धरती माँ की दो बेटी
एक खुद की दूसरी सौतेली
खुद की बेटी उपजाउ मैदान
हुई जवान
दहेज में दिए
हरे भरे पेड़,भरपूर फसलें
सूरज ससुराल
एकदम खुशहाल!
सौतेली बेटी
बंजर रेगिस्तान
प्रेम की बारिश को तरसती
मनहूस सा चेहरा..
एकदम चुपचुप
ममता से अंजान
हुई जवान
दहेज में दिए
रेत के टीले,
झाड़-झंगड़,
चूहे-छछूंदरें
गुस्सा ससुराल..
सूरज विकराल!
सूरज उसे रोज जलाता
दहेज के ताने सुनाता
वो चुपचाप जलती रहती
हर पल रोती रहती
गालियाँ सुनती,कराहती
पर मर ना पाती..
प्यारे बाबा की याद आ जाती!
बाबा..
चाँद बाबा!
हर रात आते हैं
बेटी के छालों पर,
चाँदनी का मरहम लगाते हैं!
सहलाते हैं,समझाते हैं
लोरी गा कर सुलाते हैं..
बाबा दूर हैं,
मजबूर हैं..
बाबा के प्यार में वो भूल जाती है
सारी पीड़ा,सारे दुख!
छोटी बच्ची की तरह..
हँसती है,खिलखिलाती है
और फिर सो जाती है
कल फिर जलने के लिए
दहेज की आग में !
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
विपुल जी आपकी कविता जो की सामाजिक बुराई को अलग अंदाज़ में दर्शा रही है मुझे अच्छी लगी
आशा है
पसंद आएगी पाठकों को
विपुल, बहुत खूब लिखा है, एक स्त्री की वेदना के साथ-साथ तुमने बाबुल के स्नेह तथा अपनी कविता से अमीरी-गरीबी के भेद कों जितनी सरलता और खूबसूरती से प्रस्तुत किया है वह प्रशंश्नीय है.बंजर भूमि पर चाँद की चांदनी की कल्पना बहुत अच्छी लगी.sath hi nari ki sahan shakti ka accha udahran tumne suraj ki tapish ke madhyam se prastut kiya hai.
vipul bahut achha likha hai...bhaag 1 kahan hai..maine nahin padha....
अत्यन्त सुंदर भाव बधाई
दहेज़ की विभिशिक्का में जल रही उन अबलाओं के लिए एक सांत्वना वाली कविता हैं वरण समस्त पुरुषों को चाँद जैसा बनें के प्रति प्रेरित करती पंक्तियाँ
हर रात आते हैं
बेटी के छालों पर,
चाँदनी का मरहम लगाते हैं!
सहलाते हैं,समझाते हैं
बहुत ही मार्मिक हैं
my first comment on ur blog........ut surely there will bemany more to folow.......
aapki ekhi ka bahu baaa prashansak hoon main...you have always been a signfiant motivational factor for me....au ye sab aisi rachna ki wajah se....ehad utkrisht hai...keep up the good work and u will scale amazing heights...oustanding....ghazab socha hai aapne
विपुल चाँद को लेकर ऐसा शायद ही किसी ने सोचा होगा, नयापन होने के साथ साथ कविता बहुत से विषयों को बहुत खूबी से स्पर्श करती हुई निकल जाती है, यकीनन तुममे बहुत काबलियत है, बुधई सीरीज़ के बाद मुझे अब चाँद की हर कड़ी का भी इंतज़ार रहेगा, क्योंकि चाँद पर बहुत कुछ लिखा जा चूका है, मैं देखना चाहूँगा की अब आप क्या नया दे पते हैं.... बधाई
विपुल आपकी यह रचना भी बहुत अच्छी लगी ..नयापन है इस में ..इंतज़ार है आगे इस का
बहुत ही सुन्दर रचना विपुल जी बहुत नवीनता लिये हुये और अनौखी शैली
सौतेली बेटी
बंजर रेगिस्तान
प्रेम की बारिश को तरसती
मनहूस सा चेहरा..
एकदम चुपचुप
ममता से अंजान
हुई जवान
दहेज में दिए
रेत के टीले,
झाड़-झंगड़,
चूहे-छछूंदरें
गुस्सा ससुराल..
सूरज विकराल!
क्या बात है.. साधूवाद
एक अलग सोच ही इस कविता का सशक्त पहलू है
बधाई
कविता में नयापन है.
प्रस्तुति भी अच्छी लगी.
विपुल जी, बहुत अच्छी लगी रचना-
सूरज उसे रोज जलाता
दहेज के ताने सुनाता
वो चुपचाप जलती रहती
हर पल रोती रहती
गालियाँ सुनती,कराहती
पर मर ना पाती..
प्यारे बाबा की याद आ जाती!
चाँद मामा के रूप में तो देखा था पर आपने बहुत सुन्दर तरीके से उसे बाबा के रूप में प्रस्तुत किया है। अच्छा लगा।
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