पूरा न्याय किया है॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ शुभकामनायें॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
bahut hi sundar likha hai.lambi hai par mujhe to pata hi nahi chala.....itni achhi jo hai waah
सुबह हुई थी
उस दिन
कोई
सच्चाई की जीत हुई थी
और किसी रावण की
शायद-
मौत हुई थी..........बहुत सार्थक रचना,बधाई हो इस चित्रण के लिए
कथ्य विस्तृत हो तो कविता लम्बी हो जाती है परंतु मुझे ज्यादा लम्बी नहीं लगीं आदियंत सुन्दर बना...
hello!
PLS KEEP THE SPIRIT, U HAVE SPARK TO GO AHEAD, BUT TRY METRIC POETRY ALSO BCS EVERYBODY FEEL COMFORTABLE IN FREE VERSE AND METRIC POETRY IS ALMOST DIED.
BROTHER
SAT PAL KHYAAL
Ram ki satta yadi swikar karte ho to Ram ke dwara agni pariksha galat nahi thi, ye siddh kiya ja sakta hai........
yadi Ramayan ko keval ek sahityik granth mante hain ...to fir ..???kai Prashna ek saath khare honge isi kavita ke prasang ko lekar....
Is kavita ki jo sabse khaas baat mujhe sahityik drishtikone se lagi wo ye ki Ravan ki ek ojhal naitikta ko aapne darshaya hai....
यहाँ जिस किताब और पन्नों की बात हुई है , वह रामायण नही है और न ही यहाँ सिर्फ़ रावण और राम की बात है , कविता का message यह भी है कि इतिहास सदा जीतने वालों ने ही लिखा है और हारने वाले का जो पक्ष रखा जाना चाहिए उसके लिए वे जीवित नही रहते . कभी कभी हराने वाले को विलेन बनाया जाता है ताकि जीतने वाला हीरो कहा जा सके .
आलोक जी !
पदकर अच्छा लगा ....
कि जबतक रहेगा
सत्य का पक्षधर कोई
एक रावण तो
बनना ही पड़ेगा
किसी न किसी को।
देना पड़ेगा
रात्रि को जन्म
कि सूर्य आराधना हो सके !
बहुत अच्छी रचना के लिए ...
बधाई |
धन्यवाद
शुभकामनाएं |
सामजिक दयित्वा के प्रति सजग रचनाकार द्वारा समर्थ शब्दों में एक सफल प्रस्तुति !
good going baba...
keep it up
good going baba...
keep it up
लम्बी कवितायें अलोक जी की पहचान हैं लेकिन यह भी ख़ास है कि कविता में प्रवाह अंत तक बना रहता है और सरल शब्दों का प्रयोग पढने वाले को समझने में आसान बना देता है.
''जब भी मारनी चाही
छलाँग -
कुतर डाले मेरे
मानस पंख उन
पन्नों में लिखी हुई
बड़ी बड़ी कैंचियों ने
अधिकार की सीमा का''
**अच्छी रचना है.
अच्छी कविता है, आलोक जी! परंतु बीच में कहीं कहीं कमज़ोर पड़ती है. पराजय तो सदा ही अपमानित होती आयी है, फिर चाहे रावण को बुराई का प्रतीक बना देने की बात हो या सुयोधन को सदा के लिये दुर्योधन बना देने की. पराजित को इतिहास ने सदैव गलत ही ठहराया है.
alok ji aapki kavita to hindi ke bahut sare shabdrupi motiyo ko samete hue hai , isliye me apne aapko ispar tippni dene ke saksham nahi manta , aapke dwara likhit kavitao ko padhakr humara hidi gyan badhega aisi apeksha hai !!
बहुत ही अच्छी कविता है !
बिना तुकांत के कविता में रस नहीं आता है पर यहाँ तो रस ही रस है !
पढ़ने में अच्छा लगा !
आलोक जी,
यह रचना भी आपकी शैली का एक अनूठा उदाहरण है। शब्दों और भावों का बढिया प्रयोग किया है आपने। रावण का भी उपयुक्त इस्तेमाल है। बीच में कविता कुछ लंबी-सी लगी, लेकिन अंत आते-आते रचना पसंदीदा बन गई।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक ’तन्हा’
लंबी पर सुन्दर कविता।
जबतक रहेगा
सत्य का पक्षधर कोई
एक रावण तो
बनना ही पड़ेगा
किसी न किसी को।
देना पड़ेगा
रात्रि को जन्म
कि सूर्य आराधना हो सके !
वाह! बधाई स्वीकारें।
उस दिन
किसी विभीषण के हाथों
कहीं चुपके से बोया गया
था अनश्वर बीज कोई
कि जिससे सारी धरा
में
जड़ें पैठ गयीं
दूर तक ,
भीतर तक
आत्मा तक
जो अनश्वर, अकाट्य
अशोष्य, अजर
अलिप्त है
उस अनश्वर की मौत हुई
जड़ों के हाथों
नहीं आश्चर्य
कि अग्नि को सौंपी गयी
उद्भिजा नारी
कि जिसे उस
'राक्षस '
ने छुआ तक न था ।
..यहां थोड़ी व्याख्या की आवश्यकता अनुभूत हुई.. लम्बी कविता है.. तेवर अच्छा है।
kosis achi ti par kahi n kahi vichar sunne wale ko bandh nahi paa re he try n try again
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