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Sunday, March 02, 2008

अंतर्गति ...


क्यों
सांकल खटकाकर
चांदनी बनकर
हौले-से उतर जाती जिंदगी
यूं ही आँगन पर
मोतिओं-सी फर्श पर
तो ओस-सी पत्तों पर.....

क्यों ह्रदय छेड़ जाता स्पंदन
अधर भूल जाते कम्पन
कंगन की आवाज़ कैद हो जाती
नूपुर हो जाते खामोश
बिंदिया गुमसुम हो जाती
तो मेहेंदी भी बेहोश
अचानक ठंडी हवा क्यों झुलसा जाती
इन नयनों से नींद चुरा जाती
दर्द जीने नहीं देता
जुदाई मरने नहीं देती .......

फ़िर -फ़िर क्यों
सांकल खटका कर
चांदनी बनकर
झाँक झरोखे से जिन्दगी
ढूँढती रहती वही आँगन ...
फर्क बस इतना रह जाता
ए राही,
सिमट जाती भावनाएँ कागज़ के होशिये- सी
और टंग जातीं कहीं विराम-सी .......

सुनीता यादव

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16 कविताप्रेमियों का कहना है :

अवनीश एस तिवारी का कहना है कि -

सिमट जाती भावनाएँ कागज़ के होशिये- सी
और टंग जातीं कहीं विराम-सी .......
सुंदर

अवनीश तिवारी

Sajeev का कहना है कि -

दर्द जीने नहीं देता
जुदाई मरने नहीं देती .......
कब से कोई सांकल खटका रहा है, देखो तो सही दरो दरिचों को खोलकर .... बहुत सुंदर, हर बार की तरह

anju का कहना है कि -

सिमट जाती भावनाएँ कागज़ के होशिये- सी
और टंग जातीं कहीं विराम-सी .......
सुनीता जी यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी है
कविता के भाव अच्छे हैं

Harihar का कहना है कि -

सुनिताजी आपकी कविता दिल की गुफा की
गहराइयों से ठंडी हवा के बाद कुछ दर्द दे जाती हैं

बिंदिया गुमसुम हो जाती
तो मेहेंदी भी बेहोश
अचानक ठंडी हवा क्यों झुलसा जाती
इन नयनों से नींद चुरा जाती
दर्द जीने नहीं देता
जुदाई मरने नहीं देती .......

Anonymous का कहना है कि -

बहुत ही सुंदर भाव badhai

Sunny Chanchlani का कहना है कि -

फ़िर -फ़िर क्यों
सांकल खटका कर
चांदनी बनकर
झाँक झरोखे से जिन्दगी
ढूँढती रहती वही आँगन ...
फर्क बस इतना रह जाता
ए राही,
सिमट जाती भावनाएँ कागज़ के होशिये- सी
और टंग जातीं कहीं विराम-सी .......
बेहतरीन रचना

Mohinder56 का कहना है कि -

सुनीता जी,

सुन्दर भाव भरी रचना... बहुत पसन्द आई.
बधाई

Anonymous का कहना है कि -

सिमट जाती भावनाएँ कागज़ के होशिये- सी
और टंग जातीं कहीं विराम-सी .......
बहुत सुंदर कविता,शुभकामनाएं
आलोक सिंह "साहिल"

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

अद्भुत चित्रण हमेशा की तरह..

बहुत बहुत बधाई.

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

बिम्बों का बेहद प्रभावी प्रयोग....

*** राजीव रंजन प्रसाद

vivek "Ulloo"Pandey का कहना है कि -

वर्त्तमान परिदृश्य की समस्त सम्न्हावानावों को एक रूप में पिरोकर जो भाव व्यक्त करने का प्रयाश अपने किया है वह अतुलनीय एवं सराहनीय है ..

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

शब्दों के जाल में भाव उलझकर रह गये हैं।

SahityaShilpi का कहना है कि -

शब्द सुंदर हैं पर भावों को उतने ही सुंदर ढंग से अभिव्यक्त नहीं कर पाये. पर कुल मिलाकर रचना अच्छी है.

Alpana Verma का कहना है कि -

सुनीता जी जैसा मैंने पहले भी कहा था आप का शब्दकोश बहुत व्यापक है और कठिन शब्दों
से खूब पज़ल बनाती हैं :) ----
लेकिन इस बार आप की कविता में सरलता देखी जिसकी वजह से आसानी से समझ आ गयी.
'''क्यों ह्रदय छेड़ जाता स्पंदन
अधर भूल जाते कम्पन
कंगन की आवाज़ कैद हो जाती
नूपुर हो जाते खामोश
बिंदिया गुमसुम हो जाती
तो मेहेंदी भी बेहोश
अचानक ठंडी हवा क्यों झुलसा जाती
इन नयनों से नींद चुरा जाती
दर्द जीने नहीं देता
जुदाई मरने नहीं देती ....... ''
** भावों की अभिव्यक्ति अच्छी लगी.

विश्व दीपक का कहना है कि -

सुनीता जी,
बहुत हीं प्यारी एवं प्रभावी रचना है।

बधाई स्वीकारें!

-विश्व दीपक ’तन्हा’

Unknown का कहना है कि -

क्यों
सांकल खटकाकर
चांदनी बनकर
तो ओस-सी पत्तों पर.....


नूपुर हो जाते खामोश
बिंदिया गुमसुम हो जाती
..ठंडी हवा क्यों झुलसा जाती
..

ढूँढती रहती वही आँगन ...
फर्क बस इतना रह जाता
.......
सुनीता जी

बहुत ही सुंदर बिम्ब प्रयोग और गहरे भाव मुझे प्रसन्नता है कि युग्म पर आप हैं इसे एक निश्चित साहित्यिक स्तर पर पहुँचने के लिए निरंतर सहयोग करती हुयी

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